Saturday, April 26, 2025
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शनि के कोप, कालसर्प दोष से मुक्ति और पर्सनैलिटी डेवलपमेंट के लिए जरूर करें चमत्कारिक शिव तांडव स्तोत्र का पाठ

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इष्ट देव से अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए भक्तों ने स्तोत्रों की रचना की है. वेदों में स्तोत्रों का विशाल भंडार है.
ऐसा ही एक स्तोत्र है शिवतांडव स्तोत्र. लंकापति रावण ने अपने आराध्य भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए इसकी रचना की थी. भगवान शिव का अनन्य भक्त रावण चाहता था कि भगवान लंका में ही निवास करें. शिवजी को तरह-तरह से लंका में वास करने के लिए उसने मनाया किंतु वह कैलाश छोड़ने के लिए किसी प्रकार से तैयार न हुए. रावण को अपनी शक्ति पर घमंड भी हो गया था. उसने भोले-भंडारी को पूरे कैलाश पर्वत समेत ही लंका में स्थापित करने का मन बनाया.

रावण ने कैलाश को उठा लिया. क्षुब्ध शिवजी ने उसकी शक्ति का अहंकार तोड़ने के लिए अपने अंगूठे से पर्वत को हल्के से दबा दिया तो कैलाश पर्वत पुन: वही स्थित हो गया. रावण का हाथ पर्वत के नीचे दब गया. पीड़ा से छटपटाते रावण ने भगवान शंकर से त्राहिमाम्-त्राहिमाम् करते ऊंचे स्वर में भगवान की स्तुति आरंभ की. रावण की करुण प्रार्थना से तीनों लोक कांपने लगे. शिवजी ने रावण को क्षमादान दिया. बाद में यही स्तुति शिवतांडव स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई.

जो लोग भयंकर विपत्तियों में फंसे हों और उन्हें उससे मुक्ति का मार्ग न मिलता हो उन्हें शिवतांडव स्तोत्र का ऊंचे स्वर में परिजनों के साथ पाठ करना चाहिए. भगवान शिव की इस स्तुति से धन सम्पति के व्यक्तित्व निर्माण(personality development) में सहायता मिलती है. नृत्य, पेंटिंग, लेखन, योग, ध्यान, समाधि के क्षेत्र में अभूतपूर्व सफलता के लिए शिवतांडव स्तोत्र का पाठ बताया गया है.

शनि अगर काल हैं तो शिव महाकाल हैं. इसलिए शनि के प्रकोप और कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए शिव तांडव स्तोत्र विशेष रूप से लाभदायक होता है. इसका पाठ आरंभ करने से पहले एक बार youtube या कहीं अन्यत्र सुन लें फिर ऊंचे स्वर में पाठ आरंभ करें. स्त्रोत में 17 श्लोक हैं.

&&&शिवतांडव स्तोत्र&&&

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम्‌ ॥१॥

जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।

कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥

जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।

मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।

भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्‌।

सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।

धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥

नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।

निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।

धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥

कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।

विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

हृदय रोग, मिर्गी और मानसिक रोगों का कारगर निवारण है- आदित्य हृदय स्तोत्र

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राम-रावण युद्ध जब निर्णायक मोड़ पर था. मायावी शक्तियों का प्रयोगकर रावण, वानर सेना को डराकर उसका मनोबल तोड़ने लगा. भगवान श्रीराम इससे चिंतित थे. देवताओं के संग आकाश से युद्ध देख रहे अगस्त्य मुनि श्रीराम के पास आए. उन्होंने कहा कि आसुरी शक्तियां प्रकाश से क्षीण पड़ती हैं. प्रकाश और ऊर्जा के अक्षय स्रोत भगवान सूर्य की आराधना कीजिए ताकि वह अपने तेज से शत्रुओं के मन में भय पैदा करें. भगवान सूर्य को प्रसन्न करने के लिए अगस्त्य मुनि ने प्रभु श्रीराम को अत्यंत गोपनीय और कल्याणकारी आदित्यहृदय स्तोत्र दिया जो शत्रुओं के हृदय में भय पैदा करता है.

आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से करते रहने से हृदय रोग में, मिर्गी, ब्लड प्रेशर और मानसिक रोगों में लाभ मिलता है। इसके पाठ से नौकरी में पदोन्नति, धन प्राप्ति, प्रसन्नता और आत्मविश्वास में जबरदस्त वृद्धि होती है.

आदित्य हृदय स्तोत्र के पाठ का आरंभ शुक्ल पक्ष के प्रथम रविवार से करना शुभ माना गया है.

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श्री मोर्वीनन्दन श्याम चालीसा (स्कन्द महापुराण पर आधारित)

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दोहा :-
श्री गुरु पदरज शीशधर प्रथम सुमिरू गणेश ॥
ध्यान शारदा ह्रदयधर भजुँ भवानी महेश ॥
चरण शरण विप्लव पड़े हनुमत हरे कलेश ।
श्याम चालीसा भजत हुँ जयति खाटू नरेश ॥

चौपाई :-
वन्दहुँ श्याम प्रभु दुःख भंजन
विपत विमोचन कष्ट निकंदन
सांवल रूप मदन छविहारी
केशर तिलक भाल दुतिकारी
मौर मुकुट केसरिया बागा
गल वैजयंति चित अनुरागा
नील अश्व मौरछडी प्यारी
करतल त्रय बाण दुःखहारी
सूर्यवर्च वैष्णव अवतारे
सुर-मुनि-नर जन जयति पुकारे
पिता घटोत्कच मोर्वी माता
पाण्डव वंशदीप सुखदाता
बर्बर केश स्वरूप अनूपा
बर्बरीक अतुलित बल भूपा
कृष्ण तुम्हें सुह्रदय पुकारे
नारद मुनि मुदित हो निहारे
मौर्वे पूछत कर अभिवन्दन
जीवन लक्ष्य कहो यदुनन्दन
गुप्त क्षेत्र देवी अराधना
दुष्ट दमन कर साधु साधना
बर्बरीक बाल ब्रह्मचारी
कृष्ण वचन हर्ष शिरोधारी
तप कर सिद्ध देवियाँ कीन्हा
प्रबल तेज अथाह बल लीन्हा
यज्ञ करे विजय विप्र सुजाना
रक्षा बर्बरीक करे प्राणा
नव कोटि दैत्य पलाशि मारे
नागलोक वासुकि भय हारे
सिद्ध हुआ चँडी अनुष्ठाना
बर्बरीक बलनिधि जग जाना
वीर मोर्वेय निजबल परखन
चले महाभारत रण देखन
माँगत वचन माँ मोर्वि अम्बा
पराजित प्रति पाद अवलम्बा
आगे मिले माधव मुरारे
पूछे वीर क्युँ समर पधारे
रण देखन अभिलाषा भारी
हारे का सदैव हितकारी
तीर एक तीहुँ लोक हिलाये
बल परख श्री कृष्ण संकुचाये
यदुपति ने माया से जाना
पार अपार वीर को पाना
धर्म युद्ध की देत दुहाई
माँगत शीश दान यदुराई
मनसा होगी पूर्ण तिहारी
रण देखोगे कहे मुरारी
शीश दान बर्बरीक दीन्हा
अमृत बर्षा सुरग मुनि कीन्हा
देवी शीश अमृत से सींचत
केशव धरे शिखर जहँ पर्वत
जब तक नभ मण्डल मे तारे
सुर मुनि जन पूजेंगे सारे
दिव्य शीश मुद मंगल मूला
भक्तन हेतु सदा अनुकूला
रण विजयी पाण्डव गर्वाये
बर्बरीक तब न्याय सुनाये
सर काटे था चक्र सुदर्शन
रणचण्डी करती लहू भक्षन
न्याय सुनत हर्षित जन सारे
जग में गूँजे जय जयकारे
श्याम नाम घनश्याम दीन्हा
अजर अमर अविनाशी कीन्हा
जन हित प्रकटे खाटू धामा
लख दाता दानी प्रभु श्यामा
खाटू धाम मौक्ष का द्वारा
श्याम कुण्ड बहे अमृत धारा
शुदी द्वादशी फाल्गुण मेला
खाटू धाम सजे अलबेला
एकादशी व्रत ज्योत द्वादशी
सबल काय परलोक सुधरशी
खीर चूरमा भोग लगत हैं
दुःख दरिद्र कलेश कटत हैं
श्याम बहादुर सांवल ध्याये
आलु सिँह ह्रदय श्याम बसाये
मोहन मनोज विप्लव भाँखे
श्याम धणी म्हारी पत राखे
नित प्रति जो चालीसा गावे
सकल साध सुख वैभव पावे
श्याम नाम सम सुख जग नाहीं
भव भय बन्ध कटत पल माहीं

दोहा :-
त्रिबाण दे त्रिदोष मुक्ति दर्श दे आत्मज्ञान
चालीसा दे प्रभु भुक्ति सुमिरण दे कल्यान
खाटू नगरी धन्य हैं श्याम नाम जयगान
अगम अगोचर श्याम हैं विरदहिं स्कन्द पुराण

लेखकः आचार्य डा मनोज विप्लव
संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम्

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प्रभु शरणम्

महाभारत के साक्षी बर्बरीकजी के शीश द्वारा श्रीकृष्ण का अभिनंदन (चौथा व अंतिम भाग)

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महाभारत युद्ध की समाप्ति पर भीमसेन को अभिमान हो गया कि युद्ध केवल उनके पराक्रम से जीता गया है. जबकि धनुर्धारी अर्जुन को लगता था कि महाभारत में पांडवों की जीत उनके पराक्रम से संभव हुई है. विवाद बढ़ता देख अर्जुन ने एक रास्ता सुझाया. उन्होंने कहा कि युद्ध के साक्षी वीर बर्बरीक के शीश से पूछा जाए कि उन्होंने इस युद्ध में किसका पराक्रम देखा?

पांडव वीर श्रीकृष्ण के साथ वीर बर्बरीक के शीश के पास गए. उनके सामने अपनी शंका रखी. बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मुझे इस युद्ध में केवल और केवल एक योद्धा नजर आए जो सबके बदले युद्ध कर रहे थे. वह थे भगवान श्रीकृष्ण. कुरुक्षेत्र में सर्वत्र नारायण का सुदर्शन चक्र ही चलता रहा. यह युद्ध उनकी नीति के कारण ही जीता गया.

बर्बरीक द्वारा ऐसा कहते ही समस्त नभ मंडल उद्भाषित हो उठा. देवगणों ने आकाश से देवस्वरुप शीश पर पुष्पवर्षा की. भगवान श्रीकृष्ण ने पुनः वीर बर्बरीक के शीश को प्रणाम करते हुए कहा- “हे बर्बरीक आप कलि काल में सर्वत्र पूजित होकर अपने भक्तो के अभीष्ट कार्य पूर्ण करेंगे. आपको इस क्षेत्र का त्याग नहीं करना चाहिए. आप युद्धभूमि में हम सबसे हुए अपराधों के लिए हमें क्षमा कीजिए.”

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बर्बरीक के पूर्वजन्म की कथा और श्रीकृष्ण द्वारा पूजनीय होने का वरदान (भाग-3)

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भगवान श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से भीम के पौत्र बर्बरीक का शीश काट दिया. वहां बर्बरीक की आराध्य सिद्ध अंबिकाएं प्रकट हुईं. उन्होंने शोकग्रस्त पांडवों को सांत्वना देते हुए बर्बरीक के पूर्वजन्म की कथा सुनानी शुरू की.

मूर दैत्य के अत्याचारों से पीडित पृथ्वी देवसभा में गाय के रूप में अपनी फरियाद लेकर पहुंची- “ हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम हूँ. पहाड़, नदी एवं समस्त मानवजाति का भार सहर्ष सहन करती हुई अपनी दैनिक क्रियाओं का संचालन करती रहती हूँ, पर मूर दैत्य के अत्याचारों से मैं व्यथित हूँ. आप लोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा करो, मैं आपकी शरणागत हूँ.”

गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में सन्नाटा छा गया. थोड़ी देर के मौन के पश्चात ब्रह्माजी ने कहा-“ मूर दैत्य के अत्याचारों से रक्षा के लिए हमें भगवान श्रीविष्णु की शरण में चलना चाहिए और पृथ्वी के संकट निवारण हेतु प्रार्थना करनी चाहिए.”

देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने अपनी ओजस्वी वाणी में कहा- ‘ हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं जिसका संहार केवल श्रीविष्णुजी ही कर सकें. हर बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए. आप लोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं स्वयं अकेला ही उसका वध कर सकता हूँ.”

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भीम-बर्बरीक युद्ध, अंबिकाओं का वरदान व बर्बरीकजी द्वारा शीशदान (भाग-2)

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एक दिन पांडव वनवास काल में भ्रमण करते हुए भूखे प्यासे उस तालाब के पास पहुँचे जिससे वीर बर्बरीक सिद्ध अम्बिकाओं के पूजन हेतु जल लिया करते थे. महाबली भीम प्यास से उतावले थे. वह बिना हाथ-पैर धोए ही उस तालाब में प्रवेश कर गए. बर्बरीक ने गर्जना करते हुए भीम को ऐसा करने से रोका.

बात बढ़ गई. भीम और बर्बरीक के बीच मल्ल युद्ध शुरू हुआ. बर्बरीक ने महाबली भीम को अपने हाथों से उठा लिया और जैसे ही उन्हें सागर में फेंकना चाहा, सिद्ध अम्बिकाएं प्रकट हो गईं. उन्होंने बर्बरीक से भीम का वास्तविक परिचय करवाया.

सत्य जानकर बर्बरीक को बड़ा शोक हुआ और वह अपने प्राणों का अंत करने को तैयार हो गए. सिद्ध अम्बिकाओं एवं भगवान शंकर ने बर्बरीक का मार्ग दर्शन करते हुए उन्हें भीम के चरणस्पर्श कर क्षमा याचना का सुझाव दिया. महाबली भीम अपने सुपौत्र के पराक्रम से प्रसन्न हुए और बर्बरीक को आशीर्वाद देकर विदा हो गए.

महाभारत की रणभेरी बज चुकी थी. वीर बर्बरीक को इसकी सूचना मिली तो अपनी माता मोरवी एवं आराध्य शक्तियों की आज्ञा लेकर युद्धक्षेत्र के लिए चल पड़े. नीले अश्व पर सवार वीर बर्बरीक युद्धक्षेत्र पहुंचे. उन्होंने पांडव सेना की छावनी के पास अपना अश्व रोका और संवाद ध्यान से सुनने लगे.

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श्रीश्याम बाबा (बर्बरीकजी) का जन्म, देवियों द्वारा अलौकिक शक्ति का वरदान (भाग-1)

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भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच शूरवीर योद्धा थे. घटोत्कच अपने परिजनों के दर्शन के लिए इन्द्रप्रस्थ आए तो श्रीकृष्ण ने पांडवों से घटोत्कच का शीघ्र विवाह कराने को कहा. पांडवों ने श्रीकृष्ण से अनुरोध किया कि वह घटोत्कच के लिए योग्य वधू सुझाएं.

श्रीकृष्ण ने कहा- असुरों के शिल्पी मूर दैत्य की बुद्धिमान एवं वीर कन्या कामकटंककटा ही इसके लिए सबसे योग्य है. मूरपुत्री मोरवी ने शर्त रखी है कि वह उस वीर से ही विवाह करेगी जो उसे शास्त्र और शस्त्र दोनों विद्याओं में परास्त कर दे. मैं घटोत्कच को स्वयं दीक्षित कर मोरवी का वरण करने भेजूँगा.

श्रीकृष्ण द्वारा दीक्षित होकर घटोत्कच मोरवी का वरण करने उसके दिव्य महल पहुंचे. देवी कामाख्या की अनन्य भक्त मोरवी शस्त्र विद्या में पारंगत थी. कामाख्या देवी ने उसे कई दिव्य शक्तियां दी थीं. उसके महल के द्वार पर उन वीरों की मुंडमालाएं लटक रही थीं जो मोरवी से विवाह के लिए आए थे किंतु परास्त होकर अपने प्राण गंवा बैठे.

घटोत्कच मोरवी के समक्ष उपस्थित हुए. मोरवी घटोत्कच के रूप एवं सौंदर्य पर मुग्ध हो गईं. मोरवी को आभास हुआ कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं है, फिर भी उसने परीक्षा लेने की ठानी. मोरवी ने घटोत्कच से पूछा, “क्या आप मेरे प्रण के बारे में जानते हैं? आपको अपने विवेक और बल से मुझे परास्त करना होगा. इसमें प्राण भी जा सकते हैं.”

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दूर करने हैं नेत्र विकार- करें चाक्षुषोपनिषद का मंत्रोच्चार

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भगवान सूर्य नेत्रों के रोग भी दूर करते हैं. प्रात:काल में सूर्य देव को जल अर्पण करके ऋग्वेद में वर्णित चक्षु उपनिषद का नित्य पाठ करने से साधक के नेत्र सम्बन्धी रोग दूर होते हैं तथा उसके वंश में कोई नेत्रहीन नहीं होता.

चाक्षुषोपनिषदः-

विनियोगः
ॐ अस्याश्चाक्षुषीविद्याया अहिर्बुध्न्य ऋषिः, गायत्री छन्दः, सूर्यो देवता, ॐ बीजम् नमः शक्तिः, स्वाहा कीलकम्, चक्षुरोग निवृत्तये जपे विनियोगः।

चक्षुष्मती विद्याः- (मंत्र आरंभ)
ॐ चक्षुः चक्षुः चक्षुः तेज स्थिरो भव।
मां पाहि पाहि।
त्वरितम् चक्षुरोगान् शमय शमय।
ममाजातरूपं तेजो दर्शय दर्शय।
यथा अहमंधोनस्यां तथा कल्पय कल्पय ।
कल्याण कुरु कुरु
यानि मम् पूर्वजन्मो पार्जितानि चक्षुः प्रतिरोधक दुष्कृतानि सर्वाणि निर्मूलय निर्मूलय।

ॐ नमः चक्षुस्तेजोदात्रे दिव्याय भास्कराय।
ॐ नमः कल्याणकराय अमृताय। ॐ नमः सूर्याय।
ॐ नमो भगवते सूर्याय अक्षितेजसे नमः।
खेचराय नमः महते नमः। रजसे नमः। तमसे नमः ।
असतो मा सद गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मां अमृतं गमय।
उष्णो भगवान्छुचिरूपः। हंसो भगवान् शुचि प्रतिरूपः ।
ॐ विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं हिरण्मयं ज्योतिरूपं तपन्तम्।
सहस्त्र रश्मिः शतधा वर्तमानः पुरः प्रजानाम् उदयत्येष सूर्यः।।

ॐ नमो भगवते श्रीसूर्याय आदित्याया अक्षि तेजसे अहो वाहिनि वाहिनि स्वाहा।।
ॐ वयः सुपर्णा उपसेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः।
अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि- चक्षुम् उग्ध्यस्मान्निधयेव बद्धान्।।
ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः। ॐ पुष्करेक्षणाय नमः। ॐ कमलेक्षणाय नमः। ॐ विश्वरूपाय नमः। ॐ श्रीमहाविष्णवे नमः।
ॐ सूर्यनारायणाय नमः।। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।

य इमां चाक्षुष्मतीं विद्यां ब्राह्मणो नित्यम् अधीयते न तस्य अक्षिरोगो भवति। न तस्य कुले अंधो भवति। न तस्य कुले अंधो भवति।
अष्टौ ब्राह्मणान् ग्राहयित्वा विद्यासिद्धिः भवति। .
विश्वरूपं घृणिनं जातवेदसं हिरण्मयं पुरुषं ज्योतिरूपमं तपतं सहस्त्र रश्मिः।
शतधावर्तमानः पुरः प्रजानाम् उदयत्येष सूर्यः। ॐ नमो भगवते आदित्याय।।
।।इति स्तोत्रम्।।

मंत्र का अर्थ:-

हे सूर्यदेव! हे चक्षु के अभिमानी सूर्यदेव! आप आंखों में चक्षु के तेजरूप् से स्थिर हो जाएं. मेरी रक्षा करें, रक्षा करें। मेरी आँख के रोगों का शीघ्र नाश करें, शमन करें। मुझे अपना सुवर्ण जैसा तेज दिखला दें, दिखला दें। जिससे मैं अंधा न होऊं, कृपया ऐसे उपाय करें। मेरा कल्याण करें, कल्याण करें। दर्शन शक्ति का अवरोध करने वाले मेरे पूर्वजन्म के जितने भी पाप हैं, सबको जड़ से समाप्त कर दें, उनका समूल नाश करें। ॐ नेत्रों के प्रकाश भगवान् सूर्यदेव को नमस्कार है।

ॐ आकाशविहारी को नमस्कार है. परम श्रेष्ठ स्वरूप को नमस्कार है. सब में क्रिया शक्ति उत्पन्न करने वाले रजो गुणरूप भगवान् सूर्य को नमस्कार है. अन्धकार को अपने भीतर लीन कर लेने वाले तमोगुण के आश्रयभूत भगवान् सूर्य को नमस्कार है. हे भगवान् ! आप मुझे असत् से सत् की ओर ले चलिए. मृत्यु से अमृत की ओर ले चलिए. ऊर्जा स्वरूप भगवान् आप शुचिरूप हैं. हंस स्वरूप भगवान् सूर्य आप शुचि तथा अप्रतिरूप हैं- आपके तेजोमय स्वरूप की कोई बराबरी नहीं कर सकता.

जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, सम्पूर्ण विश्व जिनका रूप है, जो किरणों में सुशोभित एवं जातवेदा (भूत आदि तीनों कालों की बातें जानने वाला) हैं, जो ज्योति स्वरूप, हिरण्मय (स्वर्ण के समान कान्तिवान्) पुरूष के रूप में तप रहे हैं, इस सम्पूर्ण विश्व के जो एकमात्र उत्पत्ति स्थान हैं, उस प्रचण्ड प्रतापवाले भगवान् सूर्य को हम नमस्कार करते हैं. वे सूर्यदेव समस्त प्रजाओं के समक्ष उदित हो रहे हैं.

षड्विध ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान् आदित्य को नमस्कार है. उनकी प्रभा दिन का भार वहन करने वाली है, हम उन भगवान् को उत्तम आहुति अर्पित करते हैं. जिन्हें मेधा अत्यन्त प्रिय है, वे ऋषिगण उत्तम पंखों वाले पक्षी के रूप में भगवान् सूर्य के पास गए और प्रार्थना करने लगे- ‘भगवन्! इस अन्धकार को छिपा दीजिये, हमारे नेत्रों को प्रकाश से पूर्ण कीजिये तथा अपना दिव्य प्रकाश देकर मुक्त कीजिए.’

जो इस चक्षुष्मतीविद्या का नित्य पाठ करता है, उसे नेत्र सम्बन्धी रोग नहीं होते. उसके कुल में कोई अंधा नहीं होता.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

main page title 1 puran ki katha

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पौराणिक कथाएं

main page title 2 mantra sansar

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मंत्र संसार

main page title 3 upyogi kathayen

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उपयोगी कथाएं

main page title 4 Khatu Shayam

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श्री श्याम देव (बर्बरीकजी)

main page title 5 vrat tyohar

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मोरवीनंदन ने किया सर्वोच्च बलिदान- श्रीकृष्ण को दिया शीशदान

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भीम के पुत्र घटोत्कच का विवाह कामकटंकटा से हुआ. मूर दैत्य की पुत्री होने के कारण उन्हें मोरवी भी कहा गया. जगदंबाभक्त मोरवी अतुलित शक्तियों की स्वामिनी थीं.

दोनों को दैवीय कृपा से एक परम बलशाली पुत्र हुआ जिसका नाम रखा गया बर्बरीक. बर्बरीक भगवती के अनन्य भक्त थे और उन्होंने जगदंबा देवी को प्रसन्नकर अजेय होने का वरदान प्राप्त किया था.

महाभारत युद्ध का शंखनाद हो चुका था. वीर बर्बरीक युद्ध देखने की इच्छा से अपनी पीठ पर तुणीर रखी जिसमें तीन दिव्य तीर थे और घोड़े पर सवार होकर कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान कर गए. रास्ते में भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण के वेश में उनसे मिले.

श्रीकृष्ण ने परिचय पूछा तो उन्होंने कहा कि मैं मोरवीनंदन एक योद्धा व दानी हूं और महाभारत युद्ध देखने जा रहा हूं. इस युद्ध में जो पक्ष पराजित हो रहा होगा मैं उसकी ओर से युद्ध करूंगा.

श्रीकृष्णजी ने पूछा कि आप जिस महासंग्राम में हारने वाले का सहारा बनने जा रहे हैं वहां अर्जुन, कर्ण, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीम, दुर्योधन जैसे अनगिनत महावीर हैं. आपकी तैयारी भी पूरी नहीं लगती क्योंकि आपके पास न तो रथ है और न सेना. आपका तो तूणीर भी नहीं भरा है. इसमें शस्त्र के नाम पर केवल तीन तीर हैं.

बर्बरीक ने कहा- हे विप्रवर आप इन तीरों को साधारण न समझें. स्वयं भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूजित देवी जगदंबिका द्वारा दिए गए ये तीन तीर इस संग्राम में आए उन सभी महावीरों पर भारी पड़ेंगे.

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Darshan

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Khatu Shyam

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