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पुण्यकीर्ति ने राजा दिवोदास से की आज्ञा मिलने के बाद काशी में वैकुंठ लोक के वैभव की कथायें खूब कहीं क्योंकि वहां लोग हर तरह से सुखी और पवित्र थे सो पाप पुण्य का उपदेश कौन सुनता.

दिवोदास के कानों तक भी विष्णु लोक के वैभव की बात पहुंची तो उसने पुण्यकीर्ति को बुला उपदेश सुना. विष्णु ने कहा अभी तक तो सब ठीक है पर पूरे जीवन में न जाने कब जाने अनजाने कौन सा अधर्म हो जाए पता नहीं.

इस अधर्म से पुण्य घट जायें और स्वर्ग न मिले इससे तो बेहतर है कि राजा आप जो कि इस समय ही बैकुंठ वासी होने के योग्यता रखते हैं , बैकुंठ चले जायें, पर यह आपकी मर्जी है. राजा दिवोदास के बात जंच गयी.

राजा दिवोदास ने विष्णु के साथ ही विष्णुलोक जाना स्वीकार लिया. तब गरुड़ विष्णु के संदेश वाहक बने और सारी घटना का स्वरूप समस्त घटना का विस्तृत वर्णन शिव को जा सुनाया.

ऐसे में यह आवश्यक हो गया कि काशी को एक बार फिर भगवान शिव का संरक्षण मिले. देवतागण भी काशी में अंश रूप से रहने के पुन: अधिकारी बनें. काशी की जनता को नया राजा मिले.

इस बीच जाने से पहले काशिराज राजा दिवोदास ने वरुणा नदी तथा असि नदी के बीच में स्थित स्थान पर एक शिवलिंग स्थापित किया और लिंग का नाम रखा विश्वनाथ. जगह का नाम वारुणासी पड़ गया.

दिवोदास विष्णु लोक को गये, शिव काशी आये. काशीवासी ब्राह्मणों ने शिव से वरदान मांगा कि वे कभी काशी छोड़ कर नहीं जायेंगे. आज भी काशी में भगवान भोले का वास है.
(यह दंत कथा है)

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1 COMMENT

  1. Very nice story. Prabhu sadev apne bhakto ki rakhsa karte hai. Shiv ji ki priya nagri Kashi or unka Vishwanath swaroop. Jai Maa Anapurna. Jai Vishwapati Vishwanath. Jai Sri Ganesh. Jai Sri Hari.

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