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कांचीपुर के राजा चोल च्रकवर्ती सम्राट थे. राजा पुण्यात्मा थे और प्रजा को संतान की तरह मानकर उसके सुख-दुख का ख्याल रखते थे. कांचीपुरम में कोई दुखी-दरिद्र या पापी न था.
चोल राजा श्रीविष्णुजी के परम भक्त थे. एक बार राजा अनन्तशयन तीर्थ में श्रीविष्णु की पूजा-अर्चना करने गए. विधिवत पूजा के बाद दिव्यमणि, सोने के आभूषणों एवं उत्तम फूलों से श्रीहरि का शृंगार किया.
पंच भक्ष्यों का नैवेद्य चढ़ाया और भक्तिभाव से भगवान के सामने साष्टांग दंडवत में लेट गए. तभी विष्णुदास नामक एक दरिद्र विष्णुभक्त मंदिर में पहंचा.
उन्होंने अपने साथ लाए तुलसी के पत्तों व साधारण फूल व फल श्रीहरि को अर्पित किए. विष्णुदास के तुलसीदल और फूलों से राजा ने जो भेंट अर्पित की थी, वह सब ढ़ंक गया.
यह देखकर राजा कुपित हो गए. उन्होंने विष्णुदास से कहा- तुम्हें पूजा का विधान नहीं पता. उस पर तुम दरिद्र भी हो. मैंने भगवान को जो स्वर्ण पुष्प और आभूषण अपर्ति किए उसे तुमने साधारण फूल-पत्तों से ढंक दिया.
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