Saturday, April 26, 2025
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महामृत्युंजय मंत्र- काल भी टालने वाला है शिवजी का यह मंत्र

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भगवान शिव भोले भंडारी हैं. महामृत्युंजय मंत्र के जाप से महादेव प्रसन्न होते हैं और भक्तों को आयुष, जीवन, समृद्धि और समस्त सासांरिक सुख प्रदान करते हैं.

इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप करने से अनिष्टकारी ग्रहों का दुष्प्रभाव तो समाप्त होता ही है, अटल मृत्यु तक को टाला जा सकता है…

ऋग्वेद में महामृत्युंजय मंत्र इस प्रकार दिया गया हैः

ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।

इस मंत्र को संपुटयुक्त बनाने के लिए इसका उच्चारण इस प्रकार किया जाता है…
ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुवः स्वः
ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ

&&&अर्थ&&&
हमारे पूजनीय भगवान शिव के तीन नेत्र हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जिनकी शक्ति से सम्पूर्ण विश्व का पालन-पोषण हो रहा हैं… हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि वह हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त करें ताकि प्राणी को मोक्ष की प्राप्ति हो…

जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं…

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

गायत्री मंत्र

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ॐ भूर्भुव स्वः। तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

हिन्दी में भावार्थ
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

&&&शाब्दिक अर्थ&&&
ॐ : सर्वरक्षक परमात्मा
भू: : प्राणों से प्यारा
भुव: : दुख विनाशक
स्व: : सुखस्वरूप है
तत् : उस
सवितु: : उत्पादक, प्रकाशक, प्रेरक
वरेण्य : वरने योग्य
भुर्ग: : शुद्ध विज्ञान स्वरूप का
देवस्य : देव के
धीमहि : हम ध्यान करें
धियो : बुद्धियों को
य: : जो
न: : हमारी
प्रचोदयात : शुभ कार्यों में प्रेरित करें.

&&&भावार्थ&&& : उस सर्वरक्षक प्राणों से प्यारे, दु:खनाशक, सुखस्वरूप श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें… तथा वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें…

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

जब द्वारका में श्रीकृष्ण पर लगा मणि चोरी का आरोप

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सूर्यभक्त सत्राजित द्वारका के बड़े जमींदार थे. सूर्यदेव ने उन्हें स्यमंतक मणि भेंट की थी. उस मणि में सूर्य का तेज था और वह प्रतिदिन आठ भार सोना भी देती थी.

इस धन से सत्राजित अभिमानी हो गए थे.वह श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे और प्रभु की बुराई का कोई मौका नहीं छोड़ते थे. सत्राजित की अत्यंत रूपवती और शस्त्रविद्याओं में कुशल बेटी सत्यभामा बचपन से श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी जो देवी लक्ष्मी का अंशरूप थीं.

सत्राजित ने कृष्ण के मित्र सात्यकि के बेटे से सत्यभामा के विवाह का प्रस्ताव दिया. सात्यकि जानते थे कि सत्यभामा श्रीकृष्ण से प्रेम करती हैं.

इसलिए सात्यकि ने प्रस्ताव ठुकरा दिया. इसके बाद सत्राजित का श्रीकृष्ण के प्रति बैर और बढ़ गया. लेकिन श्रीकृष्ण कोई बैर नहीं रखते थे.
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श्रीराम ने दिया अतिशय सम्मान, धर्मसंकट में पड़ गए हनुमान

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जब रावण की सेना को हराकर भगवान श्रीराम देवी सीता, भाई लक्ष्मण और वानर सेना समेत अयोध्या पहुंचे- तो वहां इस ख़ुशी में एक बड़े भोज का आयोजन हुआ. सारी वानर सेना आमंत्रित थी. सुग्रीवजी ने वानरों को समझाया- यहाँ हम मेहमान हैं. मनुष्य हमें वैसे भी शुभ नहीं मानते. सबको यहाँ बहुत शिष्टता दिखानी है ताकि वानर जाति को लोग शिष्टाचार विहीन न कहें.

वानरों ने अपनी जाति का मान रखने के लिए सतर्क रहने का वचन दिया. एक वानर ने सुझाव दिया- वैसे तो हम शिष्टाचार का पूरा प्रयास करेंगे किन्तु हमसे कोई चूक न होने पावे इसके लिए हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता होगी. इसलिए आप किसी को हमारा अगुवा बना दें जो हमें मार्गदर्शन देता रहे. हम पर नजर रखे और यदि वानर आपस में लड़ने-भिड़ने लगें तो उन्हें रोक सके.

हनुमानजी अगुआ बने. भोज के दिन हनुमानजी सबके बैठने आदि का इंतज़ाम देख रहे थे. व्यवस्था सुचारू बनाने के बाद वह श्रीराम के पास पहुंचे. श्रीराम ने हनुमानजी को आत्मीयता से कहा कि आप भी मेरे साथ बैठकर भोजन करें. एक तरफ तो प्रभु की इच्छा थी. दूसरी तरफ यह विचार कि अयोध्या में वानर जाति को शुभ नहीं मानते. इसलिए संग भोजन करने से कहीं प्रभु के मान की हानि न हो.

हनुमानजी धर्मसंकट में पड़ गए. वह अपने प्रभु के बराबर बैठना नहीं चाहते थे. प्रभु के भोजन के उपरांत ही वह प्रसाद ग्रहण करना चाहते थे. इसके अलावा बैठने का कोई स्थान शेष नहीं बचा था और न ही भोजन के लिए थाली के रूप में प्रयुक्त केले का पत्ता बचा था जिसमें भोजन परोसा जाए.

प्रभु ने मन की बात भांप ली. उन्होंने पृथ्वी को आदेश दिया कि वह उनके बगल में हनुमानजी के बैठने भर भूमि बढ़ा दें. प्रभु ने स्थान तो बना दिया पर एक और केले का पत्ता नहीं बनाया. श्रीराम हनुमानजी से बोले- आप मुझे पुत्र समान प्रिय हैं. आप मेरी ही थाली (केले का पत्ता) में भोजन करें.

इस पर श्री हनुमान जी बोले- प्रभु मुझे कभी भी आपके बराबर होने की अभिलाषा नहीं रही. जो सुख सेवक बनकर मिलता है वह बराबरी में नहीं मिलेगा. इसलिए आपकी थाल में खा ही नहीं सकता. श्रीराम ने समस्त अयोध्यावासियों के समक्ष वानर जाति का सम्मान बढ़ाने के लिए कहा- हनुमान, मेरे हृदय में बसते हैं. उनकी आराधना का अर्थ है स्वयं मेरी आराधना. दोनों में कोई भेद नहीं है.

फिर मर्यादा पुरुषोत्तम ने अपने दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली से केले के पत्ते के मध्य में एक रेखा खींच दी जिससे वह पत्ता जुड़ा भी रहा और उसके दो भाग भी हो गए. इस तरह भक्त और भगवान दोनों के भाव रह गए. श्रीराम की कृपा से केले का पत्ता दो भाग में बंट गया. भोजन परोसने के लिए इसे सबसे शुद्ध माना जाता है. शुभ कार्यों में देवों को भोग लगाने में केले के पत्ते का ही प्रयोग होता है.

सियापति रामचंद्र की जय! पवनसुत हनुमान की जय!!

कर का मनका छाड़िके मन का मनका फेर- नारद की भक्ति का अभिमान तोड़ दिया भगवान ने

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एक बार नारद मुनि ने श्रीहरि से पूछा कि आपका सबसे प्रिय भक्त कौन है? श्रीहरि समझ गए कि नारद को अपनी भक्ति का गुमान हो गया है. श्रीहरि बोले- मेरा सबसे प्रिय भक्त शिवपुर गांव का एक किसान है. नारद मुनि थोडे निराश हुए और प्रभु से पूछा- ऐसा क्या है जो वह आपका सर्वाधिक प्रिय भक्त है?

श्रीहरि ने नारद से कहा- आप एक दिन मेरे भक्त के साथ व्यतीत करें और फिर बताएं. नारद सुबह-सवेरे किसान के घर पहुंच गए. किसान जागा, सबसे पहले अपने जानवरों को चारा दिया. दैनिक कार्यो से निवृत होकर जल्दी-जल्दी भगवान का नाम लिया. कुछ खाकर खेतों पर चला गया और सारे दिन किसानी की. शाम को घर आया. जानवरों को चारा डाला. फ़िर थोडी देर भगवान का नाम लिया. परिवार के साथ भोजन किया और भगवान को प्रणाम कर सो गया.

नारद अचरज में थे. वह भगवान विष्णु के पास आए और बोले भगवन- मैं सारे दिन उस किसान के संग रहा. लेकिन वह तो विधिपूर्वक आपका नाम भी नहीं लेता. उसने तो बस थोडी देर सुबह, थोडी देर शाम को जल्दबाजी में आपका ध्यान किया. मैं तो चौबीस घंटे सिर्फ़ आपका ही नाम भजता हूं. फिर भी वही आपका सबसे प्रिय भगत क्यों है? यह तो मेरे साथ अन्याय है.

श्रीहरि ने अमृत से भरा एक कलश नारद को दिया और कहा- इस कलश को लेकर तीनों लोको की परिक्रमा करके आइए, लेकिन ध्यान रहे अगर एक बूंद अमृत भी नीचे गिरा तो आपके सारे पुण्य नष्ट हो जाएंगे. नारद तीनों लोको की परिक्रमा कर प्रभु के पास लौटे और बताया कि एक बूंद भी अमृत नहीं छलकने दिया. प्रभु ने पूछा- इस दौरान आपने मेरा स्मरण कितनी बार किया? नारद बोले, मेरा सारा ध्यान अमृतकलश पर था इसलिए आपका ध्यान नहीं कर पाया.

भगवान विष्णु बोले- हे नारद! उस किसान को देखो जो अपना कर्म करते हुए भी नियमत रुप से मेरा स्मरण करता है. जो अपना कर्म करते हुए भी मेरा जप करे वही मेरा सब से प्रिय भक्त है. आप तो खाली बैठे ही जप करते हो. जब आपको कार्य दिया तो मेरे स्मरण की सुध नहीं रही. नारद सब समझ गए. भगवान के चरण पकडकर क्षमा मांगी.

दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय। जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे कोय।।

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

महादेव ने किया त्रिपुरासुर संहार, देवों ने मनाया दीपावली त्योहार

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शिवपुत्र कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध किए जाने के बाद उसके तीनों बेटों तारकाक्ष, कमलाक्ष और विंदुमाली ने देवताओं से बदला लेने के लिए तप से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर अमरता का वरदान माँगा. ब्रह्मदेव ने यह वर देने में असमर्थता जताई. तीनों असुर हठ करने लगे तो विवश ब्रह्मदेव ने सुझाया- मृत्यु की ऐसी शर्त रख लो जो अत्यन्त कठिन हो.

तीनों ने ब्रह्माजी से वरदान माँगा–आप हमारे लिए तीन पुरों(किला) का निर्माण करें. हमारी मृत्यु तभी संभव हो जब ये तीनों पुर अविजित् नक्षत्र में एक ही पंक्ति में आकर खड़े हो जाएं और कोई ऐसा देव या पुरुष जो अत्यन्त शांत अवस्था में एक ऐसे रथ पर सवार हो जिसकी कल्पना ही नहीं हुई हो, वह हम पर असंभव बाण यानी ऐसे बाण चलाए जिसे आपने बनाया ही न हो.

ब्रह्देव ने तारकाक्ष को स्वर्णपुरी, कमलाक्ष को रजतपुरी और विंदुमाली को लौहपुरी दी. तीन पुरों के स्वामी इन त्रिपुरासुरों के आतंक से सातों लोक आतंकित हो गए. देवताओं को उनके लोकों से भगा दिया. देवगण भोलेनाथ की शरण में गए और अपनी दुर्दशा बताई.

महादेव ने देवों को मिलकर प्रयास करने को कहा और अपना आधा बल दे दिया. लेकिन सब देव मिलकर सदाशिव के आधे बल को संभाल नहीं पा रहे थे. तब शिवजी ने स्वयं त्रिपुरासुर का संहार करने का वचन दिया. सभी देवताओं ने अपना आधा बल महादेव को समर्पित किया.

अविजित रथ की जरूरत थी. पृथ्वी को रथ, सूर्य और चन्द्रमा पहिए, ब्रह्मदेव सारथी बने. असंभव अस्त्र के लिए श्रीविष्णु बाण, मेरुपर्वत धनुष और वासुकी धनुष की डोर बने. भोलेनाथ जब उस रथ पर सवार हुए, तब सभी देवताओं द्वारा सम्हाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा. विष्णुजी बैल बन कर स्वयं रथ में जुत गए तब रथ संभला.

महादेव ने पाशुपत अस्त्र का संधान किया और तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे. उस अमोघ बाण में विष्णुदेव के साथ, वायु, अग्नि और यम भी सम्मिलित हुए. अविजित् नक्षत्र में उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही महादेव ने अपने बाण से पुरों को भस्म कर त्रिपुरासुर का संहार किया.

दिव्य पुरों को भस्म करते समय शिवजी के आंख से आंसू की बूंद टपकी और वही रूद्राक्ष का वृक्ष बना.

वह कार्तिक पूर्णिया का दिन था. देवताओं ने हर्षोल्लास में शिवपुरी काशी में पर्व मनाया जिसे देव दीपावली कहा जाता है.

(सौरपुराण, शिवपुराण और महाभारत के कर्णपर्व की कथा)

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

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