Sunday, April 27, 2025
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यज्ञ हवन से ज्यादा भक्तिभाव से रीझते हैं भगवानः श्रीहरि के प्रिय पार्षदों पुण्यशील और सुशील की स्कंद पुराण में वर्णित कथा

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कांचीपुर के राजा चोल च्रकवर्ती सम्राट थे. राजा पुण्यात्मा थे और प्रजा को संतान की तरह मानकर उसके सुख-दुख का ख्याल रखते थे. कांचीपुरम में कोई दुखी-दरिद्र या पापी न था.

चोल राजा श्रीविष्णुजी के परम भक्त थे. एक बार राजा अनन्तशयन तीर्थ में श्रीविष्णु की पूजा-अर्चना करने गए. विधिवत पूजा के बाद दिव्यमणि, सोने के आभूषणों एवं उत्तम फूलों से श्रीहरि का शृंगार किया.

पंच भक्ष्यों का नैवेद्य चढ़ाया और भक्तिभाव से भगवान के सामने साष्टांग दंडवत में लेट गए. तभी विष्णुदास नामक एक दरिद्र विष्णुभक्त मंदिर में पहंचा.

उन्होंने अपने साथ लाए तुलसी के पत्तों व साधारण फूल व फल श्रीहरि को अर्पित किए. विष्णुदास के तुलसीदल और फूलों से राजा ने जो भेंट अर्पित की थी, वह सब ढ़ंक गया.

यह देखकर राजा कुपित हो गए. उन्होंने विष्णुदास से कहा- तुम्हें पूजा का विधान नहीं पता. उस पर तुम दरिद्र भी हो. मैंने भगवान को जो स्वर्ण पुष्प और आभूषण अपर्ति किए उसे तुमने साधारण फूल-पत्तों से ढंक दिया.
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मानव कल्याण के लिए पशु तक बन जाते हैं भगवानः विष्णुजी के वराह(जंगली शूकर) अवतार की कथा

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कश्यप मुनि संध्या आरती के लिए बैठे थे कि पत्नी दिति ने उनसे पुत्र प्राप्ति के लिए सहवास की इच्छा जताई. कश्यप ने कहा- गोधूलि बेला है. शिवजी भूतगणों के साथ विचरते हैं. अभी संतान के लिए संसर्ग उचित समय नहीं है. दिति ने जिद पकड़ ली. वह बोली- स्त्री की संतान प्राप्ति की इच्छा को ठुकराना स्वयं ब्रह्मा द्वारा वर्जित है. कश्यप के समझाने पर भी दिति नहीं मानीं. मुनि ने कहा- तुमने शास्त्रों का तर्क देकर कुसमय में संतान की इच्छा की है. इसलिए तुम्हारी संतान असुर होगी.

दिति ने हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दैत्यों को जन्म दिया. हिरण्याक्ष ने तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे वरदान में मांगा- न देव, न दैत्य न मानव, कोई मुझे पराजित न कर सके. वरदान पाकर हिरण्याक्ष बलशाली हो गया. उसने देवताओं को हराने के बाद श्रीहरि को युद्ध के लिए ललकारा.

श्रीहरि को युद्ध के लिए उकसाने की मंशा से हिरण्याक्ष पृथ्वी को गेंद की तरह लुढकाता हुआ ले गया और रसातल में छिपा दिया. समस्त जीव-जंतु नष्ट हो गए.
पृथ्वी के जलमग्न होने से सृष्टि का विकास रूक गया. ब्रहमा ने श्रीहरि का स्मरण किया और उन्हें छींक आ गई. ब्रह्माजी की नाक से एक वराह (जंगली शूकर) निकला. वह क्षणभर में 10 हजार हाथियों सा विशाल होकर हुंकार भरने लगा. ब्रह्मा समझ गए हिरण्याक्ष वध के लिए श्रीविष्णु ने पशुरूप में अवतार लिया है.

वराह जल में कूद पड़े. पृथ्वी को अपने दांतों में पकड़कर जल के ऊपर स्थापित किया. फिर हिरण्याक्ष के साथ भगवान का हजार वर्ष तक युद्ध चला. अंत में वराह भगवान ने उसका वध कर दिया. इसके बाद उन्होंने मनु को पृथ्वी पर सृष्टि आरंभ करने को कहा.(वराह पुराण की कथा)

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

ऊपरी चकाचौंध विनाशकारी होता है, कौए ने चूहिया की अनदेखी करके खोखले पेड़ पर घोसला बनाया और नष्ट हो गयाः एक प्रेरक कथा

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कौवों का एक जोड़ा कहीं से उड़ता हुआ आया और एक ऊंचे पेड़ पर घोंसला बनाने में जुट गया. कौंवों को घोसला बनाते देख कर एक चुहिया ने कहा- देखो भाई! इस पेड़ पर घोसला बनाना सुरक्षित नही है.

कौए ने कहा- घोंसला बनाने के लिए इस ऊँचे पेड़ से ज्यादा सुरक्षित स्थान भला कौन-सा होगा?

चुहिए ने बताया- ऊँचा होते हुए भी यह पेड़ सुरक्षित नही है. तुम लोग मेरी बात को समझने की कोशिश करो.

चुहिया कुछ बता पाती इससे पहले ही कौए ने उसे डांट दिया- हमारे काम में दखल मत दो. अपना काम करो. हम आसमान में उड़ते हैं. सारे जंगल को अच्छी तरह जानते हैं. तुम जमीन के अंदर रहने वाली चुहिया पेड़ों के बारे में हमें बताओगी?.

शीघ्र ही कौओं ने एक घोसला बना लिया और उसमें रहने लगे. कुछ दिनों बाद मादा कौवे ने उसमें अंडे दिए. अभी अंडों में से बच्चे निकले भी न थे कि एक दिन अचानक तेज आंधी चली और देखते ही देखते वह पेड़ जड़ समेत उखड़ गया.

कौओं का घोसला गिर गया. अंडे गिरकर चकनाचूर हो गए. कौए के परिवार का सुखी संसार पलभर में उजड़ गया था. वे रोने-पीटने लगे.

चुहिया को बड़ा दुख हुआ. वह कौओं के पास जाकर बोली- भाई तुम तो कहते थे कि पूरे जंगल को जानते हो लेकिन तुमने इस पेड़ को केवल बाहर से देखा था. पेड़ की ऊंचाई देखी थी जड़ों की गहराई और स्वास्थ्य नहीं देखा.

मैंने पेड़ को अंदर से देखा था. पेड़ की जड़ें सड़कर कमजोर हो रही थी यही बात मैं बता रही थी लेकिन तुमने सुनी ही नहीं. पेड की सही जांच जड़ से होती है, तनों से नहीं. यदि ऐसा करते तो तुम्हारा परिवार सुरक्षित रहता.

हम चीजों को बाहर से बहुत चमकीला देखते हैं तो बड़े आकर्षित हो जाते हैं. उसकी चकाचौंध कई बार उलटे रास्ते ले जाती है. सीधे रास्ते चलने में वक्त लग सकता है, कष्ट हो सकता है लेकिन यदि मंजिल तक पहुंच गए तो वह स्थाई रहेगा.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

लक्ष्मीजी ने कामधेनु से गोबर में मांग लिया अपना स्थान, इसलिए होती है गोबर गणेश की पूजा

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समुद्र मंथन में अद्भुत शक्तियों वाली पांच प्रकार की गाएं निकलीं- नंदा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला और बहुला. इन गायों को कामधेनु कहा गया. मंथन से निकले विष को महादेव ने पीकर देवों और असुरों दोनों को संकट से बचाया था.

इसलिए महादेव को प्रसन्न करने के लिए देवों और असुरों ने सहमति से शिवजी को कामधेनु गायों का अधिकार सौंपा जिसे महादेव ने ऋषियों को दान कर दी.

महर्षि जमदग्नि को नंदा, भरद्वाज को सुभद्रा, वशिष्ठ को सुरभि, असित को सुशीला और गौतम ऋषि को बहुला गाय मिलीं. इन ऋषियों ने अपने आश्रम में गायों का चमत्कार देखा तो विस्मित रह गए.

परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि ने तो नंदा को अपनी माता का दर्जा दिया. देवों को विस्मय हुआ. उन्होंने ऋषि से कहा कि अगर यह आपकी माता हैं तो समस्त देवों को अपने गोद में स्थान देकर दिखाएं.

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दैत्यों की माता ने की इंद्रहंता पुत्र की कामना, इंद्र ने किए दिति के गर्भ के 49 टुकड़ेः भागवत कथा में आज मरूदगणों की उत्पत्ति की कथा

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श्रीहरि ने दिति के दोनों पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का वध कर दिया. दिति इसके लिए इंद्र को दोषी मानती थीं. उन्होंने एक इंद्रहंता पुत्र को जन्म देने की सोची.

दिति ने बिना मंशा जाहिर किए कश्यप मुनि की खूब सेवा की. सेवा और पत्नी के रूप-लावण्य से कश्यप प्रसन्न हो गए. उन्होंने दिति से वरदान मांगने को कहा.

दिति बोलीं-“किसी वरदान के लोभ में सेवा नहीं की. पति को सुख देना पत्नीधर्म है मैं उसका निर्वाह कर रही थीं.” चिकनी-चुपड़ी बातें किसी की भी मति हर लेती हैं.

कश्यप काम के प्रभाव में मत हुए और पत्नी की मंशा नहीं समझ पाए. दिति ने वचन लेकर मांगा- एक ऐसे पुत्र का वरदान दीजिए जो मेरे पुत्रों के नाश के कारक इंद्र का अंत कर सके.

कश्यप आवाक रह गए. वह वचनबद्ध थे. इंद्र भी उने पुत्र थे लेकिन छल से पत्नी ने सौतेले पुत्र के नाश करने वाले एक पुत्र का वरदान ले दिया था. कश्यप ने एक उपाय निकाला.

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भील ने महादेव को मांस का भोग लगाया, भोलेनाथ ने उसे भी अपनाया- महादेव की भक्त वत्सलता की रोचक कथा

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आज शुक्रवार है. शुक्र को भगवान शिव की कृपा से मृत संजीवनी मंत्र प्राप्त हुआ. ग्रहों के मध्य सम्मानित स्थान मिला.

महादेव ने शुक्र को दंडित भी किया है. वह कथाएं हमने महीने भर पहले आपको सुनाई भी थीं. भोले भंडारी कितने भक्तवत्सल हैं इसकी एक बड़ी रोचक कथा सुनाते हैः

घने जंगल में एक भील को शिवमंदिर दिखा. शिवलिंग पर फूल, बेलपत्र का शृंगार किया गया था इससे भील यह तो समझ गया कि कोई न कोई यहां रहता है.

भील मंदिर में थोड़ी देर के लिए ठहर गया. रात हो गई लेकिन मंदिर का कोई पहरेदार आया ही नहीं. भील को शिवजी की सुरक्षा की चिंता होने लगी.

उसे लगा कि सुनसान जंगल में यदि शिवजी को रात को अकेला छोड़ दिया तो कहीं जंगली जानवर इन पर हमला न बोल दें. उसने धनुष पर बाण चढ़ाया और प्रभु की पहरेदारी पर जम गया.

सुबह हुई तो भील ने सोचा कि जैसे उसे भूख लगी है वैसे भगवान को भी भूख लगी होगी. उसने एक पक्षी मारा, उसका मांस भूनकर शिवजी को खाने के लिए रखा और फिर शिकार के लिए चला गया.

शाम को वह उधर से लौटने लगा तो देखा कि फिर शिवजी अकेले ही हैं. आज भी कोई पहरेदार नहीं है.

उसने फिर रातभर पहरेदारी की, सुबह प्रभु के लिए भूना माँस खाने को रखकर चला गया.

मंदिर में पूजा-अर्चना करने पास के गांव से एक ब्राह्मण आते थे. रोज मांस देखकर वह दुखी थे. उन्होंने सोचा उस दुष्ट का पता लगाया जाए जो रोज मंदिर को अपवित्र कर रहा है.

अगली सुबह वह पंडितजी पौ फटने से पहले ही पहुंच गए. देखा कि भील धनुष पर तीर चढ़ाए सुरक्षा में तैनात है. भयभीत होकर पास में पेड़ों की ओट में छुप गए.

थोड़ी देर बाद भील मांस लेकर आया और शिवलिंग के पास रखकर जाने लगा. ब्राह्मण के क्रोध की सीमा न रही. उन्होंने भील को रोका- अरे मूर्ख महादेव को अपवित्र क्यों करते हो.

भील ने भोलेपन के साथ सारी बात कह सुनाई. ब्राह्मण छाती-पीटते उसे कोसने लगे. भील ने ब्राह्मण को धमकाया कि अगर फिर से रात में शिवजी को अकेला छोड़ा तो वह उनकी जान ले लेगा.

ब्राह्मण ने कहा- मूर्ख जो संसार की रक्षा करते हैं उन्हें तेरे-मेरे जैसा मानव क्या सुरक्षा देगा? लेकिन भील की मोटी बुद्धि में यह बात कहां आती.

वह सुनने को राजी न था और ब्राह्मण को शिवजी की सेवा से जी चुराने का दोष लगाते हुए दंडित करने को तैयार हो गया. महादेव इस चर्चा का पूरा रस ले रहे थे.

परंतु महादेव ने स्थिति बिगड़ती देखी तो तत्काल प्रकट हो गए. महादेव ने भील को प्रेम से हृदय से लगाकर आदेश दिया कि तुम ब्राह्मण को छोड़ दो. मैं अपनी सुरक्षा का दूसरा प्रबंध कर लूंगा.

ब्राह्मण ने शिवजी की वंदना की. महादेव से अनुमति लेकर उसने अपनी शिकायत शुरू की- प्रभु में वर्षों से आपकी सेवा कर रहा हूँ. इस जंगल में प्राण संकट में डालकर पूजा-अर्चना करने आता हूं.

उत्तम फल-फूल से भोग लगाता हू किंतु आपने कभी दर्शन नहीं दिए. इस भील ने मांस चढ़ाकर तीन दिन तक आपको अपवित्र किया, फिर भी उस पर प्रसन्न हैं. भोलेनाथ यह क्या माया है?

शिवजी ने समझाया, तुम मेरी पूजा के बाद फल की अपेक्षा रखते थे लेकिन इस भील ने निःस्वार्थ सेवा की. इसने मुझे अपवित्र नहीं किया.

इसे अपने प्रियजन की सेवा का यही तरीका आता है. मैं तो भाव का भूखा हूं इसके भाव ने जो तृप्ति दी है वह किसी फल-मेवे में नहीं है.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

 

समस्त कुलों को जन्म देने वाली कश्यप की पत्नियां कही गईं लोकमाताः वेद आधारित देव,असुर, यक्ष, गंधर्व, पशु-पक्षी आदि के कुल का संक्षिप्त परिचय

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प्रभुभक्तों हमने आपसे कश्यप व उनकी पत्नियों से संसार के प्राणियों की उत्पत्ति के बारे में परिचय देने का वादा किया था किंतु हमने कल जानबूझकर नहीं दिया.

वजह थी कि इस प्रसंग में आपको रस नहीं आएगा, साथ ही कुछ कुल ऐसे हैं जो अलग होते हुए एक हैं जिसके आपका भ्रम हो सकता है.

लेकिन आप लोगों के कई अनुरोध आए तो दे रहा हूं. वेदों में कश्यप और उनकी पत्नियों से संसार के जिन जीवों की उत्पत्ति की बात आई है वह इस प्रकार हैः

कश्यप ऋषि ब्रह्मा के मानस-पुत्र महर्षि मरीची और कर्दम ऋषि की पुत्री कला के पुत्र थे. ब्रह्मदेव ने अपनी संतानों को सृष्टि विस्तार का आदेश दिया था.

संसार के समस्त जातियों का आरंभ कश्यप और उनकी पत्नियों से हुआ है. इसलिए कश्यप की पत्नियां लोकमाता कहलाती हैं. मनुष्य को मनु पुत्र बताया गया है. उनका कुल इससे भिन्न हैं.

प्रजापति दक्ष ने अपनी 10 कन्याओं का विवाह धर्म से किया था. 13 कन्याओं का विवाह कश्यप से किया जो लोकमाताएं बनीं. बाद में दक्ष ने चार और पुत्रियां कश्यप से ब्याह दीं.

दक्ष की 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा के साथ हुआ जो 27 नक्षत्र हैं. 2 कन्याओं का विवाह अंगिरा से किया. बृहस्पति उनकी संतान हैं. 2 का विवाह कृशाश्व से हुआ.

अब हम आपको कश्यप की पत्नियों- अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतंगी और यामिनी से उत्पन्न हुई संतानों का संक्षेप में परिचय दे रहे हैं.

अदिति: अदिति के गर्भ से बारह आदित्यों को जन्म हुआ. विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र के अलावा भगवान वामन ने भी अदिति के गर्भ से जन्म लिया. देवकुल अदिति की संतान हैं.

विवस्वान से मनु हुए और मनु तथा शतरूपा से संयोग से मानव हुए.

दिति : दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री का जन्म हुआ. दिति की संतानें दैत्य कहलाईं. दैत्य क्रूर और निरंकुश थे तथा ब्रह्मा व महादेव के अतिरिक्त किसी को भी स्वयं से श्रेष्ठ नहीं मानते.

इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुन्दण कहलाए.

दनु : ऋषि कश्यप की पत्नी दनु से दानवों की उत्पत्ति हुई. दानव वीर थे किंतु मानवों के साथ इनकी शत्रुता थी. मानव देवताओं की आराधना करते थे इसलिए इनकी शत्रुता देवों के साथ भी रही. इनमें बड़ा साहस था.

काष्ठाः काष्ठा से घोड़े एवं एक खुर वाले सभी पशु उत्पन्न हुए.

अरिष्टाः इनसे गंधर्वों की उत्पत्ति हुई. गंधर्व देवताओं के सहयोगी थे और इन्हें उपदेवता का सम्मान प्राप्त हुआ. कुबेर व चित्रसेन प्रमुख गंधर्व हैं

धन व सौंदर्य के स्वामी गंधर्व स्वच्छंद स्वभाव के हुए. इनके विवाह के तरीके को ही गंधर्व विवाह कहा जाता है.

सुरसाः इनसे राक्षसों की उत्पत्ति हुई. राक्षस यानी रक्षा करने वाला. असुरों और दानवों से स्वभाव इनका मिलता था लेकिन ये उनसे ज्यादा संस्कारी और समर्थवान थे. ये शस्त्र और शास्त्रों का अध्य्यन भी करते थे. रावण राक्षस कुल का था.

इलाः कश्यप की पत्नी इला से ही संसार के समस्त वृक्ष, लता आदि वनस्पतियों का जन्म हुआ.

मुनिः कश्यप की पत्नी मुनि के गर्भ से अप्सराएं जन्मीं.

क्रोधवशाः इनसे संसार के विषैले जीव एव सांप, बिच्छु आदि सरीसृप पैदा हुए.

ताम्राः इन्होंने बाज, गिद्ध आदि शिकारी पक्षियों को संतान के रूप में जन्म दिया.

सुरभिः इनसे भैंस, गाय तथा दो खुर वाले दुधारू पशुओं की उत्पत्ति हुई.

सरमाः बाघ आदि हिंसक जीव और कुत्ते जैसे शिकारी पशु की उत्पत्ति इनसे हुई है.

तिमिः जितने भी जलचर मछलियां आदि हैं वे इनकी संतान के रूप में पृथ्वी पर आए.

विनताः इनके गर्भ से गरुड़ और वरुण पैदा हुए. गरूड़ श्रीविष्णु का वाहन बने तो वरूण सूर्य के सारथी.

कद्रूः इनकी कोख से नाग जाति की उत्पत्ति हुई, जिनमें प्रमुख आठ नाग थे-अनंत या शेषनाग, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक. ये सर्पों से अलग हैं.

पतंगीः इनके गर्भ से सभी पक्षियों का जन्म हुआ.

यामिनीः इनसे सभी शलभों यानी कीट-पतंगो का जन्म हुआ.

ब्रह्मदेव की आज्ञा से कश्यप ने वैश्वानर की दो पुत्रियों पुलोमा और कालका के साथ भी विवाह किया. पुलोमा से पौलोम वंश चला.

कालका से साठ हजार दैत्यों का जन्म हुआ जो कालकेय कहलाए. जिनसे देवों का रक्षा के लिए अगस्त्य ऋषि ने सुमुद्र को सुखा दिया था. शूर्पनखा का पति विद्युतजिह्व भी कालकेय दैत्य था जिसका वध रावण से हो गया था.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

भगवान श्रीकृष्ण पर लगा था मणि चोरी का आरोप, चोरी के आरोप से मुक्त हुए भगवान को मिलीं दो पटरानियां- श्रीकृष्ण कथा

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कई लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी सत्यभामाजी की कथा की मांग की है. कुछ दिनों पहले स्यंतक मणि की कथा की भी दो लोगों ने मांग की थी. दोनों का एक दूसरे से संबंध है. इसलिए हम आज वह कथा दे रहे हैं. सत्यभामाजी की कई कथाएं हम आगे भी देंगे.

भारत से बाहर बसे प्रभु शरणम् के प्रेमियों ने भागवत से जुड़े एक प्रसंग के बारे में विस्तार पूछा है. तीन दिन पहले भागवत कथा में मैंने बताया था कि संसार के समस्त जातियों का उदगम कश्यप मुनि व उनकी पत्नियों के गर्भ से हुआ माना जाता है. हमने वह बात भागवत के आधार पर कही थी.

देवों, दानवों, पशु पक्षियों आदि सबके जन्मदाता क्यों कश्यप और उनकी पत्नियों को बताया जाता है, आज शाम हम आपको विस्तार से कश्यप और उनकी संतानों के बारे में बताएंगे. अभी श्रीकृष्ण कथा का रस लीजिए.

सूर्यभक्त सत्राजित द्वारका के बड़े जमींदार थे. सूर्यदेव ने उन्हें स्यमंतक मणि भेंट की थी. उस मणि में सूर्य का तेज था और वह प्रतिदिन आठ भार सोना भी देती थी. इस धन से सत्राजित अभिमानी हो गए थे.वह श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे और प्रभु की बुराई का कोई मौका नहीं छोड़ते थे. सत्राजित की अत्यंत रूपवती और शस्त्रविद्याओं में कुशल बेटी सत्यभामा बचपन से श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी जो देवी लक्ष्मी का अंशरूप थीं.

सत्राजित ने कृष्ण के मित्र सात्यकि के बेटे से सत्यभामा के विवाह का प्रस्ताव दिया. सात्यकि जानते थे कि सत्यभामा श्रीकृष्ण से प्रेम करती हैं. इसलिए सात्यकि ने प्रस्ताव ठुकरा दिया. इसके बाद सत्राजित का श्रीकृष्ण के प्रति बैर और बढ़ गया. लेकिन श्रीकृष्ण कोई बैर नहीं रखते थे. वह सत्राजित और उनके वैभव की प्रशंसा किया करते थे. इससे सत्राजित को लगता था कि श्रीकृष्ण की नजर उसकी स्यंतक मणि पर है.

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एकबार सत्राजित के भाई प्रसेनजित स्यंतक मणि को धारणकर शिकार खेलने गए. वहां एक शेर उन्हें मारकर खा गया लेकिन मणि उसके गले में ही फंस गई. रीक्षराज जामवंत ने सिंह को मारकर मणि छीन ली और अपने पुत्र को दे दिया. प्रसेन और मणि के गायब होने से सत्राजित ने श्रीकृष्ण पर स्यमंतक चोरी का आरोप लगा दिया. चोरी का कलंक लगने से क्षुब्ध श्रीकृष्ण कुछ बहादुर लोगों के साथ प्रसेन को खोजने निकले. एक गुफा से निकलती चमक को देखकर उन्होंने साथियों से गुफा के बाहर प्रतीक्षा करने को कहा और खुद अंदर चले गए.

गुफा में जामवंत से उनका युद्ध आरंभ हुआ. जामवंत ब्रह्मा के पुत्र थे और लंका विजय में उन्होंने श्रीराम का साथ दिया था. जामवंत के साथ श्रीकृष्ण का युद्ध 22 दिनों तक चला. जामवंत को आशीर्वाद था कि श्रीकृष्ण के अलावा कोई और उन्हें द्वंद्व में नहीं हरा सकता. उन्हें समझ में आ गया कि स्वयं प्रभु के साथ वह युद्ध कर रहे हैं तो पैरों में गिर गए. उन्होंने श्रीकृष्ण को स्यंतक मणि सौंपते हुए उनसे विनती कि वह उनकी पुत्री जामवंती से विवाह करें. भगवान जामवंती से विवाहकर स्यंतक मणि लेकर द्वारका लौटे और सारी बात महाराजा उग्रसेन जी बताई.

भगवान ने मणि सत्राजित को वापस कर कलंक से मुक्ति पाई. सत्राजित लज्जित हुए. उन्होंने श्रीकृष्ण को स्यतंक मणि दे दी और अपनी पुत्री सत्यभामा का उनसे विवाह कर दिया. सत्यभामा को प्रभु ने पटरानी का दर्जा दिया. जिस दिन सत्राजित ने प्रभु पर आरोप लगाया था वह भाद्रपद की शुक्ल चतुर्थी थी. मान्यता है कि इस दिन चंद्र दर्शन करने से कोई बड़ा कलंक लगता है. उससे मुक्ति के लिए कृष्ण और सत्यभामा के विवाह की कथा जरूर सुननी चाहिए.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

अतिथि सत्कार का सुखः संकट में फंसे कबूतर परिवार ने प्राण देकर एक हिंसक बहेलिए का जीवन सुधारा- महाभारत की नीति कथा

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जंगल में एक बहेलिया शिकार कर रहा था. बहेलिया होने के कारण पशुओं से दया दिखाने का तो सवाल ही नहीं था, मनुष्यों के प्रति भी उसका स्वभाव क्रूर था.

उसने कई जानवर मारे, कुछ को पिंजड़े में बंद कर लिया. शिकार करके शाम को वह घर लौट रहा था कि ओले पड़ने लगे. सर्दियों के दिन थे.

भीगने के कारण उसकी बुरी दशा हो गई. उस पर बेहोशी चढ़ रही थी. बहेलिया भटकने लगा.

उसे हर ओर तूफान के कारण धरती पर गिरे पक्षियों के घोंसले और मृत बच्चे दिखाई दे रहे थे. बहेलिया एक घने पेड़ के नीचे रूका.

वहां उसे जमीन पर पड़ी एक कबूतरी दिखी जो सर्दी से कांप रही थी. वह खुद कष्ट में था लेकिन लालच ऐसा कि उसने कबूतरी को पिंजड़े में डाल लिया.

उसने रात उसी पेड़ के नीचे बिताने का तय किया. पत्ते बिछाए और पत्थर पर सिर रखकर लेट गया. उस पेड़ पर एक कबूतर अपने परिवार के साथ रहता था.

कबूतरी नहीं लौटी तो कबूतर को चिंता हुई. उसे तरह-तरह की आशंका हो रही थी कि कहीं तूफान में उसे कुछ हो तो नहीं गया.

दुखी कबूतर बिलखता हुआ कह रहा था- ऐसी उत्तम पत्नी के बिना जीवन का कोई मोल नहीं. सौभाग्य से ऐसी जीवनसंगिनी मिली थी. उसके बिना सब सूना लगा रहा है.

पिंजड़े में कैद कबूतरी सुनकर प्रसन्न हुई कि उसने एक कुशल पत्नी का धर्म निभाया है और उसका परिवार उससे प्रसन्न है.

उसने कबूतर से कहा- यह बहेलिया आज हमारा अतिथि है. सर्दी से अचेत हो रहा है. आतिथ्य धर्म निभाते हुए आग का प्रबंध करिए. मेरे लिए दुख न करें. आपको दूसरी पत्नी मिल जाएगी.

धर्म के अनकूल पत्नी की बातें सुनकर कबूतर खुश हुआ. लोहार के पास से एक जलती लकड़ी चोंच में लाया और सूखे पत्तों पर डाल दिया. आग जली तो बहेलिए की जान बची.

बहेलिए ने कहा- अतिथि के लिए भोजन का भी प्रबंध करो. कबूतर ने कहा- हम कभी अन्न संग्रह तो नहीं करते फिर भी तुम्हारी भूख मिटाने को कुछ करता हूं.

कबूतर ने अग्नि की तीन बार प्रदक्षिणा की और फिर उसमें कूद गया. कबूतर का त्याग देखकर बहेलिए को पछतावा हुआ- एक पक्षी होकर इसमें दूसरों के प्राणों पर इतनी दया है?

उसने सभी जीवों को पिंजड़े से मुक्त कर दिया. कबूतरी से क्षमा मांगी और वचन दिया कि क्रूर कर्म त्याग देगा. पति के त्याग से एक मानव में हुए इस परिवर्तन से कबूतरी गर्व कर रही थी.

कबूतरी विलाप करने लगी. मेरे पति के समान वचनपालक कोई दूसरा नहीं हो सकता. धर्मपालन के लिए उसने जीवन त्याग दिया. मेरे प्राणों का क्या मोल. कबूतरी ने भी प्राण त्याग दिए.

अतिथि सेवा महान धर्म है. अनीति का सहारा लेने वाले अतिथि के प्रति भी कर्तव्य नहीं भूलना चाहिए. क्या पता उस दिन ईश्वर स्वयं उस अतिथि में समाकर आपकी परीक्षा ले रहे हों. (महाभारत की नीति कथा)

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

किसी के उपहास उड़ाने से नहीं, हौसला बढ़ाने से उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है जैसे किसान ने घड़े का मान बढ़ायाः प्रेरक कथा

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एक किसान दो घड़ों को एक बड़ी सी लाठी के दोनों छोर पर बांधकर दूर एक नदी पर जाता और रोज वहां से पीने का पानी भर कर ले आता.

एक घड़ा कहीं से थोड़ा सा टूटा था जबकि दूसरा बिलकुल अच्छा. किसान दोनों घड़ों में पानी भरकर ले चलता लेकिन घर पहुंचते बस डेढ़ घड़ा पानी ही बच पाता था. ऐसा कई सालों से चल रहा था.

जो घड़ा फूटा नहीं था उसे इस बात का घमंड था वह सर्वगुण संपन्न है. पूरा पानी घर तक पहुंचाता है. टूटे घड़े की समय-समय पर हंसी भी उड़ा देता था.

दूसरी तरफ फूटा घड़ा इस बात से शर्मिंदा रहता था कि उसके कारण किसान की मेहनत बेकार चली जाती है.

फूटा घड़ा यह सोचकर काफी दुखी रहने लगा. एक दिन उसने मन की बात किसान से कहने की सोच ली.

एक दिन किसान कंधे पर पानी लिए चला जा रहा था तभी आवाज आई- मैं खुद पर शर्मिंदा हूं. आपकी मेहनत बर्बाद करने के लिए माफी मांगता हूं.

किसान ने पूछा- तुम किस बात से शर्मिंदा हो? घड़े ने कहा- पिछले कई सालों से आप मुझे रोज लेकर नदी तक आते हैं. साफ करके पानी भरते हैं बदले में मैं बेईमानी कर लेता हूं.

मुझे जितना पानी आपके घर पहुंचाना चाहिए था उसका आधा ही पहुंचा पाया हूं. मेरे अन्दर कमी है जिससे आपकी मेहनत बर्वाद होती रही. घड़ा काफी दुखी था.

किसान घड़े की बात सुनकर बोला- कोई बात नहीं, मैं चाहता हूँ कि आज लौटते वक़्त तुम रास्ते में पड़ने वाले सुन्दर फूलों को जरूर देखना. उसके बाद हम बात करेंगे.

नदी से घर के रास्ते पर घड़े ने वैसा ही किया. रास्तेभर सुन्दर फूलों को देखा तो उसकी उदासी कुछ दूर हुई लेकिन घर पहुंचते-पहुंचते उसका आधा पानी गिर चुका था.

इस बात से उसकी खुशी गायब हो गई और वह मायूस होकर किसान से बार-बार क्षमा मांगने लगा.

किसान ने समझया- शायद तुम मेरा संकेत नहीं समझे. रास्ते में जितने फूल थे वे सब तुम्हारी तरफ ही थे. जिस घड़े से पानी नहीं गिरता उसकी तरफ एक भी फूल नहीं था.

मैं तुम्हारी कमी को जानता था लेकिन मैंने तुम्हें त्यागने की बजाय उसका लाभ उठाया. मैंने तुम्हारे तरफ वाले रास्ते पर फूलों के बीज बो दिए थे.

तुम रोज़ थोडा-थोडा कर के उन्हें सींचते रहे. पूरे रास्ते को इतना सुंदर बना दिया. तुम्हारे कारण ही मैं भगवान को फूल अर्पित कर पाता हूं. तुमसे अपना घर सजाता हूं.

सारे रास्ते उन फूलों देखकर मुझे भार से होने वाली थकान नहीं लगती. सोचो अगर तुम जैसे हो वैसे नहीं होते, तो क्या मैं यह सब कुछ कर पाता?

घड़े को अपने इस गुण का पता नहीं था. किसान ने जब उसे बताया कि उसके अवगुण में भी गुण हैं तो वह बहुत खुश हुआ.

किसी में कोई शारीरिक कमी दिखे तो उसका माखौल उड़ाने के बजाय उसे प्रेरित करें. आपकी एक कोशिश किसी का जीवन बदल सकती है.

वह इंसान घड़े की ही तरह स्वयं को बेकार समझकर नष्ट करने की बजाय वाला खुद पर गर्व करने लगेगा. यह भी एक तरह की प्रभु भक्ति है.

कुबेर को हुआ धन का मान, संकट में पड़े प्राणः कुबेर का घमंड तोड़ने को जब गणेशजी महाभोज का सारा अन्न चट कर गए

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कुबेर को अपनी संपत्ति और ऐश्वर्य पर अहंकार हो गया था. वह अक्सर इसका दिखावा करते रहते थे. देवों पर धौंस जमाते थे. मौके-बेमौके ऐश्वर्य की डींगे हांकते रहते थे.

एक बार कुबेर कैलाश पर शिवजी के दर्शनों के लिए गए. मस्तमौला भोलेशंकर के सामने कुबेर को सीधे-सीधे शेखी बघारने की हिम्मत नहीं हो रही थी.

औघड़दानी महादेव कुबेर के धाम सोने की अलकापुरी तो जाने से रहे लेकिन बिना वहां ले गए कुबेर अपना ऐश्वर्य भगवान को दिखाएं कैसे? कुबेर ने शिवजी को अलकापुरी ले जाने की तरकीब निकाली.

कुबेर ने कहा- महादेव आपके आशीर्वाद से मैं एक विशाल भोज का आयोजन कर रहा हूं. इसमें सभी देव, यक्ष, नाग, किन्नर, गंधर्व आदि आमंत्रित हैं. लेकिन बिना आपके पधारे वह आयोजन अधूरा रह जाएगा.

शिवजी तो अंतर्यामी ठहरे. उनसे कोई क्या छिपा सकता है. वह कुबेर के मन की बात समझ गए. उन्होंने सोचा कि इनका अभिमान चूर होना जरूरी है.

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श्रीहरि के सेवकों को मिला शाप, दैत्य बने और स्वयं हरि करें तेरा नाशः भागवत कथा में दिति के गर्भ से असुरों की उत्पत्ति की कथा

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Garuda and Narayan

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भागवत की कथा में इंद्र के प्रसंग के बाद, इंद्र के सौतेले भाइयों दैत्यों की उत्पत्ति का प्रसंग चल रहा है. कल की कथा में हमने पढ़ा कि किस पाप के कारण दिति के गर्भ में दैत्य आए. अब आगे…

दिति को पता था कि उनके गर्भ में स्थित शिशु नारायण के द्रोही होंगें और उनके अत्याचारों से समस्त संसार पीड़ित होकर त्राहि-त्राहि करेगा.

इसलिए दिति ने अपनी शक्तियों से गर्भ को 100 वर्षों तक बांधकर रखा. वह संतानों को उत्पन्न होने ही नहीं दे रही थीं. उनके गर्भ में पल रही आसुरी शक्तियों से संसार पीड़ित होने लगा.

सब ओर भयावह अंधेरा छा गया. देवता ब्रह्माजी के पास गए और संकट का कारण पूछा. ब्रह्मा ने बताया कि दिति के गर्भ में जुडवां बालक के रूप में नारायण के प्रमुख सेवक जय और विजय हैं. उनके कारण ही यह सब हो रहा है.

देवताओं को पता था कि दिति के गर्भ से पैदा होने वाली संतानें सबको त्रस्त करने वाली असुर होंगी. इसलिए उन्होंने ब्रह्मा से पूछा कि नारायण के सेवकों के भयंकर असुर होने का क्या कारण है?

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इंद्र के मानसरोवर में छुपने से राजा नहुष बने कार्यवाहक इंद्र, इंद्राणी पर मोहित होने से नहुष को बन गए सर्पः भागवत में नहुष की कथा

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आपने कल की भागवत कथा में पढ़ा कि वृतासुर के वध के बाद इंद्र ब्रह्महत्या के दोष से से बचने के लिए मानसरोवर में कमलनाल में जाकर एक हजार वर्षों के लिए छिप गए और तप करने लगे.काफी तलाशने पर भी देवताओं को इंद्र नहीं मिले. अब आगे

देवगुरू बृहस्पति ने अपने चले जाने से देवताओं एक के बाद एक नए संकट में पड़ता देखा तो अपना क्रोध त्यागकर देवलोक में आ गए. उन्होंने इंद्र की खोज में देवों को लगा दिया आखिर अग्नि ने इंद्र को तलाश ही लिया. बृहस्पति ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह उन्हें पापमुक्त करने का उपाय करेंगे तब तक वह मानसरोवर में रहकर श्रीहरि की आराधना करें.

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इन्द्रासन के ख़ाली रहने से असुरों के देवलोक पर कब्जा करने का भय था. इसलिए देवताओं ने पृथ्वी के धर्मात्मा राजा नहुष को इन्द्र के पापमुक्त होने तक स्वर्ग के अधिपति का पद दे दिया. नहुष प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा पुरुरवा का पौत्र था.

नहुष बड़े धर्मात्मा, प्रतापी और त्यागी थे. अपने पुण्य-प्रताप से वह सशरीर स्वर्ग पहुंचे थे. इसलिए देवताओं को इंद्र की पदवी के लिए कार्यवाहक के रूप में नहुष से श्रेष्ठ कोई नहीं नजर आया.

नहुष अब समस्त देवता, ऋषियों और गन्धर्वों से शक्ति प्राप्त कर स्वर्ग का भोग करने लगे. एक दिन स्वर्ग में नहुष ने इन्द्र की साध्वी और परम सुंदरी पत्नी शची को देखा. शची को देखते ही नहुष रीझ गए और उसे प्राप्त करने का हर सम्भव प्रयत्न करने लगे.

जब शची को नहुष की बुरी नीयत का आभास हुआ तो वह भयभीत होकर बृहस्पति के शरण में पहुँची और नहुष से अपने सतीत्व की रक्षा की गुहार लगाई. गुरु बृहस्पति ने इन्द्राणी को शरण दी. इन्द्र पर लगे ब्रह्महत्या के दोष का निवारण के लिए बृहस्पति ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया.

ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त होकर इंद्र पुनः शक्ति सम्पन्न हो गये किन्तु इन्द्रासन पर तो नहुष का अधिकार था. इसलिए अन्य देवों और महर्षियों के पुण्य की जो शक्ति इंद्रासन को मिलती थी, इंद्र उससे अभी भी वंचित थे. वह शक्ति तो नहुष को मिल रही थी.

इंद्र ने इसका उपाय निकालने के लिए अपनी पत्नी शची से कहा कि तुम नहुष को आज रात एकांत में मिलने के लिए बुलाओ किन्तु शर्त यह रखना कि वह तुमसे मिलने के लिए सप्तर्षियों द्वारा उठाई जाने वाली पालकी पर बैठ कर आएं.

शची के निमंत्रण से नहुष को अपना मनोरथ पूरा होता दिखा. कामांध होकर वह बुद्धिभ्रष्ट हो गए थे. नहुष को यह भी ध्यान न रहा का सप्तर्षियों के कंधे पर सवार होने से उनके सारे पुण्य कर्म नष्ट होने लगेंगे. काम का मोह ही ऐसा होता है.

सप्तर्षि(आकाश में हम इन्हें तारकों के पुंज के रूप में देख सकते हैं) पालकी उठाकर नहुष को लेकर चले. उनकी अपनी चाल होती है जिसके अनुसार वे गति कर रहे थे. शची से मिलने की बेचैनी में उन्हें सप्तर्षियों की पालकी की चाल बहुत धीमी लग रही थी.

नहुष ने सप्तर्षियों को तेज चलने के लिए उकसाने के उद्देश्य से ‘सर्प-सर्प’ तेजी से चलो लेकिन ऋषियों की चाल तेज न हुई. क्रोध में नहुष ने अगस्त्य मुनि को एक लात मार दी.

अगस्त्य मुनि ने नहुष को शाप दे दिया- मूर्ख! तेरा धर्म नष्ट हो जाए और तू दस हज़ार वर्षों तक सर्पयोनि में पड़ा रहे. अगस्त्य ऋषि के शाप से नहुष तत्काल सर्प बन कर पृथ्वी पर जा गिरा और देवराज इन्द्र को उनका इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो गया.

इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे– याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति. याति परमज्ञानी थे तथा राज्य और लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे. इसलिए राजा नहुष ने अपने दूसरे बेटे ययाति का राज्याभिषेक कर दिया. (भागवत कथा)

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

बोर्ड परीक्षाएं शुरू हो रही हैं. इस मंत्र से विद्यार्थी करें सरस्वती अराधना

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बोर्ड परीक्षाएं शुरू हो रही हैं. इस मंत्र से विद्यार्थी करें सरस्वती अराधना

विद्यार्थियों को जरूर पाठ करना चाहिए

या कुन्देन्दु तुषारहार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।।

या ब्रह्म अच्युत शंकर प्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।।1।।

शुक्लां ब्रह्मविचारसारपरमांद्यां जगद्व्यापनीं ।
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यांधकारपहाम्।।

हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्।
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्।।2।।

इंद्र ने किया शनि का अपमान, सारा दिन छिपते फिरे न अन्न मिला न मान

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कई लोगों ने शनिदेव की इंद्र के साथ संघर्ष की कथा की मांग की है. दो महीने पहले प्रकाशित यह कथा हम फिर से दे रहे हैं.

नारद देवताओं के प्रभाव की चर्चा कर रहे थे. देवराज इंद्र अपने सामने दूसरों की महिमा का बखान सुनकर चिढ़ गए. वह नारद से बोले- आप मेरे सामने दूसरे देवों का बखान कर कहीं मेरा अपमान तो नहीं करना चाहते?

नारद तो नारद हैं. किसी को अगर मिर्ची लगे तो वह उसमें छौंका भी लगा दें. उन्होंने इंद्र पर कटाक्ष किया- यह आपकी भूल है. आप सम्मान चाहते हैं, तो दूसरों का सम्मान करना सीखिए. अन्यथा उपहास के पात्र बन जाएंगे.

इंद्र चिढ़ गए- मैं राजा बनाया गया हूँ तो दूसरे देवों को मेरे सामने झुकना ही पड़ेगा. मेरा प्रभाव दूसरों से अधिक है. मैं वर्षा का स्वामी हूँ. जब पानी नहीं होगा तो धरती पर अकाल पड़ जाएगा. देवता भी इसके प्रभाव से अछूते कहाँ रहेंगे.

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इंद्र ने ब्रह्महत्या दोष के किए हिस्से चार. पृथ्वी-वृक्ष-जल और नारी ने लिया हत्या दोष का भारः भागवत कथा में इंद्र के दोष निवारण का प्रसंग

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कल की पोस्ट में पढ़ा कि इंद्र ने देवगुरू विश्वरूप को यज्ञ में असुरों के लिए हविष डालते देखा तो क्रोधित होकर यज्ञवेदी पर ही उनका वध कर दिया.

इंद्र को ब्रह्महत्या का दोष लगा. अपने पुत्र विश्वरूप की हत्या से आहत त्वष्टा मुनि ने इंद्र को दंडित करने के लिए यज्ञकुंड से एक भयंकर असुर वृतासुर को प्रकट किया. अब आगे

इंद्र ने एक वर्ष तक ब्रह्महत्या का पाप का कष्ट झेला. इंद्र की शक्ति क्षीण हो गई थी. फिर ऋषियों की सलाह पर इंद्र ने अपना दोष चार हिस्से में विभक्त करके चार प्राणियों को दे दिया.

पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्री ने हत्यादोष का एक-एक हिस्सा स्वीकार किया बदले में चारों को एक-एक वरदान मिला.

पृथ्वी ने पाप का एक चौथाई ग्रहण किया जिसके कारण उसका एक बड़ा हिस्सा बंजर हो गया. बदले में पृथ्वी को वरदान मिला कि उसमें होने वाला कोई भी गडढ़ा स्वतः भर जाएगा.

ब्रह्महत्या का चौथाई दोष लेने के एवज में वृक्षों को वरदान मिला कि उनका कोई भी हिस्सा कटने के बाद पुनः जम जाएगा. दोष के कारण वृक्षों का रस मानव के लिए वर्जित हो गया.

जल को वरदान मिला कि वह जितना खर्च होगा उतना वापस मिल जाएगा. हत्या दोष के फलस्वरूप उसमें फेन या झाग बनता है.

ब्रह्महत्या का चौथाई दोष स्वीकारने के एवज में स्त्रियों को वरदान मिला कि वे हमेशा पुरुष से सहवास में समर्थ रहेंगी. दोष के कारण वे रजस्वला होती हैं और उस दौरान उन्हें पुरुष छूने से भी बचेंगे.

ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति पाकर इंद्र लौटे और उन्होंने अपनी सेना को जमा की फिर वृतासुर से युद्ध के लिए चल पड़े.

देवसेना के प्रहार से माली, सुमाली, नामची, ऋषभासुर आदि सेनानायकों के नेतृत्व में युद्ध को आई असुर सेना के पैर उखड़ने लगे.

असुर भागने लगे तब वृतासुर ने उन्हें वापस बुलाने का प्रयास किया लेकिन असुर नहीं रूके, भागते रहे. वृतासुर ने अकेले ही देवों को ललकारा.

ऐरावत पर बैठे इंद्र ने वृतासुर पर गदा से प्रहार किया. असुर ने भी पलटवार करते हुए ऐरावत को गदा मारी जिससे वह लड़खड़ा गया.

वृतासुर ने इंद्र को ललकारा- पापी इंद्र, तुमने अधर्मपूर्वक मेरे भाई की ह्त्या तब की जब वह तुम्हारे गुरुस्थान पर विराजमान होकर यज्ञ कर रहे थे. तुम्हें इस पाप के लिए मैं दंडित करूंगा.

इंद्र तुम्हें सत्ता ऐसी प्रिय है कि अपना पद बचाने के लिए उसी महर्षि के प्राण लेकर उसके शव की हड्डियों से वज्र बनाते हो जिसका तुमने कभी अपमान किया था.

मैं मृत्यु से नहीं डरता. तुम्हारे पास नारायण का कवच है लेकिन मैं तो नारायण को अपने हृदय में बसाता हूं. मरकर मैं भौतिक शरीर से मुक्ति पाकर प्रभु चरणों में पहुंच जाउंगा.

वज्र का प्रयोग करो. तुम मुझे अपने सामर्थ्य से नहीं, महर्षि दधीचि के तप और श्रीहरि के कवच के कारण ही जीत पाओगे. तुम पर दया आती है. भय त्यागकर युद्ध करो.

इंद्र वृतासुर की बातों को सुनकर लज्जित महसूस कर रहे थे. वृतासुर कुछ समय के लिए युद्ध भूलकर नारायण की आराधना करने लगा.

दरअसल वृतासुर पूर्व जन्म में श्रीहरि के भक्त राजा चित्रकेतु थे जो पार्वतीजी के शाप से असुर कुल में आए थे. इसलिए असुर होने के बावजूद वृतासुर नीति परायण था.

वृतासुर ने इंद्र के साथ भयंकर युद्ध किया. उसके प्रहार से इंद्र के हाथ से वज्र छूटकर वृतासुर के पैरों के पास गिर गया. वह चाहता तो उस वज्र से इंद्र का अनिष्ट कर सकता था लेकिन उसने इंद्र को वज्र उठाकर युद्ध करने को कहा.

देवराज के लिए यह बड़े लज्जा की बात थी कि वह शत्रु की दया पर शत्रु के सामने झुकें. इंद्र नहीं झुके. वृतासुर ने कहा- इंद्र तुम्हें नारायण ने एक विशेष कर्म सौंपा है.

अपमान की बात को भूलकर नारायण के आदेश का ध्यान करो. उठाओ वज्र और मुझ पर प्रहार करो. इंद्र ने वज्र लिया और उसके प्रहार से वृतासुर की भुजाएं काट दीं.

तब वृतासुर ने इंद्र को ऐरावत समेत निगल लिया लेकिन नारायण कवच के कारण उनका कोई अनिष्ट न हुआ. वज्र से वृतासुर का पेट चीरकर इंद्र ऐरावत समेत निकल आए.

इंद्र ने विश्वरूप की हत्या के दोष से किसी तरह मुक्ति पाई थी. अब वृतासुर की हत्या का भी दोष मंडरा रहा था जिससे मुक्ति के लिए उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया.

कल पढ़िए वृतासुर के पूर्वजन्म और शाप की कथा

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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