Sunday, April 27, 2025
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इंद्र के वध के लिए यज्ञकुंड से निकला वृटासुर, प्राण बचाने के लिए श्रीहरि के आदेश पर इंद्र ने दधीचि से मांगा अस्थिदानः भागवत कथा में आज दधीचि का प्रसंग.

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इंद्र द्वारा अपने पुत्र विश्वरूप का वध करने से क्रोधित त्वष्टा ने इंद्र को यज्ञकुंड में भस्म करने के लिए आहुति डालनी शुरू की लेकिन क्रोध से तमतमाते त्वष्टा से मंत्रोच्चार में अशुद्धि हो गई.

यज्ञ कुंड से एक भयानक असुर वृटासुर प्रकट हुआ. त्वष्टा ने उसे इंद्र का वध करने का आदेश दिया. वृटासुर इतना भयंकर था कि उसे देखकर देवता जान बचाकर भागने लगे.

जो भी देव वृटासुर के सामने पड़ता वह उसे लील जाता. इंद्र ने उस पर वज्र चलाया तो वृटासुर ने पलटकर जोरदार आघात किया और इंद्र का वज्र ही टूट गया.

इंद्र के साथ-साथ देवता जान बचाने भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे. श्रीहरि ने यज्ञस्थल पर अपने पुरोहित की हत्या करने के लिए इंद्र को जमकर खरी-खोटी सुनाई.

इंद्र ने क्षमा मांगी. देवताओं द्वारा बार प्रार्थना करने पर श्रीहरि ने इंद्र से कहा- यदि तुम्हें अपनी और देवों की रक्षा करनी है तो अथर्व पुत्र दधीचि से सहायता मांगो.

घोर तप के कारण दधीचि की अस्थियां वज्र के समान कठोर हो चुकी हैं. उनकी अस्थियों से फिर से व्रज बनाना होगा और वृतासुर से युद्ध करना होगा.

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इंद्र के आचरण से क्षुब्ध बृहस्पति अंतर्ध्यान हुए तो त्वष्टापुत्र बने नए देवगुरूःभागवत कथा में विश्वरूप के देवगुरू बनने और इंद्र द्वारा उनकी हत्या का प्रसंग

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देवराज इंद्र का अहंकार बहुत बढ़ गया था. स्वर्ग के स्वामी होने के मद में वह चूर रहते थे. एक बार इंद्रसभा सजी हुई थी. स्वर्ग की अप्सराएं नृत्य से इंद्र का मनोरंजन कर रही थीं.

उस सभा में इंद्र के साथ उनके सभी मंत्रिगण, गन्धर्वराज, किन्नर, समस्त देवता, ग्यारह रूद्र, सात मारुत, बारह आदित्य आदि विराजमान थे.

देवगुरु बृहस्पति वहां पधारे. देवगुरू के सम्मान में सभी देवतागण उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम किया लेकिन इंद्र न तो अपने आसन से उठे और न ही गुरू को प्रणाम किया.

इंद्र के इस व्यवहार से बृहस्पति आश्चर्यचकित थे. उन्हें इंद्र से व्यवहार की अपेक्षा न थी. इंद्र को उन्होंने भूल सुधारने का अवसर भी दिया लेकिन गर्व में चूर इंद्र बैठे ही रहे.

बृहस्पति ने किसी से कुछ भी नहीं कहा और चुपचाप वहां से चले गए. उनके जाने के बाद इंद्र की समझ में आया कि उन्होंने देवगुरु को अपमानित कर दिया है.

इंद्र बृहस्पति से क्षमा मांगने उनके घर गए लेकिन अपमानित देवगुरू कहीं अंतर्ध्यान हो चुके थे. देवताओं के गुरू रुष्ट होकर उनका त्याग कर चुके हैं, यह सूचना असुरों तक पहुंची.

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देत्यगुरू शुक्राचार्य ने असुरों से कहा कि अपने गुरु व संरक्षक से हीन होने के कारण देवता शक्तिहीन हो गए होंगे. इसलिए देवलोक पर आक्रमण करने का यह अच्छा अवसर है.

असुरों ने स्वर्ग पर चढ़ाई कर दी और देवताओं को स्वर्ग से खदेड़ दिया. देवता ब्रह्मा के पास गए और उनसे संकट से निकलने का उपाय बताने की विनती की.

ब्रह्मा जी ने कहा- गुरुविहीन होने के कारण आप अपनी शक्ति फिर से संगठित नहीं कर पाएंगे. इंद्र ने अपने अभिमान में बृहस्पति को खो दिया है. गुरू को मनाकर ले आइए तभी कल्याण होगा.

इंद्र ने बताया कि देवगुरू से क्षमा मांगने गए थे लेकिन अपनी शक्तियों से वह ऐसी जगह चले गए हैं जहां का पता लगाना हमारे बस का भी नहीं है.

बहुत खोजने पर भी बृहस्पति का पता नहीं चला है. उन्होंने ब्रह्माजी से इस संकट से उबारने की बार-बार विनती की. ब्रह्मा ने कोई नया देवगुरू नियुक्त करने का सुझाव दिया.

ब्रह्मा ने कहा- मेरी दृष्टि में त्वष्ठा के पुत्र विश्वरूप ही ऐसे हैं जो देवगुरू होने का सामर्थ्य रखते हैं. आप सब उनकी ही शरण में जाइए और उन्हें देवगुरू बनने को राजी करें.

ब्रह्मा ने साथ ही देवताओं को विश्वरूप के प्रति आगाह भी किया. विश्वरूप गुरू योग्य तो हैं किन्तु एक असुर होने के नाते उनका झुकाव असुरों के प्रति रहेगा. आपको यह सहन करना होगा.

इंद्र के नेतृत्व में देवगण विश्वरूप जी के पास गए. उनसे अपना गुरु बनने के लिए प्रार्थना की.

इंद्र ने कहा- उम्र में हमसे कम होते हुए भी आप ज्ञान में हमसे बहुत आगे हैं. हम आपसे देवगुरु बनने की विनती करते हैं. विश्वरूप ने इंद्र की विनती स्वीकार कर ली.

विश्वरूप ने इंद्र को नारायण कवच के रूप में ॐ नमो नारायणाय का मंत्र दिया. नारायण कवच से इंद्र युद्ध में सुरक्षित रहे और देवताओं ने फिर से विजयी होकर स्वर्ग प्राप्त कर लिया.

विश्वरूप के तीन सिर और तीन मुख थे. एक मुख से वह देवों के समान सोमरस पीते थे तो दूसरे से असुर समान मदिरा और तीसरे से मानव समान अन्न खाते थे.

विश्वरूप के जन्म असुर कन्या एवं आदित्य के पुत्र से हुआ था. इसलिए असुरों के प्रति उनका प्रेम भी स्वाभाविक था.

विश्वरूप देवगुरू के रूप में देवताओं के लिए उच्चस्वर में मंत्रोच्चार करते हवन डालते थे किंतु गुप्त रूप में असुरों के लिए भी यज्ञ का भाग दे देते थे.

एक यज्ञ में विश्वरूप को इंद्र ने असुरों के लिए हविष चढ़ाते देखा तो क्रोध में आपा खो बैठे. इंद्र भूल गए कि ब्रह्मा ने उन्हें विश्वरूप के असुर प्रेम पर संयम रखने को कहा था.

क्रोधित इंद्र ने विश्वरूप के सर काट दिए. इंद्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा. देवराज होने के कारण इंद्र के पास यह पाप अस्वीकार करने की शक्ति थी लेकिन उन्होंने शाप स्वीकार किया.

विश्वरूप की हत्या से उनके पिता त्वष्टा बड़े क्रोधित हुए. उन्होंने इंद्र को भस्म करने के लिए यज्ञकुंड में हविष डालना शुरू किया. किंतु क्रोधित त्वष्टा से मंत्र उच्चारण में चूक हो गई.

इसका परिणाम यह हुआ कि वृतासुर नामक एक अत्यंत शक्तिशाली और भयानक असुर पैदा हो गया.

त्वष्टा ने देवराज का अंत करने के लिए आह्वान किया था. इसलिए उसके परिणाम स्वरूप जन्मा वृतासुर देवताओं को निगलने लगा. भय से देवता जान बचाकर भागे.

उन्होंने भगवान विष्णु की शरण ली और रक्षा की प्रार्थना की. श्रीहरि ने इंद्र को उसी दधीचि की शरण में जाने को कहा जिसका इंद्र ने पहले घोर अपमान किया था.

दधीचि ने इंद्र की प्रार्थना सुनी और देवकल्याण के लिए क्या किया इस प्रसंग की चर्चा कल की भागवत कथा में करेंगे.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

श्रीहरि के आदेश से दक्ष ने पैदा किए दस हजार पुत्र, नारद ने दक्षपुत्रों को वैराग्य ज्ञान देकर भटकायाः भागवत कथा में नारद को दक्ष के शाप का प्रसंग

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प्रचेताओं के औरस और अप्सरा के गर्भ से दक्ष उत्पन्न हुए. विंध्यपर्वत के पास दक्ष श्रीहरि की आराधना करने लगे. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगावन विष्णु ने दर्शन दिए.

श्रीहरि ने दक्ष को उत्तम ज्ञान देने के बाद कहा- तुम प्रजापति बनो. मैं तुम्हें प्रजापति पंजचन से पैदा हुई एक सुंदर कन्या आसिक्ती देता हूं. उसके साथ संतान पैदा करो. तुम्हें सृष्टि की वृद्धि का कार्य करना है.

भगवान के आदेश पर दक्ष ने आसक्ती के साथ रमण किया और हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र पैदा किए. दक्ष पुत्र तेजस्वी थे. जन्म के साथ ही सभी ज्ञान से युक्त थे.

दक्ष ने उन्हें कहा कि श्रीहरि का आदेश है कि हमें सृष्टि की वृद्धि करना है. इसलिए तुम सभी सारे संसार में फैल जाओ और उत्तम संतान पैदा कर सृष्टि को बढ़ाओ.

दक्ष पुत्र पिता की आज्ञा से दक्षिण की ओर चले और सिंधु और समुद्र के संगमस्थल पर स्थित नर-नारायण नामक धाम पर पहुंचे. उस तीर्थ के जल के स्पर्श से ही प्राणी पवित्र हो जाता था.

दक्ष पुत्रों ने स्नान किया और परमपवित्र होकर परमहंस जैसे हो गए. इसके बाद उन्हें पिता का आदेश याद आया तो सृष्टि विस्तार के लिए तप की तैयारी करने लगे.

देवर्षि नारद ने देखा कि परमहंस बन जाने के बावजूद दक्षपुत्र सृष्टि रचना की चिंता कर रहे हैं, ऐसा सोचकर नारद बड़े दुखी हुए. वह दक्ष पुत्रों के पास आए.

नारद ने कहा- दक्ष पुत्रों अभी तो तुमने इस धरा का अंत देखा ही नहीं है फिर क्यों सृष्टि रचना की चिंता से घुले जा रहे हो. तुम लोग नादान नहीं हो फिर ऐसा क्यों करते हो.

नारद ने कहा- जिस पृथ्वी के लिए सृष्टि बसाना चाहते हो पहले उसे जान तो लो. बिना जाने किए गए कार्य के कारण विद्वान लोगों को बाद में पछताना पड़ता है.

नारद की बात हर्यश्वों के मन में बैठ गई. उन्होंने आपस में परामर्श करके पहले पृथ्वी का विस्तार से भ्रमण का निर्णय लिया. संतान पैदा करने की बात को उन्होंने किनारे कर दिया.

अपने पुत्रों को सृष्टि वृद्धि के कार्य से विमुख होता देख दक्ष को बड़ा अफसोस हुआ. उन्होंने आसक्ती के साथ फिर से रमण करके संतान उत्पन्न किया.

दक्ष की संताने फिर से उसी नर-नारायण तीर्थ पर पहुंची. स्नान करके संतान वृद्धि का संकल्प लिया. नारद फिर से आ धमके.

उन्होंने दक्षपुत्रों को समझाया कि तुम्हारे बड़े भाइयों ने संतान पैदा करने के बजाय पृथ्वी के विस्तार का पता लगाने का निश्चय किया, तुम क्यों अज्ञान में भटकते हो.

नारद ने तरह-तरह के तर्क देकर इन दक्ष पुत्रों को भी संतान वृद्धि के कार्य से अलग कर दिया. दक्ष को जब यह बात पता चली तो वह बड़े क्रोधित हुए.

दक्ष ने नारद को शाप दिया- नारद तुमने साधु का वेश धारण कर रखा है लेकिन मन से बड़ा कुटिल है. तुम प्राणियों को उनके उद्देश्य से भटकाने का कार्य कर रहे हो.

तुमने मेरे पुत्रों को भ्रमित करके उन्हें उनके कार्य से रोका और संसार में भटकने को प्रेरित कर दिया है. आज से तुम संसार में एक स्थान पर नहीं टिक पाओगे.

नारदजी ने दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया. इसी कारण नारद का घर नहीं बसा और वह एक जगह से दूसरे जगह पर भटकते रहते हैं.

ब्रह्मा ने दुखी दक्ष को शांत कराया और उन्हें फिर से संतान उत्पन्न करने को कहा. इस बार दक्ष को साठ पुत्रियां हुईं.

दक्ष ने अपनी पुत्रियों का विवाह महर्षि कश्यप, धर्म, चंद्रमा, भृगु और अरिष्टनेमि के साथ किया. इनके गर्भ से देवता, असुर, यक्ष-गंधर्व, पशु-पक्षी, वनस्पति और कीट आदि हुए और पृथ्वी जीवों से भर गई.

कल पढ़िए इंद्र द्वारा देवगुरु बृहस्पति का अपमान एवं वृतासुर की कथा.
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

महादेव ने केतकी के पुष्प को दिया शिवपूजन में वर्जित होने का शापः शिवजी की पूजा में केतकी के पुष्प के वर्जित होने की कथा

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राशिफल-शिवजी नृत्यमुद्रा में

एक बार ब्रह्माजी व विष्णुजी में विवाद छिड़ गया कि दोनों में श्रेष्ठ कौन है? ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी. इसलिए वह स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे.

भगवान विष्णु का कहना था कि रचना करने से ज्यादा कठिन है पालन करना. वह सृष्टि के पालनकर्ता हैं इसलिए वह ब्रह्मा से श्रेष्ठ हैं.

सामान्य चर्चा ने विवाद का रूप ले लिया. विवाद बढ़ता जा रहा था. तभी वहां एक विराट ज्योतिर्मय लिंग प्रकट हुआ. उस ज्योतिर्लिंग को कोई ओर-छोर नहीं दिखता था.

आकाशवाणी हुई कि ब्रह्मा और विष्णु में से जो भी इस लिंग के छोर का पहले पता लगाएगा, उसे ही श्रेष्ठ माना जाएगा. दोनों विपरीत दिशा में शिवलिंग का छोर ढूढंने निकले.

ब्रह्मदेव ने हंस का रूप लिया और ज्योतिर्लिंग का ऊपरी ओर खोजने निकले. श्रीहरि ने वराह रूप लिया और ज्योतिर्लिंग का निचला छोर खोजने निकले.

श्रीहरि छोर तलाश नहीं सके और वापस लौट आए. ब्रह्माजी भी ऊपरी छोर खोजने में असफल रहे तो वापस चले. तभी उन्हें अपने साथ-साथ नीचे की ओर आता केतकी का एक फूल दिखा.

केतकी को देखकर ब्रह्मा के मन में आया कि यदि मैं यह कह दूं कि मैंने छोर खोज लिया है तो पता किसे चलेगा. इस केतकी पुष्प को इसका साक्षी बना लूंगा.

ब्रह्मा ने केतकी को तरह-तरह का प्रलोभन देकर इस बात की झूठी गवाही देने को राजी कर लिया कि वह ज्योतिर्लिंग के छोर तक पहुंच गये थे.

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ब्रह्मा लौटकर आए उन्होंने ज्योतिर्लिंग का ऊपरी छोर खोजने का दावा कर दिया. केतकी ने गवाह के रूप में ब्रह्माजी का इस झूठ में साथ दे दिया.

ब्रह्माजी के झूठ कहते ही वहां स्वयं भगवान शिव प्रकट हुए और झूठ बोलने के लिए ब्रह्माजी को खूब खरी-खोटी सुनाई.

जगतपिता झूठ बोल रहे हैं, इससे वह क्रोधित थे. वह ब्रह्माजी को दंड देने के लिए उठे लेकिन श्रीहरि ने उन्हें शांत कराने का प्रयास किया.

महादेव ने ब्रह्मा को शाप दिया कि पुष्कर के अतिरिक्त ब्रह्मा की कहीं और पूजा न होगी. झूठी गवाही देने वाले केतकी के पुष्प को दंडित करते महादेव ने उसका प्रयोग अपनी पूजा में प्रतिबंधित कर दिया.

दोनों देवताओं ने महादेव की स्तुति की, तब उनका क्रोध शांत हुआ. शिवजी ने कहा- मैं ही सृष्टि का कारण, उत्पत्तिकर्ता और स्वामी हूं. मैंने ही आप दोनों को उत्पन्न किया है. इसलिए श्रेष्ठता का विवाद निराधार है.

इसलिए महादेव की पूजा में केतकी के पुष्पों का प्रयोग निषिद्ध है. केतकी के फूलों से पूजा करने से महादेव अप्रसन्न हो जाते हैं. (शिव पुराण की कथा)
महादेव की पूजा में केतकी से दूर रहे और कनेर, मदार या आक और धतूरा अवश्य चढ़ाएं. आक, धतूरे और भांग जैसी विषैली वस्तुओं से महादेव क्यों प्रसन्न होते हैं, यह प्रसंग अगले पोस्ट में.

महाशिवरात्रि की शुभकामनाएं
लेखन व संपादनः प्रभु शरणम्

अत्यंत कल्याणकारी प्रभाव वाला है महादेव का मंगलोत्सव, महाशिवरात्रि की पूजा विधि और व्रत कथा.

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इस साल मंगलवार को चतुर्दशी तिथि का श्रवण नक्षत्र के साथ अद्भुत संयोग बन रहा है. उदया तिथि में त्रयोदशी रहेगी जो सुबह करीब 10.30 बजे तक रहेगी. उसके बाद चतुर्दशी आरंभ होगी जो बुधवार को प्रातः 08.15 तक रहेगी. महाशिवरात्रि व्रत का पारण बुधवार को सुबह 08.15 के बाद ही होना चाहिए.

हजारों वर्ष की तपस्या के बाद माता पार्वती ने महादेव को प्रसन्न कर विवाह के लिए राजी किया था. देवी की मनोकामना पूर्ति और देवताओं के तारकासुर के अत्याचार से मुक्ति दिलाने के लिए महादेव ने विवाह रचाया था.

महाशिवरात्रि को शिवजी की बारात निकलती है. इस दिन व्रत रखकर चार प्रहर पूजा का विधान है. प्रातःकाल स्नान आदि के बाद भस्म, त्रिपुंड. तिलक, रुद्राक्ष, पुष्प, अक्षत से व्रत का संकल्प लेना चाहिए. शिवमंदिर जाकर महादेव को दूध व जल से रूद्राभिषेक करें. महादेव को इस दिन बिल्वपत्र (बेल के पत्ते) जरूर चढ़ाना चाहिए.

बिल्वपत्र के साथ हल्दी, धतूरा, मदार आदि शिवलिंग पर चढ़ाकर पूजा करें. रूद्राभिषेक कर सकें तो अति उत्तम लेकिन यदि नहीं कर पाते तो भी भोलेभंडारी को व्रत के साथ भक्तिभाव से स्मरण कर प्रसन्न कर सकते हैं. व्रती को रूद्राक्ष की माला से कम से कम 11 माला ऊं नमः शिवाय का जप करना चाहिए

प्रदोष बेला (जब सूर्य अस्त हो गए हों किंतु हल्की चमक बाकी हो) में शिव तांडव स्तोत्र का पाठ करें या श्रवण करें. शिवरूद्राष्टकम व शिवसहस्त्रनाम का पाठ करते हुए महादेव-पार्वती का ध्यान करके इच्छित वरदान मांगना चाहिए

शाम को स्नान करके धतूरा, मदार, भांग, घी, मिश्री, गूगल, नैवेद्य आदि से प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ प्रहर में पूजा करनी चाहिए. यदि पूजा शिव मंदिर में करें तो
भगवान शिव ने देवी पार्वती को महाशिवरात्रि के व्रत की कथा सुनाई थी. वह कथा इस प्रकार से है. इस कथा को सुनें और परिवार के बड़े-बुजुर्गों को सुनाएं तो पुण्य होता है.

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व्रत कथा इस प्रकार है-

वाराणसी के वन में गुरुद्रुह नामक एक भील रहता था. वह जंगली जानवरों का शिकार करके अपने परिवार का भरण-पोषण करता था. एक बार शिवरात्रि के दिन वह शिकार करने वन में गया. उस दिन उसे दिनभर कोई शिकार नहीं मिला और रात भी हो गई.

तभी उसे वन में एक झील दिखा. उसने सोचा मैं यहीं पेड़ पर चढ़कर शिकार की राह देखता हूं. कोई न कोई प्राणी यहां पानी पीने आएगा. यह सोचकर वह पानी का पात्र भरकर बिल्ववृक्ष (बेल के पेड़) पर चढ़ गया. उस वृक्ष के नीचे शिवलिंग स्थापित था.

थोड़ी देर बाद वहां एक हिरनी आई. गुरुद्रुह ने जैसे ही हिरनी को मारने के लिए धनुष पर तीर चढ़ाया तो बिल्ववृक्ष के पत्ते और जल शिवलिंग पर गिरे. इस प्रकार रात के प्रथम प्रहर में अंजाने में ही उसके द्वारा शिवलिंग की पूजा हो गई.

तभी हिरनी ने उसे देख लिया. उसने शिकारी से पूछा कि तुम क्या चाहते हो. शिकारी पूरे दिन भूखा-प्यासा व्रत में रह गया था. अंजाने में उससे शिवजी की बेल पत्रों और जल के साथ आराधना हो गई थी इसलिए उसमें पशु-पक्षुओं की बोली समझने की शक्ति आ गई.

शिकारी ने कहा- मैं मनुष्य की बोली में बात करती हिरणी को पहली बार देख रहा हूं. अवश्य ही तुम कोई असाधारण जीव हो. मैं व्याघ्र हूं. मुझे परिवार को पालने के लिए शिकार के अतिरिक्त कोई कार्य नहीं पता. इसलिए मैं तुम्हें मारकर अपना और अपने परिवार का पेट भरूंगा.

हिरणी ने कहा- मैं स्वर्ग की अप्सरा हूं जो शापित होने के कारण हिरणी बन गई हूं. मैं अभी प्रसूता हूं. शीघ्र ही बच्चे को जन्म देने वाली हूं. मुझे मारकर तुम एक साथ दो प्राणियों की हत्या कर दोगे जो उचित नहीं. अपने बच्चे को जन्म देकर मैं तुम्हारे सामने प्रस्तुत हो जाउंगी.

आज तुम किसी और शिकार से पेट भर लो. अभी यहां पर एक और हिरणी आएगी जो हृष्ट-पुष्ट है तुम उसका शिकार करके आज अपने परिवार का पेट पालो. शिकारी ने कहा- मैं तुम्हारी बात का भरोसा कैसे करूं. इस प्रश्न के उत्तर में हिरणी बनी अप्सरा ने शिकारी को उपदेश देकर संतुष्ट किया तो शिकारी ने उसे जाने दिया.

थोड़ी देर बाद रात्रि के दूसरे प्रहर में उस हिरनी की बहन उसे खोजते हुए झील के पास आ गई. शिकारी ने उसे देखकर पुन: अपने धनुष पर तीर चढ़ाया. हिरणी ने कहा- शिकारी मुझे मत मारो. मैं तो पहले से भी भूखी-प्यासी होने के कारण कमजोर हूं. मेरे शरीर में उतना मांस नहीं जिससे तुम्हारे पूरे परिवार का भोजन हो सके.

फिर भी तुम यदि चाहते हो तो मैं तुम्हारा शिकार बनने के लिए तैयार हूं. मुझे आज की मोहलत दे दो ताकि मैं अपने बच्चों को सुरक्षित स्थान पर छोड़कर आ जाउं. हिरणी ने शिकारी को कहा कि यदि वह अपना वचन रखने के लिए लौटकर नहीं आती तो वह उस पाप की भागी हो जो युद्ध को छोड़कर भाग आए किसी महारथी की होती है.

शिकारी ने उसे जाने दिया और निराशा में बेल के पत्ते तोड़कर नीचे फेंकने लगा. उसके साथ जल भी गिराया. इस तरह रात के दूसरे प्रहर में उससे शिव की पूजा हो गई. इसी तरह एक और हिरणी रात्रि के तीसरे प्रहर में जल पीने आई.

शिकारी ने उसे मारने का प्रयत्न किया तो हिरणी ने कहा- यदि तुम मुझे मेरी हत्या का कोई उचित कारण बता सको तो मैं तुम्हारा शिकार बनने के लिए प्रस्तुत हूं. शिकारी ने सारा हाल बताया कि वह और उसके बच्चे सुबह से भूखे हैं. पेट भरने के लिए उन्हें मांस चाहिए.

हिरणी ने कहा- परिवार के पालने के तुम्हारे बात से मैं संतुष्ट हूं और मैं तुम्हारा शिकार बनने को तैयार हूं किंतु जैसे तुम अपने बच्चों के लिए चिंतित हो उसी तरह मुझे भी अपने बच्चों की चिंता है. मुझे रात भर का समय दे दो. मैं बच्चों को उनके पिता के भरोसे करके वापस आ जाऊंगी.

शिकारी दो शिकार गंवा चुका था इसलिए तैयार नहीं हो रहा था. उसने हिरणी के साथ चर्चा शुरू की. वह हिरणी के उत्तर से बड़ा संतुष्ट हुआ. महादेव की कृपा से उसका मन भी निर्मल हो गया था इसलिए उसे तर्कसंगत बातें उचित लगीं.

हिरणी ने वापस लौटने का वचन दिया तो शिकारी ने उसे भी छोड़ दिया. उसने थोड़ा जल पीया और कुछ जल नीचे गिरा दिया. फिर हताशा में बेल के पत्ते तोड़कर फेंकने लगा जो शिवलिंग पर गिरे. इस तरह तीसरे प्रहर में भी अंजाने में उससे शिवलिंग पूजा हो गई.

रात का चौथा प्रहर आरंभ हो चुका था. हिरणी को खोजता वहां एक हिरन आ पहुंचा. शिकारी ने उसे मारने के लिए तीर चढ़ाया और कहा तीन हिरणियों को छोड़ने के बाद आखिरकार देव की प्रेरणा से तुम मिल ही गए हो. तुम्हें मारकर मैं अपने परिवार का पेट भरूंगा.

हिरण ने कहा- हे व्याघ्र वो तीनों मेरी पत्नियां हैं. मेरे भरोसे तुम्हारे पास वापस आने की प्रतीज्ञा कर चुकी हैं. वे अपने वचन की पक्की हैं. तम्हारे पास अवश्य आएंगी. मेरा धर्म है कि मैं उनके वचन की रक्षा करने में सहायक बनूं. तुम मुझे भी समय दे दो ताकि मैं परिवार के लिए उचित प्रबंध कर लूं फिर तुम्हारे पास आ जाउंगा.

अंजाने में ही महादेव की पूजा से उसका मन निर्मल हो गया था. हिरण के वचनबद्धता पर उसके संदेह नहीं रहा. शिकारी ने हिरण को जाने दिया. किंतु यदि इस बार भी वही सब हुआ और चौथे प्रहर में भी शिवलिंग की पूजा हो गई. तीनों हिरनी व हिरन आपस में मिले और अपनी शिकार को की गई प्रतिज्ञा के कारण सुबह शिकारी के पास आ गए.

सबको एक साथ देखकर शिकारी खुश हुआ. उसने कहा- यह बड़े आश्चर्य की बात है कि पशु अपने वचन का इस प्रकार पालन कर रहे हैं. अपने अपना और परिवार का पेट भरने के लिए अनगिनत निरीह जानवरों की हत्या की है किंतु आप जैसे पवित्र जीवों की हत्या करते मेरे हाथ कांपते हैं.

गुरुद्रुह द्वारा दिन भर भूखा-प्यासा रहते चारों प्रहर अंजाने में ही सही लेकिन शिव की पूजा होने से शिवरात्रि का व्रत पूर्ण हो गया. व्रत के प्रभाव से उसके पाप तत्काल भी समाप्त हो गए. आकाश से सभी देवता शिकारी और मृगों के बीच की चर्चा सुनकर प्रसन्न थे.

तभी शिवलिंग से भगवान शंकर प्रकट हुए. महादेव ने उन्हें आशीर्वाद दिया औऱ मोक्ष प्रदान किया. इस प्रकार अंजाने में किए गए शिवरात्रि व्रत से भगवान शंकर ने शिकारी को मोक्ष प्रदान कर दिया. महादेव के दर्शन से हिरण परिवार भी मोक्ष को प्राप्त हुए.

कल पूरे दिन शिव विवाह की पूरी कथा लेकर प्रस्तुत होंगे. आपने वे कथाएं सुन रखी होंगी लेकिन महाशिवरात्रि को उनका श्रवण अवश्य करना चाहिए.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

गणेशजी के शरीर का रंग लाल क्यों, गणपति के विघ्नहर्ता बनने की कथाः गणपति के दिन, बुधवार पर विशेष

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सिंधु दैत्य ने भगवान विष्णु को प्रसन्न कर लिया था. श्रीहरि ने सिंधु से वरदान मांगने को कहा. सिंधु ने मांगा- आप बैकुंठ त्यागकर मेरे नगर में ही निवास करें.

वचनबद्ध श्रीहरि सिंधु के नगर में निवास करने लगे. इससे सिंधु दैत्य की शक्ति बढ़ गई.

देवताओं पर जब भी संकट आता था तो श्रीविष्णु उन्हें संकट से निकालते थे, लेकिन वह तो अब खुद सिंधु के बंदी जैसे हो गए थे. इससे देवताओं में हाहाकार मच गया.

शिवजी भी कैलाश को त्यागकर किसी अन्य स्थान पर साधना में रत थे. सिंधु के अत्याचारों से पीड़ित देवों के शिल्पी भगवान विश्वकर्मा कैलाश पर आए.

उनकी भेंट गणेशजी से हुई. बालक गणेश मात्र छह वर्ष के थे. श्रीगणेश ने विश्वकर्माजी से पूछा- मुझसे मिलने आए है तो मेरे लिए कोई उपहार लाए हैं?

विश्वकर्मा ने कहा-आप स्वयं सच्चिदानंद हैं. मैं आपको क्या उपहार दे सकता हूं. आपकी कृपा से मैं देवों के लिए आयुध बना रहा हूं. आप उनमें से चुन लें.

विश्वकर्मा ने गणपति वंदना के बाद उनके सामने भेंट स्वरुप कुछ आयुध रखे. ये आयुध थे- एक तीखा अंकुश, पाश और पद्म.

आयुध पाकर गणपति प्रसन्नता हुए. आयुधों से सबसे सुसज्जित होकर सबसे पहले श्रीगणेश ने खेल-खेल में ही दैत्य वृकासुर का संहार कर दिया.

देवताओं ने गणपति को प्रसन्न किया और उनसे सिंधुरासुर के अत्याचार से मुक्ति दिलाने की विनती की.

गणपति सेना लेकर सिंधुरासुर से युद्ध को चले. सिंधुरासुर को पता चला कि एक बालक चूहे पर सवार होकर उससे युद्ध करने आ रहा है तो वह खूब हंसा.

उसने गणपति की खिल्ली उड़ाई. गणपति ने क्रोधित होकर अपना रूप कई सौ गुना बढ़ाया और विश्वकर्माजी द्वारा प्रदत्त आयुधों से भीषण प्रहार किया.

श्रीगणेशजी के प्रहार से सिंधुरासुर के शरीर से रक्त की धारा फूटी. उनका शरीर असुर के रक्त से नहा गया और वह लाल रंग के हो गए.

सिंधुरासुर से मुक्ति पाकर देवों ने गणपति को विघ्नहर्ता कहकर उनकी वंदना की. गणेशजी के शरीर के लाल रंग की आराधना भी शुरू हुई और वह विघ्नकर्ता कहलाए.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

षटतिला एकादशी पर भगवान विष्णु ने नारदजी को सुनाई थी इस एकादशी की महिमा कथा.

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एक बार नारदजी ने भगवान विष्णु षटतिला एकादशी का माहात्म्य बताने का निवेदन किया. भगवान ने नारदजी से कहा- नारद! मैं तुमसे इस व्रत की महत्ता बताने वाली एक सत्य घटना कहता हूं, ध्यानपूर्वक सुनो.

पृथ्वीलोक में एक ब्राह्मणी रहती थी. वह सभी व्रत किया करती थी. कई बार तो वह लगातार एक मास का व्रत रखती थी. इससे उसका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया.

यद्यपि वह बुद्धिमान और धार्मिक थी फिर भी उसने व्रत के दौरान कभी देवताओं या ब्राह्मणों के लिए अन्न या धन का दान नहीं किया था.

मैंने सोचा कि दान नहीं करने के कारण यह ब्राह्मणी बैकुंठ लोक में भी अतृप्त रहेगी इसलिए मैं स्वयं भिखारी का वेश बनाकर पृथ्वी पर पहुंचा.

मैंने उस ब्राह्मणी से जाकर भिक्षा मांगी. वह ब्राह्मणी बोली- महाराज किसलिए आए हो?  मैंने कहा- मुझे भिक्षा चाहिए. कुछ दान करो.

इस पर उस ब्राह्मणी ने एक मिट्टी का ढेला मेरे भिक्षापात्र में डाल दिया. मैं उस मिट्टी के ढेले को लेकर ही बैकुंठ धाम लौट आया.

मरने के बाद ब्राह्मणी को स्वर्ग लोक मिला. उस ब्राह्मणी ने मुझे मिट्टी दान किया था इसलिए उसे मिट्टी का बना सुंदर महल जैसा घर मिला लेकिन उस घर में अन्नादि सामग्रियां नहीं थीं.

घबराकर वह मेरे पास आई और कहने लगी कि भगवन् मैंने अनेक व्रत से आपकी पूजा की फिर भी मेरा घर अन्नादि वस्तुओं से रहित है. इसका क्या कारण है?

इस पर मैंने कहा- पहले तुम अपने घर जाओ. तुमने देखने के लिए देवस्त्रियां आएंगी. तुम तब तक द्वार मत खोलना जब तक वे तुम्हें षटतिला एकादशी का पुण्य और विधि न सुना दें.

मेरे वचन सुनकर वह अपने घर में चली गई. जब देवस्त्रियां आईं और द्वार खोलने को कहा तो ब्राह्मणी बोली- आप मुझे देखने आई हैं तो षटतिला एकादशी का माहात्म्य मुझसे कहो.

उनमें से एक देवस्त्री ने षटतिला एकादशी की कथा सुनाई. जब ब्राह्मणी ने षटतिला एकादशी का माहात्म्य सुना तब द्वार खोल दिया.

देवांगनाओं ने उसको देखा कि न तो वह गांधर्वी है और न आसुरी है वरन पहले जैसी मानुषी है. उस ब्राह्मणी ने उनके बताए अनुसार षटतिला एकादशी का व्रत किया.

इसके प्रभाव से वह सुंदर और रूपवती हो गई तथा उसका घर अन्न आदि समस्त सामग्रियों से भर गया.

इसलिए हे नारद! मनुष्यों को मूर्खता त्यागकर षटतिला एकादशी का व्रत और लोभ न करके तिल आदि का दान करना चाहिए.

इससे दुर्भाग्य, दरिद्रता तथा अनेक प्रकार के कष्ट दूर होते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है. षटतिला को तिल का दान जरूर करना चाहिए.

ऐसी धार्मिक कहानियों का खजाना आपको लाइव पढ़ने को मिल सकता है. इसके लिए अपने एंड्रॉयड मोबाइल से इस लिंक को क्लिक कर प्रभु शरणम् एप्प डाउनलोड कर लें.

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संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

स्वच्छ नहीं हैं वस्त्र तो मंदिर में प्रवेश से पहले जरूर पढ़ लें छोटा सा पवित्रीकरण मंत्रः दैनिक पूजा में उपयोगी मंत्र

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प्रभु शरणम् के कुछ सदस्यों ने पूछा है कि मंदिर के सामने गुजरते हुए उसमें जाकर दर्शन की इच्छा होती है लेकिन कपड़े स्वच्छ नहीं हैं यह विचार आते ही प्रवेश से हिचक होती है. क्या उपाय है?

मन में हिचक इस बात के लिए भी होती है कि वस्त्र जूठे हैं अर्थात उसे पहनकर भोजन आदि किया है. इसलिए भी मंदिर के अंदर जाने से हिचक होती है. सर्दियों में यह समस्या ज्यादा होती है.

वैसे मंदिर में स्वच्छ वस्त्रों के साथ ही प्रवेश करना चाहिए लेकिन यदि कभी दर्शन की तीव्र इच्छा हो रही हो और आप सिर्फ वस्त्रों का विचार करके नहीं जा रहे, तो आप पवित्रीकरण मंत्र का स्मरण करके मंदिर में जाएं.

दाहिने हाथ की हथेली में थोड़ा सा जल लें फिर उस जल को नीचे बताए गए मंत्र के उच्चारण के साथ अपने शरीर पर छिड़क लें. इससे शरीर का पवित्रीकरण होता है.

ऊँ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतः अपि।
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्य अभ्यंतरो शुचिः।।

वस्त्र स्वच्छ हों फिर भी इस छोटे से मंत्र का पाठ करके आत्मशुद्धि कर लेनी चाहिए.

सूचनाः

आपके अपने प्रभु शरणम् एप्प में जल्द ही उपयोगी मंत्रों, पूजा विधियों, आरती-चालीसा आदि का बड़ा संकलन प्रस्तुत करने की तैयारी चल रही है.

हमारा उद्देश्य है आपके मोबाइल को ऐसे मंत्रों आदि से सुसज्जित रखना ताकि आपको जब चाहें अपने इष्टदेव का स्मरण मंत्रों के साथ तुरंत कर सकें.

पूजा-पाठ मन को शांति और पवित्रता देते हैं. आप निर्विघ्न होकर पूजन आदि में शामिल हो, इसमें हम अगर सहायक हो सकें तो, हमारा प्रयास सफल रहेगा.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

नए साल में डालें ईश्वर का आभार करने की यह नई आसान आदतः पूरे परिवार के लिए उपयोगी बात

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कराग्रे वसते लक्ष्मीः, करमध्ये सरस्वती ।

करमूले तु गोविंदः, प्रभाते कर दर्शनम् ।।

(हथेलियों के ऊपरी भाग में लक्ष्मी बसती हैं, मध्य में सरस्वती तो मूल में स्वयं गोविंद बसते हैं. इसलिए कर दर्शन के साथ सुबह की शुरुआत करते हैं)

सुबह उठते ही दोनों हथेलियों के दर्शन के साथ यह मंत्र पढ़ें. फिर हथेलियों को अपने चेहरे पर फेरकर प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य का स्मरण ऊं आदित्याय नमः से करें.

बिस्तर से नीचे उतरने से पहले पृथ्वी को आभार करें कि उन्होंने आपका बोझ उठाकर अच्छी नींद दी. वही पृथ्वी हमें प्रसन्नता से भरे दिन का आशीर्वाद दें.

हिंदू धर्म दूसरे धर्मों से इसलिए अलग है क्योंकि इसमें हमें उन सभी चीजों का आभारी रहना सिखाया जाता है जो हमारे जीवन के लिए उपयोगी हैं.

जीवन के लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करना तथा आधार देने के लिए पृथ्वी का आभारी होना जरूरी है.

विनम्रता के इसी पहले पाठ से अपने बच्चों को अच्छा नागरिक बनने को प्रेरित करें.

उद्देश्य संभव है कुछ सुखद बदलाव आपको महसूस हो. नया साल है तो कुछ नया आजमाइए.

नववर्ष के पहले सप्ताह में हम प्रभु शरणम् एप्प को और उपयोगी बनाने के लिए ऐसे मंत्रों, चालीसा आदि का संग्रह डालने वाले हैं, जिससे आपकी नित्य की पूजा आराधना में यह सहायक साबित हो सके.

हम वेदों के कल्याणकारी मंत्रों, पुराणों, उपनिषदों की कहानियों को प्रस्तुत करते रहेंगे.

मित्रों प्रभु शरणम् एप्प हमने सनातन के अद्भुत ज्ञान व रहस्य को संसार के कोने-कोने तक फैलाने के पावन उद्देश्य से किया है.

ईश्वर सनातन के इस छोटे से दीपक को अखंड बनाए रखने की शक्ति प्रदान करें. प्रभु शरणम् के साथ बने रहने के लिए आभार!

नववर्ष की मंगलकामनाओं के साथ, पुराने वर्ष को साभार विदाई!!

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित दुखभाग भवेत्।।

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

गीता ज्ञानामृत अध्याय एकः श्लोक संख्या-7 (दुर्योधन द्वारा द्रोणाचार्य से कौरव सेना का वर्णन)

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“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय”।।

हम गीता-ज्ञान के अंतर्गत प्रथम अध्याय में दुर्योधन-द्रोण संवाद का वर्णन कर रहे हैं। कल हमने श्रीमद्भगवद्गीता के पञ्चम् एव षष्ठम् श्लोक की व्याख्या की।

आज  के गीता ज्ञानामृत में सातवें श्लोक  की चर्चाः

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते। ।7।

श्लोकार्थ-
दुर्योधन कहता है कि हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! हमारे पक्ष में भी जो जो प्रधान योद्धा हैं उन्हें आप समझ लीजिए। मेरी सेना में जो सेनानायक हैं, मैं उनकी क्षमताओं के बारे में आपसे कहता हूूं।

व्याख्या-
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र युद्धक्षेत्र में बदल गया है।कौरवों और पाण्डवों की सेना आमने सामने है।संसार के समस्त महारथी किसी न किसी पक्ष से युद्ध के लिए तैयार हैं।धर्म व अधर्म के बीच द्वंद्व हो रहा है।

दुर्योधन गुरु द्रोण से पाण्डवों की सेना का विश्लेषण कर चुका है।

अब वह एक कुशल नायक के समान अपने पक्ष में उपस्थित महारथियों के रणकौशल का वर्णन कर रहा है। युद्ध कौशल के अंतर्गत दोनों पक्ष के विषय में जानना बहुत आवश्यक होता है।

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

आज माघ संकष्टि गणेश चतुर्थी(तिल चौठ) है. तिल चौठ की पूजा विधि एवं व्रत कथा

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गणेश-पूजन विधिः

आज तिल चौठ को साफ-सुथरे लाल वस्त्र धारणकर, अपना मुख पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर रखें. तत्पश्चात स्वच्छ आसन पर बैठकर भगवान गणेश का पूजन करें.
लाल रंग के फूल, अक्षत, तिल के लड्डु आदि से भगवान गणपति की आराधना करें.

लाल रंग के फल, लाल फूल, रौली, मौली, अक्षत, पंचामृत आदि से श्रीगणेश को स्नान कराएं. धूप-दीप आदि से श्रीगणेश की आराधना करें.

गणेशजी को तिल से बनी वस्तुओं, तिल-गुड़ के लड्‍डू तथा मोदक का भोग लगाएं.  संकष्टी गणेश चतुर्थी की कथा पढ़े अथवा सुनें और सुनाएं. तत्पश्चात गणेशजी की आरती करें.

एक माला (108 बार) “ऊं गं गणपत्ये नमः” मंत्र का जप करने के बाद चंद्रमा को अर्घ्य दें. गणेशजी को तिल के लड्डू के साथ दूर्वा अवश्य चढ़ावें.
गणेशजी को तुलसी नहीं चढ़ाई जाती, इसका ध्यान रखें.

इसके बाद गणेश चतुर्थी की यह संक्षिप्त व्रत कथा सुनें-

गणेश चतुर्थी व्रत की कथा आरंभ करते हुए गणेशजी माता पार्वती से कहते हैं- सर्वसिद्धिदायिनी में विधानपूर्वक गणेश पूजन करने से अनेक शुभफल प्राप्त होते हैं. गुरु परंपरा का पालन करते हुए हर महीने अलग-अलग नामों से मेरी आराधना करनी चाहिए.

वे नाम क्रमशः हैं- वक्रतुंड, एकदंत, कृष्णापिन्दाक्षम, गजवक्त्रं, लम्बोदरं, विकट, विघ्नाराजेंद्रम, धूम्रवर्ण, भाल्चंद्रम, विनायक, गणपति और गजानन.

गणेशजी माता पार्वती को संकष्टि चतुर्थी की कथा सुनाते हुए कहते हैं- सतयुग में नल नामक प्रतापी राजा थे और उनकी परम रूपवती पत्नी दमयंती थीं. भाग्यवश शाप के कारण नल का दमयंती से वियोग हो गया. उनकी पत्नी ने इस व्रत के प्रभाव से अपने पति को पुनः प्राप्त किया.

जगदंबा ने पार्वती से पुनः प्रश्न किया कि हे पुत्र! दमयंती ने किस विधि से उत्तम व्रत किया और सातवें महीने में अपने पति को प्राप्त किया. अपनी माता के प्रश्न को सुनकर गणेशजी ने कहा- हे माता राजा नल दैवयोग से घोर विपत्ति में पड़ गए. हाथी घोड़े, धन-संपत्ति आदि सभी चल-अचल वस्तुओं का नाश हो गया.

मंत्री लोग छोड़कर चले गए. द्युत क्रीडा में हारे हुए व्यक्ति के समान राजा भी अपना सब कुछ गंवा चुके थे. अपने राज्य को नष्ट हुआ जानकर वह रानी दमयंती के साथ वन को चले गए. जंगल में नल अनेक प्रकार की यातनाएं भोगते रहे और अंत में अपनी पत्नी के साथ भी उनका वियोग हो गया.

किसी नगर में जाकर नल किसी तरह अपना जीवन कष्टों में भरकर बिताने लगे. उनकी पत्नी अन्य स्थान पर भीख मांगते हुए घोर कष्ट का जीवन बिता रही थीं परस्पर वियोग में रहकर वे दोनों अपने कर्मो का फल भोग रहे थे.

संयोगवश एक दिन दमयंती का शरभंग ऋषि से साक्षात्कार हुआ. दमयंती ने ऋषि से पूछा- हे ऋषिवर कृपा कर मुझे यह बताइए कि अपने पति तथा पुत्र से मेरा किस प्रकार से पुनः मिलन हो सकता है.

राज्य तथा अपने धन संपत्ति की किस प्रकार से पुनः प्राप्ति हो सकती है. इसके अतिरिक्त मैं यह भी जानने को उत्सुक हूं कि आखिर किस पाप के कारण भाग्य ने मुझे ऐसे दिन दिखाए हैं.

गणेशजी ने माता पार्वती से कहा- हे माता! दमयंती के वचनों को सुनकर शरभंग ऋषि ने कहा, हे दमयंती! सुनो मैं तुम्हारे हित की दृष्टि से कहता हूं. भाद्रपद मास और माघ मास की चतुर्थी जो संकष्ट चतुर्थी के नाम से विख्यात है.

यह व्रत महासंकट का नाश करने वाला और सभी मनोकानाओं को पूरा करने वाला है. इस दिन श्रद्धा से एकदंत गजानन का पूजन करने से सात माह के अंदर ही इच्छित फल की प्राप्ति हो जाती है.

गणेशजी ने पार्वतीजी से कहा- हे माता! दमयंती ने श्रद्धापूर्वक इस व्रत को भाद्रपद मास से आरंभ किया और सात महीने में ही उन्हें अपने पति तथा राज्य की फिर से प्राप्ति हुई और वे सुखमय जीवन बिताने लगे.

(यह कथा काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पंचांग से ली गई है. इसके अतिरिक्त भी कई गणेश कथाएं हैं जिनका श्रवण चतुर्थी को करने से गणेशजी प्रसन्न होते हैं.)

।।श्री गणेशाय नमः।।

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

महादेव और पार्वती ने भी मनोकामना पूर्ति के लिए की थी गणेश पूजा- गणेश संकष्ठि पर विशेष कथा

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जीवितपुत्रिका व्रत जीतिया शिव-पार्वती पूजा
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यह कथा हम आपको एक बार पहले भी बता चुके हैं. आज माधी संकष्टि चतुर्थी है. आज इस कथा को सुनने का विशेष महत्व है इसलिए फिर से सुना रहे हैं.

आज गणपति की पूजा बिना तिल के नहीं होती. आशा है आपने तिल के लड्डू बना लिए होंगे. पूजा के लिए लाल वस्त्र, लाल फूल-फल आदि रख लिए होंगे.

आम तौर पर पूजा संध्या में आरंभ होती है. पूजा के बाद चंद्रमा को अर्ध्य दिया जाता है.  इसलिए अपने स्थान पर चंद्रोदय का समय जान लें.

हम संध्या से पूर्व पूजा के मुहूर्त, कथा और विधि सब देंगे. यदि आपके पास कोई विद्वान पुजारी हैं, तो अति उत्तम, नहीं हैं तो भी कोई बात नहीं.

यह पूजा स्वयं भी की जा सकती है. विधि हम बता देंगे. आप बस तिल, वस्त्र, लाल फूल तैयार रखें.

संकष्ठि से जुड़ी एक कथा कल दी थी. आज एक और एक प्रचलित कथाः

एक बार भगवान शंकर और माता पार्वती नर्मदा नदी के तट पर बैठे थे. देवी पार्वती ने समय व्यतीत करने के लिए भोलेनाथ से चौपड़ खेलने को कहा.

महादेव तैयार तो हो गए. परन्तु वहां कोई और था नहीं. इसलिए समस्या यह थी कि इस खेल में हार-जीत का फैसला कौन करेगा?

भोलेनाथ ने कुछ तिनके उठाए. उसका पुतला बनाया और उस पुतले में प्राण प्रतिष्ठा कर दी. पुतला एक बालक के रूप में जीवित हो गया.

महादेव ने पुतले से कहा- पुत्र हम चौपड़ खेलना चाहते है. परन्तु हमारी हार-जीत का फैसला करने वाला कोई नहीं है. इसलिए तुम्हें हम निर्णायक बनाते हैं. तुम फैसला करना कि चौपड़ में कौन हारा और कौन जीता?

चौपड का खेल तीन बार खेला गया. संयोग से तीनों बार पार्वतीजी जीत गईं. खेल समाप्त होने पर बालक से देवी ने उसका निर्णय पूछा. उसने महादेव को विजयी घोषित कर दिया.

पार्वती क्रोधित हो गईं. उन्होंने कहा- तुममें निर्णायक बनने की क्षमता नहीं है. हार-जीत प्रत्यक्ष देखते हुए भी तुमने कुटिलता से गलत निर्णय सुनाया. इसलिए तुम लंगड़े होकर कीचड में पड़े रहो.

बालक ने माता के पैर पकड़ लिए. उसने कहा- आप मेरी माता समान हैं. मैंने किसी द्वेष में ऐसा नहीं किया बल्कि अज्ञानतावश ऐसा निर्णय हुआ. क्षमा कर दें.

पार्वती पसीज गईं. उन्होंने कहा- यहां गणेश पूजन के लिए नाग कन्याएं आएंगी. उनसे पूजा की विधि समझकर तुम गणेश व्रत करो. ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगे.

यह कहकर शिव-पार्वती कैलाश चले गए. सालभर बाद नाग कन्याएं गणेश पूजन के लिए आईं. उनसे पूजन विधि ठीक से समझकर बालक ने श्री गणेश का 21 दिन लगातार व्रत किया.

गणेशजी प्रसन्न हो गए. उन्होंने बालक को वरदान मांगने को कहा. बालक ने कहा- हे विनायक मुझमें इतनी शक्ति दीजिए  कि मैं अपने पैरों से चलकर अपने माता-पिता के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंच सकूं और वो यह देख प्रसन्न हों.

श्रीगणेश से वरदान प्राप्त कर वह बालक कैलाश पर्वत पर पहुंच गया. अपने कैलाश पर्वत पर पहुंचने की कथा उसने भगवान महादेव को सुनाई. किसी बात पर पार्वतीजी, भोलेनाथ से रुष्ट हो गईं.

बातचीत तक बंद हो गई. कैलाश पर रह रहे उस बालक को भी बात पता चली. उसने शिवजी से कहा- जैसे माता ने कहा था कि गणेश पूजा करके तुम मेरा स्नेह प्राप्त करोगे. नाराज देवी को मनाने के लिए आप भी वही पूजन करिए.

भक्त की बात पर भोलेनाथ मुस्कुराए. वह देवी को प्रसन्न करने के लिए बालक के मन में बसे गणेश आराधना के भाव को बनाए रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने बालक से गणेश पूजा की विधि समझी और व्रत किया.

पुत्र के प्रति इस स्नेह के भाव से पार्वती खुश हो गईं. माता के मन से भगवान भोलेनाथ के लिये जो नाराजगी थी वह समाप्त हो गई.

गणेश को प्रथम पूजनीय बनाने से नाराज शिवपुत्र कार्तिकेय दक्षिण में निवास कर रहे थे. देवी को पुत्र से मिलने की बड़ी इच्छा हुई. वह पुत्र से मिलने को बेचैन हो गईं.

शिवजी ने युक्ति लगाई. उन्होंने पार्वती से कहा- पुत्र को प्राप्त करने के लिए तुम भी गणेश पूजन करो. एक पुत्र से मिलन को व्याकुल माता ने दूसरे पुत्र की आराधना करनी शुरू कर दी.

कार्तिकेय को खबर लगी. वह भागे-भागे कैलाश आए. माता की पुत्र से भेंट की मनोकामना पूरी हुई. उस दिन से श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत मनोकामना पूरे करने वाला व्रत माना जाता है.

लेखन व संपादनः राजन प्रकाश

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।।ऊं गं गणपतये नमः।।

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

सर्वश्रेष्ठ है माघ मास की गणेश चतुर्थीः गुरुवार को तिल चौठ है, पढ़िए तिल चौठ की व्रत कथा

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माघ महीने के कृष्णपक्ष की गणेश चतुर्थी को सभी चतुर्थियों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है. इसे तिल चौठ भी कहा जाता है. कल तिल चौठ मनेगा.

यह व्रत माताएं अपनी संतान की लंबी उम्र और बुद्धि-विवेक के लिए करती है.

जिनकी संतान नहीं है या जो अपने संतान के करियर को लेकर बहुत चिंतित हैं, उन्हें तिल चौठ का व्रत करना चाहिए.

बुधवार गणेशजी का दिन है इसलिए आज हम आपको गणेश चतुर्थी की व्रत कथा सुना रहे हैं.

कल गणेशजी की अन्य कथाएं और चौठ पूजा की विधि बताएंगे.

गणेश संकष्ट चतुर्थी व्रत की एक प्रचलित कथाः

प्राचीन समय में एक नगर में एक कुम्हार राज्य के बर्तन बनाने का कार्य करता था. जिसमें मिट्टी के बर्तन पकाए जाते हैं उसे आँवा कहते हैं.

आँवा लगाने के एक वर्ष के बाद बर्तन पककर तैयार होते थे. एक बार उस कुम्हार ने आँवा लगाया परन्तु बर्तन पके ही नहीं. कुम्हार परेशान होकर राजा के पास गया.

राजा ने आँवा ना पकने का कारण राजपुरोहित से पूछा. राजपुरोहित ने कहा कि आँवे में बर्तन तभी पकेगा जब एक बच्चे की बलि दी जाए.

राजा ने आज्ञा दी कि हर साल एक घर से एक बच्चे की बलि दी जाएगी.

इस प्रकार आँवा पकाने के लिए हर साल आंवे में एक बच्चे को बिठाकर आँवा लगाने की परंपरा शुरू हो गई.

कुछ वर्षों बाद राज्य में रहने वाली एक बुढि़या के बेटे की बलि की बारी आई. बुढि़या का उसके बेटे के अलावा कोई सहारा नहीं था.

बुढि़या को अपने बेटे के जाने का बहुत दु:ख था. वह सोचने लगी कि मेरा तो एक ही बेटा है और वह भी मुझसे जुदा हो जाएगा.

लेकिन राजा की आज्ञा थी तो बलि के लिए उसे बेटा देना ही था. उसने अपने कलेजे पर पत्थर रखकर बेटे को बलि के लिए भेजा.

बुढि़या ने उस दिन संकष्टि चतुर्थी का व्रत रखा हुआ था. उसकी गणेशजी पर बड़ी श्रद्धा थी.

उसने बेटे को थोडे़ से तिल देकर कहा कि तुम आँवे में बैठते ही अपने चारो ओर यह तिल छिड़क देना. बाकि भगवान गणेश पर छोड़ दो वह तुम्हारी रक्षा करेंगें.

उस दिन वह भगवान गणेश की पूजा करती रही और रो-रो कर यही अपने बच्चे के प्राण रक्षा की याचना करती रही.

उसके बेटे ने अपनी माँ के दिए तिलों को आँवे में बैठने के बाद अपने चारों ओर बिखेर दिया और भगवान गणेश का ध्यान करने लगा.

परंपरा के मुताबिक बर्तनों के साथ उस लड़के को रखकर आँवे में आग सुलगा दी गई.

मिट्टी के बर्तनों को पकने में एक वर्ष का समय लगता था परन्तु इस बार आँवा एक ही दिन में ठंढ़ा हो गया और बर्तन पक गए.

कुम्हार को यह देखकर बहुत हैरानी हुई. उसने जकर राजा को बता बताई. राजा मंत्रियों और राजपुरोहित संग आँवे के पास पहुंचा.

आँवा हटाया गया. सभी यह देखकर हैरान रह गए कि बुढि़या का बेटा जीवित बैठा है और गणेश जी का ध्यान कर रहा है.

उसके साथ वे बालक भी जीवित थे जिनकी पहले आँवे में बिठाकर बलि दी गई थी.

राजा ने बुढि़या के बेटे से पूछा कि आखिर यह चमत्कार कैसे हुआ और सभी बच्चे जीवित कैसे हो गए.

उसने अपनी माँ द्वारा रखे गये उपवास तथा गणेशजी की महिमा औऱ तिल रखने की सारी बात बताई.

सारी बातें सुनकर राजा ने बुढि़या तथा उसके बेटे को बहुत से उपहार और इनाम दिए.

जिन लोगों के बच्चे जीवित थे उन सबने बुढ़िया से गणेश पूजन की विधि जानकर राजा के साथ गणेशजी की पूजा की.

राजा ने घोषणा की, अपने परिवार और राज्य के कल्याण के लिए सारी प्रजा माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को गणेश संकष्टि चतुर्थी का व्रत करे.

इसके बाद से उस राज्य में तिल चौठ की पूजा होने लगी और गणेशजी सबके संकट हरने लगे.

परिवार की बाधाएं दूर करने और संतान के कल्याण के लिए भगवान गणेश की पूजा की परंपरा चली.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

आज नींद खुलते ही करना है आपको यह प्रथम कामःरविवार को सूर्य को प्रसन्न करने के सरल और प्रभावकारी उपाय- आजमाकर देखें

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आज हम रोज की तरह कोई भगवत् कथा न देकर, सूर्य आराधना की विधियां लेकर आए हैं क्योंकि वर्ष का प्रथम रविवार है. 10 दिनों में सूर्य अपना आयन बदलने वाले हैं.

एप्प को बनाने के पीछे बड़ा उद्देश्य है आपको हिंदुत्व से जोड़े रखना, पूजा-पाठ की उन विधियों को पहुंचाना जिन्हें निभाना सरल है और जो बड़ी लाभदायक हैं.

सूर्य आराधना क्यों?

भगवान ‍सूर्य को वेदों में आरोग्य, आयु, धन, धान्य, पुत्र, मित्र, तेज, यश, कान्ति, विद्या, वैभव और सौभाग्य प्रदान करने वाला देव बताया गया है.

रविवार भगवान सूर्य का दिन है. इस दिन सूर्य को अर्घ्य देने का विशेष महत्व है.

तांबे के पात्र में लाल चन्दन, लाल पुष्प, अक्षत डालकर सूर्य मंत्र का जाप करते हुए जल अर्पण करना चाहिए. कुछ और न हो तो कम से कम जल तो अर्पण करें ही.

भगवान सूर्य सबसे तेजस्वी और कांतिमय हैं. इसलिए सूर्य आराधना से सुंदरता और तेज की प्राप्ति भी होती है. कन्याओं को खासतौर पर रविवार को जल देना चाहिए.

ह्रदय रोगी अगर आदित्य ह्रदय स्तोत्र का नित्य पाठ करें तो बहुत लाभ होता है.

आज आप मीठा भोजन अवश्य करें एवं घर के सभी सदस्यों को भी इसके लिए प्रेरित करें. गुड़ से यदि सूर्य को भोग लगाकर उसका सेवन करें तो सबसे उत्तम है.

ज्योतिष विज्ञान में सूर्य को राजपक्ष अर्थात सरकारी क्षेत्र एवं अधिकारियों का कारक ग्रह बताया गया है.

इसलिए राजनीति या सरकारी क्षेत्र में सफलता, शीर्ष करियर एवं सामाजिक प्रतिष्ठा में उन्नति के लिए भी सूर्य को प्रसन्न करना लाभदायक होता है.

सूर्य आराधना कैसे?

मनोवांछित फल पाने के लिए सुबह उठते ही निम्न मंत्र का उच्चारण करें. यदि सूर्य के दर्शन करके पाठ करें तो सर्वोत्तम, लेकिन यदि दर्शन नहीं हो रहे तब भी इस मंत्र का पाठ कर सकते हैं.

प्रातः आराधना मंत्रः

।।ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्त्र किरणराय मनोवांछित फलम् देहि देहि स्वाहा।।

स्नान करने के बाद एक लोटा जल लेकर नीचे लिखे मंत्रों में से किसी भी मंत्र को पढ़ते हुए सूर्यदेव को जल जरूर दें.

ध्यान रहे नमकीन वस्तु खाने के बाद जल न दें. अगर मीठा खाया हो या चाय वगैरह पी हो तो भी जल दे सकते हैं.

जल देने का मंत्रः

ॐ घृणि सूर्याय नम:।।

ॐ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: सूर्याय नम:।।

ॐ ह्रीं घृणि सूर्य आदित्य श्रीं ओम्।

ॐ आदित्याय विद्महे मार्तण्डाय धीमहि तन्न सूर्य: प्रचोदयात्।

ऊं घृ‍णिं सूर्य्य: आदित्य:।

ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय सहस्रकिरणराय मनोवांछित फलम् देहि देहि स्वाहा।।

ॐ ह्रीं घृणिः सूर्य आदित्यः क्लीं ॐ।

ॐ ह्रीं ह्रीं सूर्याय नमः।

विनतीः आपका एप्प कल से और ज्यादा उपयोगी बनकर नए स्वरूप में आ रहा है. पूरा विश्वास है कि यह आपको बेहतर और ज्यादा उपयोगी लगेगा.

आप इसे सोमवार को google play store में क्लिक करके update कर लें.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

आज पुत्रदा एकादशी है. गुरुवार को होने के कारण इसका महत्व ज्यादा है. श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी संतान सुख देने वाली पुत्रदा एकादशी की कथा.  

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महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा- हे भगवान! पौष शुक्ल एकादशी का क्या नाम है उसकी विधि क्या है और उसमें किस देवता की पूजा की जाती है?

भगवान श्रीकृष्ण बोले- इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। इसमें भी नारायण की पूजा की जाती है. पुत्रदा एकादशी व्रत का महत्व बड़ा है.

इसके पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान और लक्ष्मीवान होता है. इसकी मैं एक कथा कहता हूँ सो तुम ध्यानपूर्वक सुनो.

द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति का राजा महीजित पुत्रहीन होने के कारण दुखी रहता था. पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए लेकिन राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई.

वृद्धावस्था आने लगी. राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों! मैंने राजकोष भरने के लिए कभी किसी के साथ अन्याय नहीं किया. न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है.

किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ‍ली, प्रजा को पुत्र के समान पालता रहा. किसी से घृणा नहीं की. सज्जनों की सेवा करता हूं. फिर भी मुझे संतान सुख नहीं मिला. इसका क्या कारण है?

राजा महीजित से प्रजा बहुत प्रेम करती थी. राजा के दुखी होने से वे भी दुखी हुए और इसका उपाय तलाशने के लिए उन्होंने राजा के मं‍त्रियों को ऋषि-मुनियों से सलाह लेने को कहा.

मंत्री वन में गए. एक आश्रम में उन्हें निराहार, जितेंद्रीय, जितक्रोध, सनातन के गूढ़ तत्वों को जानने वाले लोमश मुनि दिखे. एक कल्प बीतने पर लोमश मुनि का एक रोम गिरता था.

आश्रम में उन्हें देखकर मुनि ने वहां आने का कारण पूछा. मंत्री बोले- हे महर्षे! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं. हमारे धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करते हैं, पर पुत्रहीन होने के कारण वह दु:खी हैं.

हम उऩकी प्रजा हैं. अत: उनके दु:ख से हम भी दु:खी हैं. अब आप कृपा करके राजा के पुत्र होने का उपाय बतलाएं ताकि हमारे राजा और हमारा कल्याण हो.

लोमश मुनि ने कहा- नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा. मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो.

ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्व जन्म का वृत्तांत जानकर कहने लगे- महीजित पूर्व जन्म में एक निर्धन वैश्य था. इसने कई बुरे कर्म किए. यह एक गाँव से दूसरे गाँव व्यापार करने जाया करता था.

एक बार दो दिनों से भूखा-प्यासा भटकता वह एक जलाशय पर जल पीने पहुंचा. वह द्वादशी का दिन था. उस स्थान पर एक तत्काल की ब्याई गाय जल पी रही थी. गाय को अपने बच्चे को दूध पिलाना था.

राजा ने उस प्यासी गाय को वहां से भगा हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा. गाय प्यासी वहां से चली गई. एकादशी के दिन भूखा रहने से वह राजा हुआ और प्यासी गौ को जल पीने से रोक देने के कारण पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है.

ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे कि हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है. अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताइए.

लोमश मुनि कहने लगे- पौष मास के शुक्लपक्ष और श्रावण के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं. तुम सब लोग एकादशी का व्रत करो. रात्रि को जागरण करो और अपना पुण्य राजा को दान कर दो.

इससे राजा के पूर्वजन्म का पाप नष्ट हो जाएगा और पुत्र की प्राप्ति होगी. ऋषि के वचन सुनकर सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई. जब पुत्रदा एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने व्रत और जागरण किया.

द्वादशी के दिन प्रजा ने पुण्य का फल राजा को दे दिया. उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसवकाल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ.

इसलिए हे युधिष्ठिर! इसका नाम पुत्रदा एकादशी पड़ा. संतान सुख की इच्छा रखने वालों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए. इसका माहात्म्य सुनने से पापों से मुक्ति होती है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग प्राप्त होता है.

लोमश मुनि की कथा किसी अन्य पोस्ट में सुनेंगे

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

धन से सारे सुख आ जाते हैं! मछुआरे ने सेठ को दिया सुख का सबकः एक उपयोगी कथा

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धन आवश्यक है लेकिन संसार में धन ही सबकुछ नहीं है. धन के बिना हम बहुत से सुखों से बेशक वंचित रह जाते हैं लेकिन ऐसा न समझें कि धन से सारे सुख आ ही जाते हैं.

प्रकृति का नियम है जो जितनी सुविधा का कारण बनता है वह उतनी असुविधा का भी कारण भी बनता है. इसलिए संतुलन जरूरी है. सबसे बड़ा सुख है आत्मसंतोष.

एक मछुआरे ने जरूरत भर मछलियां पकड़ी और तालाब के किनारे आराम करने लगा.

तभी वहां से एक अमीर आदमी गुज़रा. उसने मछुआरे को आराम से बैठे देखकर सोचा कि क्यों न इसे समय का उपयोग समझाया जाए.

उसने मछुआरे से कहा-अभी दिन आधा भी नहीं बिता और तुम आराम से बैठ चुके हो. इस तरह समय व्यर्थ क्यों कर रहे हो.

मछुआरे ने कहा कि वह आज के काम लायक मछलियां पकड़ चुका है इसलिए आराम से बैठा है.

अमीर आदमी ने कहा- अगर तुम्हारा आज का काम इतनी जल्द निपट गया तो क्या हुआ, फिर भी मछलियां पकड़ो.

मछुआरे ने पूछा जब जरूरत ही नहीं तो क्यों पकड़ूं? अमीर ने कहा-

रोज जरूरत से ज्यादा मछलियां पकड़ो. उन्हें बेचकर एक बड़ी सी नाव खरीदो.

मछुआरे ने पूछा कि उस नाव का क्या करूंगा. अमीर आदमी झुंझलाया- उसने कहा तालाब छोड़कर नदी और समुद्र में उतरो. ज्यादा मछलियां पकड़ो और पैसे कमाओ.

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