Monday, April 28, 2025
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दक्ष ने दिया शिव को शाप, फिर शिव अपमान के लिए किया यज्ञ का आयोजन. उसी यज्ञ में सती का आत्मदाहः भागवत कथा में शिव का प्रसंग

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मनु और शतरूपा ने ब्रह्मा के आदेश से पांच संतानों प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक पुत्र और आकूति, देवहुति एवं प्रसूति नामक कन्याओं को जन्म दिया.

आकूति का विवाह रूचि नामक प्रजापति से हुआ, देवहूति का कर्दम ऋषि से और प्रसूति का दक्ष प्रजापति से हुआ. इनसे संतति आगे बढ़ी.

कर्दम और देवहूति की नौ कन्याएं हुई थीं, जिनका विवाह ब्रह्मा ने नौ तेजस्वी ऋषियों से कराया. उनसे सारी सृष्टि के जीवों की उत्पत्ति हुई.

संसार निर्माण में इनका बड़ा योगदान है. इसलिए हम उनकी कथाएं संक्षेप में देने के स्थान पर बारी-बारी से सभी नौ ऋषियों की कथाएं अलग से प्रकाशित करेंगे ताकि आप विस्तार से समझ सकें.

नौ कन्याओं के बाद कर्दम और देवहूति को नारायण के अंश कपिलजी पुत्र के रूप में प्राप्त हुए जिनका वर्णन पिछली भागवत कथा में आया था.

तो मनु-शतरूपा द्वारा संतति बढ़ाने और उनके वंश से उत्पन्न संतानों के प्रसंग को विराम देते हैं और भागवत कथा आगे बढ़ाते हैं.

मनु और शतरूपा की तीसरी पुत्री प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से हुआ था. प्रसूति और दक्ष की एक पुत्री सती का विवाह भगवान शिव से हुआ.

एक बार दक्ष ने विशाल यज्ञ कराया. भृगु इसके मुख्य पुरोहित थे. सभी देवता, ब्रह्मा, विष्णु और महेश उसमें पधारे. जब दक्ष आए तो सब ने उठकर अभिवादन किया.

ब्रह्मा और भोलेनाथ नहीं उठे. इससे दक्ष को बड़ा अपमान महसूस हुआ. ब्रह्मा उनके पिता थे इसलिए उनका नहीं उठना तो दक्ष ने मान लिया लेकिन शिवजी तो उनके दामाद थे.

दक्ष ने यज्ञशाला में शिवजी को बुरा-भला कहा और घोषणा की कि आगे से किसी यज्ञ में शिवजी का भाग नहीं होगा. इस पर शिवगण नन्दी बहुत क्रोधित हुए.

नंदी ने दक्ष को शाप दिया कि जिस मुख से उन्होंने महादेव का अपमान किया वह बकरे का हो जाएगा. दक्ष के सहयोगियों को भोजन के लिए भीख पर आश्रित होना पड़ेगा.

भृगु दक्ष के सहयोगी और यज्ञ के पुरोहित थे. उन्होंने भी शाप दिया कि शिवभक्त शास्त्रों के विरूद्ध कार्य करने वाले, पाखंडी और सुरापानी (शराबी) हो जाएं.

महादेव यज्ञ में इस तरह के व्यवहार और एक दूसरे को शाप देता देखकर खिन्न हो गए और बिना किसी को कुछ कहे वहां से चले गए.

दक्ष ने महादेव का अपमान करने की ठान रखी थी. उन्होंने एक और यज्ञ का आयोजन किया जिसमें शिव और सती को निमंत्रित नहीं किया गया.

सती का यज्ञ में जाने का मन था किन्तु शिवजी ने मना किया. उन्होंने सती से कहा- आपके पिता यह यज्ञ मुझे अपमानित करने के लिए करा रहे हैं. आप वहां न जाएं. आपका अपमान होगा और मैं आपको खो दूंगा.

किन्तु सती अपने को रोक न सकीं और चली गयीं. वहां उन्होंने दक्ष द्वारा शिवजी के बारे में कहे गए अपशब्द सुने और खुद को अपमानित महसूस किया.

सती बोलीं- जो भी शिवभक्त हैं, उनमें यदि शक्ति है तो वह अपने प्रभु की निंदा करने वालों को दंड दें अन्यथा यहां से चले जाएं.

फिर उन्होंने दक्ष से कहा- मुझे यह शरीर आपने ही दिया है. इसी शरीर ने शिव का अपमान सुना है. सो मैं यह शरीर त्यागती हूं. इतना कहकर सती ने योग से अग्नि प्रज्ज्वलित कर अपना शरीर भस्म कर लिया.

यह देखकर शिवगण क्रोधित होकर दक्ष पर लपके किन्तु भृगुजी ने यज्ञ की अग्नि से यज्ञ रक्षक उत्पन्न किए जिन्होंने शिवगणों को खदेड़ दिया.

नारद ने यह सब घटना शिवजी को बताई. क्रोधित महादेव ने अपनी जटाओं से एक बाल तोड़ कर धरती पर फेंका और भयंकर वीरभद्र को प्रकट कर दिया.

वीरभद्र शिवगणों को लेकर यज्ञशाला पहुंचे और यज्ञ तहस-नहस कर दिया. जिन लोगों ने शिव का यज्ञ में अपमान किया था, उन्हें दंडित किया. वीरभद्र ने दक्ष की गर्दन काट दी.
यज्ञ का नाश होता देखकर ऋषियों और देवताओं ने ब्रह्मा और विष्णु से शिवजी को शांत कराने की विनती की.

देवताओं समेत ब्रह्मा और विष्णु शिवजी के पास आए. ब्रह्मा ने शिव को कहा- यज्ञ अधूरा रह गया है. आपके कोप से संसार नष्ट होने की आशंका है. आप शांत हो जाएं.

शिवजी यज्ञशाला में आये और दक्ष के शरीर पर बकरे का सर जोड़ कर उन्हें पुनर्जीवित किया. अहंकार नष्ट हो जाने पर दक्ष ने महादेव से क्षमा मांगी और यज्ञ पूर्ण किया.

इस यज्ञ के दौरान महादेव की पत्नी सती शरीर छोड़ चुकी थीं. दुखी होकर महादेव अनंत काल के लिए योगनिद्रा में चले गए.

नारायण अवतार ने माता को दिखाया संसारिक बंधनों से मुक्ति का मार्गः भागवत कथा में कपिल द्वारा देवहूति को योगज्ञान का प्रसंग

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ईश्वर ने माता देवहूति के पुत्र रूप में जन्म लिया. उनका नाम कपिल हुआ. कर्दम को स्मरण था कि उनके पुत्र के रूप में स्वयं भगवान श्रीहरि ने जन्म लिया है.

पुत्रियों के विवाह के बाद उन्होंने नारायण रूपी भगवान कपिल से कहा- अब मैं सभी सांसारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हो चुका हूं. मुझे वन में जाकर तप करने की अनुमति दीजिए.

कर्दम वन में तपस्या के लिए चले गए. पिता के वन चले जाने के बाद भगवान कपिल, माता देवहूति के साथ बिंदु सरोवर तीर्थ में ही रहने लगे.

एक दिन देवहूति को ब्रह्मा को वे बातें याद आईं जो ब्रह्मा ने उन्हें बताया था. ब्रह्मा ने कहा था कि तुम्हारा पुत्र नारायण होगा और तुम्हें जीवन का सत्य पथ दिखाएगा.

देवहूति, कपिल जी से बोलीं- मैं माया के जाल में फंसी असत्य में डूबी रही. सौभाग्य से आप पुत्र रूप में मिले हैं. इस अज्ञानरूपी अंधकार से निकलने का मार्ग बताइए.

प्रभु, मुझे प्रकृति और पुरुष के बारे में समझाइए. मायाजाल से बने इस संसार वृक्ष को काटने में आप मेरी कुल्हाड़ी बनिए ताकि इससे मुक्त होकर मैं अपना जीवन सफल कर सकूं.

माता की बातों से प्रसन्न भगवान कपिल ने कहा- हे माता, मोह बंधन को काटने का एकमात्र साधन है-योग. योगी मोहबंधनों को काट देता है. वह सुख और दुःख के मोह में नहीं पड़ता.

मैं आपको दुर्लभ योग ज्ञान बताता हूं, जो ज्ञान मैंने आपसे पहले उन संतों को दिया था जो आपकी ही तरह संसार का सत्य जानने को उत्सुक थे.

बंधन एवं मुक्ति दोनों के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी होता है. जो सत रज और तम, इन तीनों गुणों पर नियंत्रण कर लेता है उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है.

काम, क्रोध, लोभ और मोह “मैं” से जन्म लेते हैं. इस अहम् के बंधन को काट कर सच्ची भक्ति में लगने आत्मज्ञान होता है. आत्मज्ञान प्राप्त होने पर संन्यास का भाव पैदा हो जाता है.

देवहूति ने प्रश्न किया- सच्ची भक्ति कैसे होगी? सत्य का स्वरुप क्या होगा? तब भगवान कपिल ने माता को सत्य का ज्ञान दिया.

जैसे जठराग्नि (भूख की अग्नि) भोजन के टुकड़े कर उसे पचा देती है उसी तरह प्राणी मेरी भक्ति में समाकर मायाजाल को काट देते हैं. जो स्थिर मन के हैं, वे माया से नहीं भटकते और जन्म मृत्यु के चक्र से निकल जाते हैं.

मेरी इच्छा से पवन चलता है, इंद्र वर्षा कराते हैं, अग्नि प्रज्ज्वलित है और काल चक्र चलता है. मुझमे स्थिर बुद्धि वाले ज्ञानी इन सब भयों से मुक्त हो जाते हैं.

माता को संन्यास का लाभ बताने के बाद भगवान कपिल वहां से प्रस्थान कर गए. देवहूति ने पुत्र से प्राप्त ज्ञान के बाद ध्यान लगाया और एक दिन शरीर त्याग दिया.

देवहूति ने पूछा- जैसे पृथ्वी के बिना गंध और जल के बिना रस नहीं हो सकते, वैसे ही माया से अलग जीव कैसे होगा? भगवान ने माता के मन का भ्रम मिटाना जारी रखा.

जीवात्मा संसार पर निर्भर नहीं होता. माया का बंधन तोड़ते ही उसे ज्ञान हो जाता है कि उसका संसार से स्थाई नाता कभी था ही नहीं. मुझे तत्वरूप में जानने वाला फिर से इस संसार के कष्ट भोगने नहीं आता.

हमारे भीतरका आत्मा ही पुरुष है, प्रकृति आत्मा का आवरण है. पुरुष अनादि अनंत है, निर्गुण है. जब समय गतिशील हो तो वह प्रकृति के तीनों गुणों के संतुलन को उत्तेजित करता है और गुणों में असंतुलन आ जाता है.

माता देवहूति को योगज्ञान देने के बाद उनकी आज्ञा लेकर कपिल पूर्वोत्तर को चले गए. देवहूति ने नारायण के बताए मार्ग पर चलकर तपस किया ब्रह्मलीन हुईं.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम्

मित्रों, आप भी अपने एप्प में कथाएं लिख सकते हैं. कथाएं भक्तिमय और प्रभु शरणम् के अनुरूप होनी चाहिए. कथा मेल करें- askprabhusharnam@gmail.com
आपकी कथा में आपको पूरा श्रेय दिया जाएगा. भक्तिमय कथाओं के अतिरिक्त अऩ्य कथाओं या किसी भी तरह के लेख को प्रकाशित नहीं किया जाएगा.

कर्दम ने श्रीविष्णु से गुणी पत्नी व श्रीहरि को पुत्ररूप का लिया वरः भागवत कथा में कर्दम व सप्तर्षियों के विवाह का प्रसंग

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शुकदेव ने परीक्षित को कथा सुनानी जारी रखी. सृष्टि निर्माण के आरंभ में ब्रह्मा की उत्पत्ति और उनका उद्देश्य बताकर, उन्होंने ब्रह्मा की संतानों के बारे में बताना शुरू किया.

मनु और शतरूपा ने ब्रह्मा के आदेश से संतान उत्पन्न किया. उनकी पांच संतानें हुई- प्रियव्रत और उत्तानपाद दो पुत्र और आकूति, देवहुति एवं प्रसूति तीन कन्याएं.

ब्रह्मा के पुत्र कर्दम परम ज्ञानी और माया से परे थे, किन्तु पिता ने सृष्टि विस्तार के लिए संतान पैदा करने का आदेश कर दिया.

पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए कर्दम ने श्रीहरि विष्णु का घोर तप किया. नारायण प्रकट हुए और वर मांगने को कहा.

कर्दम बोले- आपके दर्शन के बाद मांगने को कुछ शेष नहीं रहता फिर भी आपकी ही प्रेरणा से पिता ने संतान उत्पन्न करने का आदेश दिया है.

इसके लिए एक स्त्री चाहिए. हे श्रीहरि यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे ऐसी पत्नी के रूप में ऐसी गुणवान स्त्री दें जिसके गर्भ से स्वयं आप जन्म ले सकें.

बद्धिमान कर्दम ने एक साथ दो वर मांग लिए. उत्तम पत्नी और पुत्र के रूप में स्वयं नारायण. श्रीहरि इस बात से प्रसन्न होकर भाव विभोर हो गए.

भाव विभोर होने से उनकी आंखों से अश्रु बूंदें गिरी जिससे बिंदुसार नामक दिव्य जलाशय बना. श्रीहरि ने कहा- मनु और शतरूपा की पुत्री देवहूति से विवाह करो. मैं पुत्र रूप में आऊंगा.

उधर मनु को ईश्वर ने प्रेरणा दी कि वह देवहूति का विवाह कर्दम से कर दें. मनु पत्नी शतरूपा और बेटी देवहूती के साथ कर्दम के आश्रम आए.

अनेक वर्षों तक श्रीहरि की साधना करने के कारण कर्दम का शरीर तेजस्वी हो गया था. उनके मुखमंडल पर एक दिव्य आभा थी. देवहूति उनका रूप देखकर मुग्ध हुईं.

मनु ने कर्दम से कहा- मेरी पुत्री देवहूति ने नारद से आपके बारे में सुना है तब से वह आपसे मिलने की इच्छुक है. मैं चाहता हूं कि आप उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करें.

कर्दम बोले- जिसके रूप सौंदर्य पर मोहित होकर विश्वावसु गंधर्व अपनी चेतना खोकर विमान से गिर पड़े थे, ऐसी परम गुणवान कन्या से विवाह करना मेरा सौभाग्य है.

मैं विवाह को तो तैयार हूँ, किन्तु एक शर्त है. जब देवहूति को संतान प्राप्ति हो जाएगी उसके बाद मैं संन्यास आश्रम में जाकर तप आरंभ करूंगा.

देवहूति की सहमति पर कर्दम के साथ उनका विवाह हो गया. उसके बाद मनु और शतरूपा लौटकर उस स्थान पर आए जहां वराह अवतार श्रीहरि के शरीर से कुछ बाल गिरे थे. दोनों ने वहां यज्ञ कराया.

कर्दम फिर से अपने ध्यान आदि में लग गए और देवहूति उनकी सेवा करती रहीं. पति की सेवा में कई युग बीत गए. उनका यौवन समाप्त हो गया पर वह पति की सेवा करती रहीं.

कर्दम की समाधि खुली तो उन्हें अपनी देवहूति के वृद्धावस्था का आभास हुआ. समय के साथ वह भी वृद्ध हो रहे थे. सेवा से प्रसन्न कर्दम ने देवहूति से वरदान मांगने को कहा.

देवहूति ने उनसे संतान प्राप्ति की इच्छा प्रकट की. कर्दम ने योगशक्ति से एक ऐसा विमान बनाया जिसके अंदर पूरा नगर बसा था, जिसमे सभी सांसारिक सुविधाएं थीं.

कर्दम, देवहूति के साथ उस विमान में सवार होकर बिन्दुसार में स्नान करने गए. नारायण के अश्रुओं से बने इस तीर्थ में स्नान करते ही दोनों फिर से युवा हो गए.

यौवन को फिर से प्राप्त करने के बाद दोनों विमान में सवार हुए. विमान कई वर्षों तक अंतरिक्ष में भ्रमण करता रहा और दोनों गृहस्थ आश्रम का आनंद लेते रहे.

उसी दौरान देवहूति नौ परम तेजस्वी पुत्रियों कला, अनुसूया, श्रद्धा, हविर्भू, गति, क्रिया, ख्याति, अरूंधति और शांति की माता बनीं.

नौ कन्याओं के पैदा होने के बाद कर्दम ने कहा- नौ पुत्रियां हुईं लेकिन नारायण अभी तक नहीं आए. हमें नारायण की आराधना करनी चाहिए.

दोनों ने कई वर्षों तक व्रत उपवास से श्रीहरि को प्रसन्न करने लगे. अंततः नारायण देवहूति के गर्भ में आए. गर्भस्थ नारायण की स्तुति करने ब्रह्मा अपने साथ नौ ऋषियो को लेकर आए.

ब्रह्मा ने कर्दम को बताया कि उनके पुत्र रूप में आकर नारायण, संसार को सांख्य योग की शिक्षा देंगे और कपिल मुनि नाम से प्रसिद्ध होंगे.

ब्रह्मा ने कर्दम को कहा कि उनके साथ आए ब्राह्मणों से वह अपनी पुत्रियों का विवाह कर दें. कर्दम और देवहुति की नौ कन्याओं का विवाह नौ तेजस्वी मुनियों संग हुआ.

कला का विवाह मारीच से, अनुसूया का अत्रि से, श्रद्धा का अंगिरा से, हविर्भू का पुलत्स्य से, गति का पुलह से, क्रिया का कृतु से, ख्याति का भृगु से, अरुंधति का वशिष्ठ से और शान्ति का अथर्व से विवाह हुआ.

नौ कन्याएं अपने पतियों के संग चली गयीं. कर्दम और देवहूति अपने आश्रम में रहते हुए नारायण अवतार सुपुत्र के जन्म की प्रतीक्षा करने लगे.

कल पढ़िए देवहूति के गर्भ से नारायण रूप कपिल मुनि का जन्म और देवहूति द्वारा अपने पुत्ररूपी प्रभु से साख्य ज्ञान चर्चा.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

मित्रों, आप भी अपने एप्प में कथाएं लिख सकते हैं. कथाएं भक्तिमय और प्रभु शरणम् के अनुरूप होनी चाहिए. कथा मेल करें- askprabhusharnam@gmail.com
आपकी कथा में आपको पूरा श्रेय दिया जाएगा. भक्तिमय कथाओं के अतिरिक्त अऩ्य कथाओं या किसी भी तरह के लेख को प्रकाशित नहीं किया जाएगा.

श्रीहरि से उत्पन्न ब्रह्मा ने किया सृष्टि का आरंभ. आज भागवत कथा में मनु-शतरूपा की उत्पत्ति और ब्रह्मा के देहत्याग का प्रसंग

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शुकदेव ने राजा परीक्षित को भागवत की कथा सुनानी प्रारंभ की

श्री हरिविष्णु शेषशैया पर योगनिद्रा में लीन थे. उनकी नाभि से एक विशाल डंठल वाला कमल खिला. चौदह पंखुड़ियों वाले उस दिव्य कमलपुष्प पर आसन लगाए ब्रह्मा प्रकट हुए.

आपने चार सिर से चारों दिशाओं पर नजर रखने वाले ब्रह्मा ने कौतुहल में अपने उद्गम का केंद्र खोजा परंतु उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा. हर ओर शून्य ही दिखा.

उद्गम केंद्र की खोज करते ब्रह्मा ने कमल डंठल के भीतर प्रवेश किया. वह उसकी गहराई में समाते चले गए लेकिन उन्हें उसका कोई ओर-छोर नहीं मिला.

ब्रह्मा वापस कमल पर लौट आए. उन्हें जिज्ञासा हुई कि वह कौन हैं, कहां से उत्पन्न हुए, उनके उत्पन्न होने का उद्देश्य क्या है. इन्ही विचारों में वह ध्यानलीन हुए.

उन्हें अपने भीतर एक शब्द सुनाई दिया “तपस तपस”. ब्रह्मा ने सौ वर्षों का ध्यान लगाया. ब्रह्मा को भगवान विष्णु की प्रेरणा ध्वनि सुनाई दी.

समय बर्बाद न करो. सृष्टि की रचना के लिए तुम्हारी उत्पत्ति हुई है. इसलिए शीघ्र ही अपना कार्य आरंभ करो. ब्रह्मा ने श्रीहरि को प्रणाम कर सृष्टि निर्माण आरंभ किया.

ब्रह्मा ने अपने शरीर से कई रचनाएं कीं लेकिन उन्हें अपनी रचना पर संतोष न हुआ. सबसे पहले स्थूल जगत की रचना हुई. फिर उन्होंने चार मुनियों की रचना की.

सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमार इन चारों कुमारों ने संतान पैदा करने से यह कहते हुए मना कर दिया कि हम बालक ही रहेंगे.

सनकादि नाम से विख्यात चारों मुनि निवृति के मार्ग पर चले गए. ब्रह्मा ने उन्हें रोकने का प्रयास किया किंतु वे नहीं रूके. ब्रह्मा क्रोधित हुए तो उनकी भौहों से एक बालक निकला.

वह बालक जन्म लेते ही रोने लगा. इसलिए उसका नाम रूद्र हुआ. ब्रह्मा ने भगवान विष्णु की शक्ति से दस तेजस्वी मानस पुत्र उत्पन्न किए.

उनके नाम हुए- मारीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, पुलत्स्य, क्रतु, वशिष्ठ, दक्ष, भृगु और नारद. उन्होंने मुख से एक पुत्री वाग्देवी को उत्पन्न किया.

नारद पूर्व सृष्टि के पूर्वजन्म के आशीर्वचन से अपना सत्य स्वरुप नहीं भूले थे – तो उन्होंने श्रीहरि विष्णु की भक्ति में ही जीवन जीने का निर्णय लिया.

ब्रह्मा ने अपने शरीर के दो अंश किए. एक अंश से पुरुष और दूसरे से स्त्री प्रकट हुई. पुरुष स्वयंभावु मनु थे और स्त्री का नाम था शतरूपा. शतरूपा मनु की पत्नी बनीं.

ब्रह्मा ने मनु-शतरूपा को संतान उत्पन्न करने का आदेश दिया. चूंकि पृथ्वी रसातल में समाई हुई थी सो मनु-शतरूपा ने ब्रह्मा से पूछा कि वे और उनकी संताने कहां रहेंगी?

ब्रह्मा चिंतामग्न हो गए और अपने सृजनकर्ता श्रीहरि का स्मरण करने लगे. तभी पृथ्वी के रसातल से उद्धार के लिए श्रीहरि ब्रह्मा की नाक से वराह रूप में प्रकट हुए.

अंगूठे के आकार का वराह देखते-देखते पर्वत के समान विशाल जीव हो गया. वराह अवतार में प्रभु ने हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी को रसातल से निकाल लाए.

पृथ्वी को जल के ऊपर स्थित करके वराह अवतार श्रीहरि विलीन हो गए. मनु और शतरूपा की पांच संतानें हुई- प्रियव्रत और उत्तानपाद पुत्र हुए, आकूति, देवहुति एवं प्रसूति कन्याएं.

मनु ने आकूति का विवाह रुचि प्रजापति, देवहुति का कर्दम ऋषि और प्रसूति का दक्ष प्रजापति से किया. इन कन्याओं की संतानों से सारा संसार भर गया.

ब्रह्मा अपनी लावण्यमयी और गुणवान “वाकदेवी” पुत्री को देखकर उन पर मोहित हो गए. किन्तु निर्विकार पुत्री उनकी ओर ऐसे कोई भाव न रखती थीं.

ब्रह्मा के मारीचि आदि पुत्रों ने समझाया कि इससे पूर्व किसी ब्रह्मा ने ऐसा नहीं किया. आप सृष्टा होकर पुत्री से कामभाव रखेंगे तो सृष्टि किस दिशा में अग्रसर होगी?

अपने पुत्रों की बात से ब्रह्मा लज्जित हुए. उन्होंने तप के द्वारा तत्काल अपने शरीर का त्याग कर दिया. त्यागी हुई देह ने सब दिशाओं में भयंकर अंधकार रूप ले लिया.

ब्रह्मा ने तप के प्रभाव से पुनः शरीर धारण किया और श्रीहरि द्वारा दिए गए सृष्टि के निर्माण कार्य की सिद्धि में जुट गए.

मनु और शतरुपा की संतानों ने सृष्टि चलाने के लिए संतान उत्पन्न करना आरंभ किया. उससे पृथ्वी पर मनुष्यों का आगमन हुआ.

प्रभु शरणम् के मित्रों आप भी अपने एप्प के लिए भक्तिमय कथाएं लिख सकते हैं. कथाएं askprabhusharnam@gmail.com पर मेल करें.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

महादेव ने दिया पार्वती को अमरत्व का ज्ञान, पार्वती की जगह एक तोते ने सुन लिया सारा ज्ञानः परीक्षित को भागवत सुनाने वाले शुकदेव की कथा

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हमने श्रीभागवत में कल शुकदेव द्वारा परीक्षित को भागवत सुनाने की बात बताई थी. भागवत कथा वहीं से प्रारंभ होती है.

भागवत चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले जरूरी है यह जानना कि आखिर शुकदेव कौन थे, उन्हें भागवत का ज्ञान कहां से आया.

एक बार माता पार्वती ने भगवान शिव से ऐसे गूढ़ ज्ञान देने का अनुरोध किया जो संसार में किसी भी जीव को प्राप्त न हो. वह अमरत्व का रहस्य प्रभु से सुनना चाहती थीं.

अमरत्व का रहस्य किसी कुपात्र के हाथ न लग जाए इस चिंता में पड़कर महादेव पार्वतीजी को लेकर एक निर्जन प्रदेश में गए.

उन्होंने एक गुफा चुनी और उस गुफा का मुख अच्छी तरह से बंद कर दिया. फिर महादेव ने देवी को कथा सुनानी शुरू की. पार्वतीजी थोड़ी देर तक तो आनंद लेकर कथा सुनती रहीं.

जैसे किसी कथा-कहानी के बीच में हुंकारी भरी जाती है उसी तरह देवी काफी समय तक हुंकारी भरती रहीं लेकिन जल्द ही उन्हें नींद आने लगी.

उस गुफा में तोते यानी शुक का एक घोंसला भी था. घोसले में अंडे से एक तोते के बच्चे का जन्म हुआ. वह तोता भी शिवजी की कथा सुन रहा था.

महादेव की कथा सुनने से उसमें दिव्य शक्तियां आ गईं. जब तोते ने देखा कि माता सो रही हैं. कहीं महादेव कथा सुनाना न बंद कर दें इसलिए वह पार्वती की जगह हुंकारी भरने लगा.

महादेव कथा सुनाते रहे. लेकिन शीघ्र ही महादेव को पता चल गया कि पार्वती के स्थान पर कोई औऱ हुंकारी भर रहा है. वह क्रोधित होकर शुक को मारने के लिए उठे.

शुक वहां से निकलकर भागा. वह व्यासजी के आश्रम में पहुंचा. व्यासजी की पत्नी ने उसी समय जम्हाई ली और शुक सूक्ष्म रूप धारण कर उनके मुख में प्रवेश कर गया.

महादेव ने जब उसे व्यास की शरण में देखा तो मारने का विचार त्याग दिया. शुक व्यास की पत्नी के गर्भस्थ शिशु हो गए. गर्भ में ही इन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो प्राप्त था.

शुक ने सांसारिकता देख ली थी इसलिए. वह माया के पृथ्वीलोक की प्रभाव में आना नहीं चाहते थे इसलिए ऋषिपत्नी के गर्भ से बारह वर्ष तक नहीं निकले.

व्यासजी ने शिशु से बाहर आने को कहा लेकिन वह यह कहकर मना करता रहा कि संसार तो मोह-माया है मुझे उसमें नहीं पड़ना. ऋषि पत्नी गर्भ की पीड़ा से मरणासन्न हो गईं.

भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का ज्ञान हुआ. वह स्वयं वहां आए और उन्होंने शुक को आश्वासन दिया कि बाहर निकलने पर तुम्हारे ऊपर माया का प्रभाव नहीं पड़ेगा.

श्रीकृष्ण से मिले वरदान के बाद ही शुक ने गर्भ से निकलकर जन्म लिया. जन्म लेते ही शुक ने श्रीकृष्ण और अपने पिता-माता को प्रणाम किया और तपस्या के लिये जंगल चले गए.

व्यास जी उनके पीछे-पीछे ‘पुत्र!, पुत्र कहकर पुकारते रहे, किन्तु शुक ने उस पर कोई ध्यान न दिया. व्यासजी चाहते थे कि शुक श्रीमद्भागवत का ज्ञान प्राप्त करें.

किन्तु शुक तो कभी पिता की ओर आते ही न थे. व्यासजी ने एक युक्ति की. उन्होंने श्रीकृष्णलीला का एक श्लोक बनाया और उसका आधा भाग शिष्यों को रटाकर उधर भेज दिया जिधर शुक ध्यान लगाते थे.

एक दिन शुकदेवजी ने भी वह श्लोक सुना. वह श्रीकृष्ण लीला के आकर्षण में खींचे सीधे अपने पिता के आश्रम तक चले आए.

पिता व्यासजी से ने उन्हें श्रीमद्भागवत के अठारह हज़ार श्लोकों का विधिवत ज्ञान दिया. शुकदेव ने इसी भागवत का ज्ञान राजा परीक्षित को दिया, जिसके दिव्य प्रभाव से परीक्षित ने मृत्यु के भय को जीत लिया.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

परीक्षित को ऋंगी का शाप, सांप काटने से सात दिनों में होगी मृत्युः मोक्ष के लिए शुकदेव ने परीक्षित को दिया भागवत ज्ञान

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राजा परीक्षित ने कलियुग को स्वर्ण में निवास का स्थान दिया. कलियुग राजा के स्वर्ण मुकुट में स्थित हो गया. परीक्षित कलियुग के प्रभाव में आ चुके थे.

एक बार परीक्षित आखेट के लिए वन में गए थे. वह एक हिरण के पीछे-पीछे भागते-भागते रास्ता भटक गए. वे प्यास से व्याकुल थे.

भटकते राजा को वन में महर्षि शमीक का आश्रम दिखा. शमीक समाधि लगाए बैठे थे. परीक्षित ने ऋषि को आदरपूर्वक प्रणाम किया और जल मांगा.

समाधि में लीन शमीक को उनकी बात सुनाई ही न पड़ी. उन्होंने राजा को कोई उत्तर न दिया. परीक्षित ने बार-बार जल मांगा लेकिन ऋषि का कोई उत्तर न मिला.

थके-प्यासे राजा को लगा कि ऋषि जानबूझ कर उनका अपमान कर रहे हैं. वह क्रोध में भर गए. परीक्षित शमीक को दंड देने को तैयार हो गए.

किंतु ब्रह्महत्या का दोष ध्यान में आते ही उन्होंने विचार त्यागा. किंतु क्रोधित राजा ने वहां पड़े एक मृत सर्प को उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और लौट गए.

राजा महल पहुंचे. स्वर्णाभूषण उतारा और उन पर से कलि का प्रभाव कम हुआ तो अपने व्यवहार पर पश्चाताप हुआ. वह मुनि से क्षमा मांगने का विचार करने लगे.

उधर शमीक के पुत्र श्रृंगी को उसके मित्रों ने परीक्षित द्वारा हुए पिता के अपमान की बात सुनाई. ऋंगी आश्रम पहुंचा और पिता के गले में मृत सर्प देखकर दुखी हुआ.

ऋंगी ने परीक्षित को शाप दे दिया कि जिसने मेरे पिता के साथ ऐसा बर्ताव किया है वह आज से ठीक सातवें दिन तक्षक सांप के डंसने से मर जाएगा.

शमीक की समाधि टूटी और उन्हें सारी बातें पता चलीं. परीक्षित को मिले शाप की बात से वह बेहद दुखी थे. उन्होंने ऋंगी को इसके लिए बहुत डांटा.

शमीक ने कहा-परीक्षित जैसे धर्मरक्षक राजा को शाप देकर तुमने पृथ्वी और प्रजा का अहित किया है. शमीक ने शिष्य भेजकर परीक्षित को शाप की सूचना दी.

परीक्षित समझ गए कि उनका समय निकट आ चुका है. उन्हें संतोष था कि अपराध का दंड पृथ्वी पर ही मिल रहा है. इससे वह मरने के बाद मिलने वाले दंड से बच जाएंगे.

उन्होंने अपने पुत्र जनमेजय को राज-पाट सौंपकर जीवन के शेष सात दिन भगवान श्रीकृष्ण के ध्यान में लगाने का निश्चय करके गंगातट पर समाधि लगाई.

परीक्षित को मिले शाप की बात सुनकर अनेक ऋषि वहां पहुंचे. परीक्षित ने सभी ऋषि-मुनियों से जीवन के उद्धार का मार्ग पूछा.

परीक्षित ने पूछा- मरणासन्न पुरुष को क्या करना चाहिए. मोह-माया से मुक्ति पाने के लिए मृत्युशय्या पर पड़े व्यक्ति को किसका ध्यान और स्मरण करना चाहिए?

परीक्षित को किसी ने यज्ञ आदि करने का उपदेश दिया तो किसी ने तीर्थयात्रा का. परीक्षित को उपदेश देने व्यासपुत्र शुकदेवजी भी गंगातट पर आए.

शुकदेवजी ने कहा- परीक्षित, आपके पास बस सात दिन हैं. आप राजा नहीं हैं सो अब आपके पास धन भी नहीं है. इसलिए यज्ञ और तीर्थयात्रा संभव ही नहीं है.

मैं आपको ऐसी विधि बताउंगा जिसके करने से आपको यज्ञ और दान से भी ज्यादा पुण्य मिलेगा जिससे आपको सहज ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है.

शुकदेव बोले- अंतिम समय में भागवत कथा का श्रवण करें. भागवत की महिमा ऐसी है कि आप जाने-अंजाने में हुए अपने सभी पापों से मुक्त होकर गोलोकवासी होंगे.

परीक्षित ने पूछा- हे मुनिश्रेष्ठ! जो कथा इतनी बड़ी महिमा वाली है, जिसके सुनने से सारे पाप धुल जाते हों, क्या सात दिनों में उस कथा का वर्णन संभव है?

शुकदेव ने कहा- भागवत कथा का महात्म्य ऐसा है कि एक मुहूर्त के लिए भी भागवत कथा का श्रवण मन और भक्ति से हो तो काफी है किसी के भी लिए।

शुकदेव द्वारा राजा परीक्षित को सुनाई गई महिमामयी भागवत कथा से उनके मन के सभी कष्ट दूर हुए और प्रभुभक्ति में लीन होकर शांत मन से प्राण त्यागा.

शुकदेव द्वारा वर्णित इसी भागवत कथा का श्रवण करने से मनुष्य अपना भवलोक और परलोक दोनों सुधारकर मोक्ष प्राप्त करता है. कथा अब आरंभ होती है.
(श्रीमद् भागवत का प्रथम स्कंध समाप्त)

प्रभुभक्तों, हम आपको ईश्वर की भक्तिरस से सराबोर करने के हर संभव प्रयास कर रहे हैं. भक्ति का रस जितना ज्यादा फैले उतना ही पुण्यवाला होता है. हम विश्व के कोने-कोने में फैले हिंदुओं तक भक्ति कथाएं पहुंचाना चाहते हैं.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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कलियुग को परीक्षित ने दिया स्वर्ण में वास का आदेश, राजा के स्वर्ण मुकुट में समा गया कलियुगः भागवत में परीक्षित की कथा

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परीक्षित ने अनेक वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य किया. उनका विवाह उत्तरकुमार की पुत्री इरावती से हुआ था. परीक्षित का एक परम प्रतापी पुत्र हुआ जनमेजय.

एक बार परीक्षित सरस्वती नदी के किनारे घोड़े पर सवार चले जा रहे थे. उन्हें एक पैर पर खड़ा बैल और एक जीर्ण-शीर्ण स्थिति में गाय दिखी.

गाय और बैल आपस में बातें कर रहे थे. तीन टांगे टूटी होने के कारण बैल मुश्किल से खड़ा कराह रहा था. उसने परेशान हाल गाय को देखा तो बात शुरू की.

बैल ने गाय से पूछा- हे पृथ्वी आप इतनी दुखी और कमज़ोर क्यों हो गई हैं? क्या दुष्ट आपको सता रहे हैं या फिर श्रीकृष्ण के अपने धाम चले जाने से धर्म के कमजोर पड़ने से दुखी हैं?

गाय ने कहा- धर्मदेव, जब श्रीकृष्ण यहां थे तब उन्होंने आपका उत्थान किया, अन्याय और अधर्म का नाश किया. परंतु अब कलि के प्रभाव से धर्म का ह्रास हो रहा है.

प्रभु कृपा से सतयुग में तुम तप, पवित्रता, दया और सत्य इन चारों चरणों से युक्त थे, त्रेता में केवल तीन चरण रह गए और द्वापर में बस दो. कलियुग में एक ही चरण सत्य शेष बचा है.

कलि इसे भी मिटाने के प्रयास में लगा है. मैं इसलिए बहुत दुखी हूं कि अब मेरे ऊपर ऐसे अधर्मियों का वास होगा जो ईश्वर को नहीं स्वीकारेंगे और कहेंगे कि पृथ्वी पदार्थों से बनी एक पिंड भर है.

श्रीकृष्ण ने पापियों का संहार कराकर मेरा जो बोझ कम किया था वह फिर से बढ़ रहा है. कलियुग के प्रभाव से पापियों का बोलबाला होने वाला है. मैं इससे दुखी हूं.

गाय और बैल बात कर ही रहे थे कि तभी वहां भयावह आकृति वाला कलियुग पहुंचा और बैल का चौथा पैर (सत्य) तोड़ने का प्रयास करने लगा. बैल पीड़ा में चिल्लाया.

परीक्षित दोनों की सारगर्भित बातें बहुत देर से सुन रहे थे. उन्होंने कलियुग को बैल पर प्रहार करते देखा तो दौड़े आए और उसकी गर्दन पर तलाव रख दी.

कलि को अपनी मृत्यु सम्मुख नजर आ रही थी. इसलिए उसने पैंतरा बदला औ परीक्षित के पैर पकड़कर माफी मांगने लगा.

परीक्षित ने कलि से कहा- मैं अभिमन्यु का पुत्र हूं. यह मेरी प्रजा है. मेरे राज्य में प्रविष्ट होने का तुम्हारा साहस कैसे हुआ. निकल जाओ यहां से.

कलि ने कहा- सारी पृथ्वी पर आप ही का तो राज्य है, मैं कहाँ जाऊंगा? मुझे भी प्रभु ने ही बनाया है, और जो समय तय किया था उसके अनुसार ही मैं आया हूं.

अब मैं कहां जाऊं? आप राजा हैं. मैं प्रभु द्वारा रचित आपकी प्रजा हूं. इसलिए आपका धर्म है कि आप मेरे लिए रहने के उचित स्थान का निर्धारण करें.

परीक्षित ने विचारकर कहा- तुम्हारा वास वहां होगा जहां ईश्वर का नाम भुलाया जा चुका हो. तुम जुए, शराब, काम वासना, हिंसा, असत्य और निर्दयता में निवास करो.

कलि ने कहा- महाराज मुझे एक ऐसा स्थान बताएं जहाँ ये सब साथ हों, मैं वहीं चला जाऊँगा. परीक्षित ने कहा- स्वर्ण में यह सब है, इसलिए तुम स्वर्ण में रह सकते हो.

परीक्षित की आज्ञा से कलियुग ने तत्काल स्वर्ण में अपना घर जमाया. परीक्षित का मुकुट भी स्वर्ण का था. कलियुग के प्रवेश करने से उनका मस्तक कलि के प्रभाव से प्रभावित हो गया.

कलि के प्रभाव के कारण ही न्यायप्रिय परीक्षित ने ध्यान में लीन शमीक मुनि के गले में मृत सांप डाल दिया जो उनकी मृत्यु का कारण बना. कल परीक्षित द्वारा शमीक के अपमान और परीक्षित की मृत्यु की कथा.

निवेदनः प्रभु की प्रेरणा से इस एप्प की नींव रखकर हम इसे भक्तिरस से सराबोर करने में तन-मन से जुटे हैं.

आप कोशिश करें कि उससे पहले अपने मित्रों, रिश्तेदारों को इससे अवगत करा दें ताकि वे भागवत की कथाओं से वंचित न रहें. प्रभुनाम के प्रचार-प्रसार में यह सहयोग तो अवश्य करें.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

उत्तरा के गर्भ में समाकर श्रीकृष्ण ने की शिशु की रक्षाः भागवत कथा में परीक्षित के जन्म और पांडवों के शरीर त्याग का प्रसंग

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महाभारत युद्ध अंत की ओर पहुंच रहा था. कमलकुंड में छिपे दुर्योधन के साथ भीम का गदायुद्ध समाप्त हुआ था. श्रीकृष्ण की सहायता से भीम ने दुर्योधन को पराजित कर दिया था.

घायल दुर्योधन बस मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था. अपने पिता की हत्या से आहत द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने जब मित्र की दुर्दशा देखी तो वह बौखला गया.

अश्वत्थामा परम वीर होने के साथ ही साथ बड़ा ज्ञानी भी था लेकिन उसके मन में धधकती पांडवों से प्रतिशोध की अग्नि उसे अधर्म के रास्ते पर ले गई.

वह जानता था कि युद्धभूमि में पांडवों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता सो उसने रात के अंधेरे में सोते हुए पांडवों की हत्या की सोची.

रात्रि में अश्वत्थामा पांडव शिविर में घुस आया लेकिन उस रात वहां पांडवों के स्थान पर द्रौपदीपुत्र सो रहे थे. अश्वत्थामा को अंधेरे में वे पांडव लगे. उसने सबकी गर्दन काट ली.

द्रौपदी पुत्रों की गर्दन लेकर वह दुर्योधन के पास पहुंचा लेकिन दुर्योधन ने उन्हें पहचान लिया और अश्वत्थामा की इस तरह के कायरों जैसे कार्य की निंदा की.

द्रौपदी अपने मृत पुत्रों को देखकर विलाप करने लगीं तो अर्जुन ने प्रतीज्ञा की कि वह अश्वत्थामा की गर्दन काटकर लाएंगे जिस पर पांव रखकर द्रौपदी विलाप करेंगी.

वन में छुपा अश्वत्थामा वेद व्यासजी के पास जाकर उनसे प्रायश्चित का मार्ग पूछ रहा था कि तभी अर्जुन वहां पहुंच गए. अश्वत्थामा को मृत्यु सामने दिखी.

प्राणरक्षा का अंतिम प्रयास करते उसने ब्रह्मास्त्र चला दिया. ब्रह्मास्त्र के उत्तर में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का संधान किया और चला दिया. दोनों शक्तियों के टकराने से सृष्टि के विनाश का संकट पैदा हो गया.

वेद व्यासजी और श्रीकृष्ण ने दोनों से ब्रह्मास्त्र को वापस लेने को कहा. अर्जुन को ब्रह्मास्त्र वापस लेना आता था लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र को वापस लेना नहीं आता था.

ब्रह्मास्त्र पांडवों के वंश का नाश करने के लिए चलाया गया था. अश्वत्थामा ने कहा कि उसे ब्रह्मास्त्र की दिशा बदलनी आती है. चूंकि ब्रह्मास्त्र खाली नहीं जाता इसलिए श्रीकृष्ण ने रास्ता निकाला.

द्रौपदी के पांचों पुत्रों की हत्या हो चुकी थी और पांडवों के वंश के उत्तराधिकारी के रूप में सिर्फ अभिमन्यु का गर्भस्थ पुत्र ही बचा था इसलिए श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से ब्रह्मास्त्र की दिशा उत्तरा के गर्भ की ओर करने को कहा.

पति के बाद अपनी संतान को भी समाप्त होता देखकर उत्तरा के साथ द्रौपदी विलाप करने लगीं. दोनों ने श्रीकृष्ण से सहायता मांगी और शिशु की रक्षा करने को कहा.

कृष्ण ने लघु रूप धरा और उत्तरा की कोख में प्रवेश कर अभिमन्यु पुत्र के कवच बनकर उसकी करने लगे. कोख में ही बालक की परम परीक्षा हो चुकी थी इसलिए उसका नाम परीक्षित हुआ.

अर्जुन अश्वत्थामा को पकडकर ले आए थे और द्रौपदी के हवाले कर दिया. द्रौपदी गुरूपुत्र की हत्या करने के पक्ष में नहीं थीं. युधिष्ठिर भी इससे सहमत थे.

श्रीकृष्ण ने कहा- अश्वत्थामा नीच कर्मों पर उतारू हो चुका है. इसलिए उसके सिर पर मणि सुशोभित नहीं होता. अर्जुन ने उसके माथे पर चमकती मणि उतार ली और उसी अवस्था में छोड़ दिया.

युद्ध समाप्त होने पर श्रीकृष्ण द्वारका लौटे. विदुर के परामर्श पर धृतराष्ट्र और गांधारी जीवन का अंतिम समय वानप्रस्थ में काटने को वन चले गए. कुंती भी उनके साथ गईं.

युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया. युद्ध के रक्तपात से सभी का मन व्यथित था. अश्वमेध के बाद श्रीकृष्ण के साथ अर्जुन भी द्वारका गए थे.

काफी समय बाद जब वह लौटे तो उन्होंने पांडवों को द्वारका के जलमग्न होने और श्रीकृष्ण के अपने धाम लौटने की बात बताई. युधिष्ठिर ने राजपाट परीक्षित के हवाले किया और शरीर त्यागने के लिए उत्तर दिशा में चले गए.

परीक्षित को कलियुग के दर्शन हुए जो जीवहत्या कर रहा था. उन्होंने उसे दंड देने का निश्चय किया और फिर वह उनके मुकुट में प्रवेश कर गया.

कलियुग ने परीक्षित से अनुचित कार्य कराया और फिर मोक्ष के लिए उन्हें शुकदेव ने भागवत कथा सुनाई. यह प्रसंग कल.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

नारद ने वेद व्यास को सुनाई अपने पूर्वजन्म की कथा, व्यासजी को मिली श्रीमद् भागवत रचना की प्रेरणाः भागवत कथा शृंखला में ग्रंथ की उत्पत्ति की कथा

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नारद के पूर्वजन्म और श्रीमद्भागवत की रचना की कथा.

पराशर मुनि और सत्यवती के पुत्र व्यासजी त्रिकालदर्शी थे. उन्होंने ध्यान लगाकर संसार के प्राणियों के मन में झांका तो मानव हृद्य शोक औऱ विषाद से भऱा नजर आया.

लोगों के हृद्य में नास्तिकता का वास हो रहा था. वे किसी न किसी अभाव से ग्रस्त हो रहे थे. अपना हित साधने के लिए उचित-अनुचित का अंतर नहीं कर रहे थे.

व्यासजी का मन इससे व्यथित हुआ. उन्होंने भाग्यहीन होते जा रहे मानवों के भाग्य की वृद्धि के लिए यज्ञ संस्कारों को सरल बनाकर वेदों को चार भागों में बांटा.

पांचवें वेद के रूप में उन्होंने पुराण की रचना की. जिसके खंड होते चले गए. लेकिन व्यासजी के मन की चिंता फिर भी पूरी तरह दूर नहीं हुई.

सरस्वती नदी के किनारे बैठकर व्यासजी इसी विचार में खोए थे कि वहां ब्रह्मर्षि नारदजी की आगमन हुआ. नारदजी ने व्यासजी की चिंता का कारण पूछा.

व्यासजी ने नारदजी को कहा- ऋषिवर कलि के प्रभाव से मानव के मन में जो दुख पैदा होगा, उससे रक्षा के लिए मैंने ज्ञान को चार वेदों में डालकर मानव के समक्ष रखा.

वेद पाठ में सभी समर्थ नहीं होंगे यह समझते हुए वेदों के ज्ञान को सरल रूप में उपनिषदों में दिया. जीवन के कर्मों के लक्षण और फल दर्शाता महाभारत लिखा.

फिर भी मुझे लगता है कि मानव कल्याण के निमित्त मैंने जो रचनाएं कीं, वह अभी अपूर्ण है. देवर्षि, मेरा मार्गदर्शन करें कि मेरी रचना में कहां कमी रह गई?

नारदजी ने कहा- आपकी रचनाएं अद्भुत, सराहनीय और संग्रहणीय हैं. फिर भी आपको ऐसी अनुभूति इसलिए होती है क्योंकि आपका उद्देश्य अभी भी अधूरा ही है.

व्यासजी की प्रार्थना पर नारदजी ने बताया- आपने श्रेष्ठ ग्रंथों की रचना कर दी किंतु उसमें भक्तिरस का संचार नहीं किया. इस ज्ञानभंडार में श्रीकृष्ण की भक्ति मिला कर देखें सारी चिंता दूर हो जाएगी.

वेद व्यासजी ने पूछा- देवर्षि आप समस्त संसार में नारायण नाम का स्मरण करते घूमते रहते हैं इसका क्या कारण है. विश्व के कल्याण के लिए यह मुझे बताइए.

नारदजी ने कहा- इसे समझने के लिए मेरे पूर्वजन्म की कथा जाननी पड़ेगी. व्यासजी चकित स्वर में बोले- आप तो ब्रह्मा की संतान हैं. भला आपका पूर्वजन्म कैसे हुआ?

नारदजी ने मुस्कुराए. उन्होंने व्यासजी से कहा- इस सृष्टि से पूर्व भी सृष्टि थी. मैं आपको अपने पूर्वजन्म की कथा सुनाता हूं.

पूर्वजन्म में मैं एक दरिद्र माता का इकलौता पुत्र था. मेरी माता ऋषियों के आश्रम में सेविका का काम करती थीं.

चातुर्मास के समय जब वैष्णव भक्त आश्रम में आते थे तब मैं भी उनकी सेवा में लग जाता था.पूरी तन्मयता से भक्तों की सेवा करता था. इससे वे मुझसे प्रसन्न रहते थे.

उन वैष्णव भक्तों को मुझसे बहुत स्नेह हो गया. उनकी भक्ति कथाएं सुनते-सुनते मेरे मन में भी श्रीविष्णुजी के प्रति अनंत भक्ति पैदा हो गई थी.

मैं भी प्रभु की कथाएं गाकर लोगों को सुनाया करता था. चतुर्मास के बाद ब्राह्मण जाने लगे तो मुझे बड़ी वेदना हुई.

मुझे लगा कि कहीं मैं श्रीकृष्ण भक्ति से अलग न हो जाऊं. उन ब्राह्मणों ने मुझे साथ ले जाना चाहा लेकिन माता की कल्पना आने के कारण मैं जा नहीं सका.

उनके जाने के बाद मैं प्रभु वियोग की कल्पना से सिहर उठा और रोने लगा. इसी बीच मेरी माता के पांव एक सर्प पर पड़ गए. सर्पदंश से उनकी मृत्यु हो गई.

माता से बिछोह के बाद मैं विचलित होकर वन की ओर निकल गया. भटकता हुआ मैं हरिनाम का स्मरण करता था. अंततः प्रभु की प्रेरणा हुई और मैं एक वन में ठहरा.

वहां मुझे ज्ञान हुआ कि हमें जीवन प्रभु सेवा के लिए मिला है. प्रभुनाम के अतिरिक्त हर चीज मेरी माता की तरह नश्वर है. मैंने स्वयं को प्रभुभक्ति में समर्पित कर दिया.

वह जीवन मैंने भक्तिमय होकर गुज़ारा और क्षीर सागर की तरफ आया. प्रलय के समय में मैं प्रभु नाम का स्मरण करता ब्रह्मदेव में लीन हो गया.

सहस्त्र चतुर्युगी के बाद जब ब्रह्मदेव ने नई सृष्टि की रचना आरंभ की तो मैं भी मरीचि आदि ऋषियों के साथ उनके मानसपुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ.

मुझे प्रभु कृपा से पूर्वजन्म का स्मरण था. इसलिए मैंने अपने इस जन्म में कोई भी समय व्यर्थ न करते हुए हरिनाम का गुणगान आरंभ कर दिया. समस्त लोकों में नारायण नाम लेता फिरता हूं.

नारदजी ने वेदव्यासजी को कहा कि वह श्रीहरि की भक्ति से ओत-प्रोत एक महापुराण की रचना करें इससे उनके मन को शांति मिलेगी और जनकल्याण होगा.

नारदजी की प्रेरणा से वेदव्यासजी ने श्रीमद् भागवत महापुराण की रचना आरंभ की. जीवन के सभी कष्टों के निवारण का रहस्य बताने वाले इस ग्रंथ के पाठ से मानव का कल्याण होता है.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

नारायण नाम उच्चारण से नरक के भागी अजामिल को मिला स्वर्ग- श्रीमद् भागवत कथा में अजामिल की कथा

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अजामिल एक धर्मपरायण गुणी समझदार और विष्णुभक्त था. माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्र ने किशोरावास्था तक वेद-शास्त्रों का विधिवत अध्ययन कर लिया.

युवावस्था में प्रवेश करते ही एक दिन उसके साथ ऐसी घटना घटी कि उसका पूरा जीवन परिवर्तित हो गया.

पिता के आदेश पर आजामिल एक दिन पूजा के लिए वन से उत्तम फल और फूल लेकर लौट रहा था. रास्ते में उसे एक बाग में भील के साथ सुंदर युवती दिखी.

दोनों एक दूसरे से प्रेम कर रहे थे. अजामिल ने खुद को उसे देखने से रोका लेकिन दैवयोगवश वह उस युवती का रूप निहारने लगा.

उस स्त्री की नजर भी अजामिल पर पड़ी और वह भी उस पर मोहित हो गई. स्त्री ने अजामिल को पास बुलाया और अपने मन की बात कह दी.

अजामिल तो मोहित था ही, स्त्री से मिले प्रेम निमंत्रण से तो उसका दिमाग और मन पर नियंत्रण ही नहीं रहा. रूपजाल में फंसा अजामिल अपने संस्कार तक भूल गया.

उसने पूजा के लिए रखे फल-फूल वहीं फेंक दिए और युवती के साथ प्रेम में मगन हो गया. फिर उस स्त्री को लेकर वह घर चला आया.

पिता पूजा में विघ्न पड़ने से नाराज तो थे ही, अजामिल को एक आचरणहीन स्त्री के साथ देखकर भड़क उठे और खरी-खोटी सुनाने लगे.

अजामिल ने कहा उसने गंधर्व विवाह कर लिया है. पिता ने उसे धर्म-कर्म का लाख हवाला दिया परंतु नारी रूप पर आसक्त अजामिल को कहां समझ आना था.

क्रोधित पिता इस धृष्टता का दंड देने के लिए उठे लेकिन अजामिल ने उन्हें जमीन पर पटक दिया. फिर उसने पिता को धक्के मारकर घर से निकाल दिया.

लोकलज्जा, कर्म और संस्कार तो भूल ही चुका था, स्त्री की जरूरतें पूरी करने के लिए अजामिल चोरी, डकैती, लूटपाट करता. मदिरापान और जुए की लत पड़ गई थी.

उसे बुरे कर्मों में ही संतुष्टि मिलने लगी. उस स्त्री से अजामिल को नौ पुत्र संताने हुईं. दसवीं बार उसकी पत्नी गर्भवती हुई.

एक दिन कुछ सन्तों का समूह उस ओर से गुजर रहा था. रात्रि अधिक होने पर उन्होंने उसी गांव में रहना उपयुक्त समझा जिसमें अजामिल रहता था.

संतों ने गांव वालों से भोजन और ठहरने का प्रबंध करने को कहा तो गांव वालों ने मजाक बनाते हुए साधुओं को अजामिल के घर का पता बता दिया.

संत अजामिल के घर पहुंच गए. उस समय अजामिल घर पर नहीं था. गांव वालों ने सोचा था कि ये साधु अजामिल के द्वार पर अपमानित होंगे और इधर कभी न आएंगे.

संतों की मण्डली ने अजामिल के द्वार पर जाकर राम नाम का उच्चारण किया और खाने को मांगा. उसकी पत्नी हाथ में कुछ दक्षिणा लेकर बाहर आई.

वह साधुओं से बोली- आप ये सामग्री लेकर यहाँ से शीघ्र निकल जायें. अजामिल आता ही होगा. उसने देख लिया तो आप लोगों को परेशानी हो जाएगी.

साधुओं ने भोजन की सामग्री ली उसके घर के पास एक वृक्ष के नीचे भोजन बनाने लगे. वे समझ गए कि समय के फेर से अजामिल कुसंस्कारी हो गया है.

जाने से पहले सन्त पुन: अजामिल के घर पहुंचे. उन्होंने आवाज़ लगाई तो अजामिल की स्त्री बाहर आई. सन्तों ने कहा- तुम अपनी संतान का नाम नारायण रखना.

अजामिल को दसवीं संतान के रूप में एक पुत्र हुआ. संतों के कहने पर अजामिल की स्त्री ने उसका नाम ‘नारायण’ रख दिया. नारायण सभी का प्रिय था।

अजामिल स्त्री और अपने पुत्र के मोह जाल में जकड़ा रहा. धर्म-कर्म तो कब का त्याग चुका था. कुछ समय बाद उसका अंत समय भी नजदीक आ गया.

भयानक यमदूत उसे लेने आए. भय से व्याकुल अजामिल ने नारायण! नारायण! पुकारा. भगवान का नाम सुनते ही विष्णु के पार्षद तत्काल वहां पहुंचे.

यमदूतों ने जिस रस्सी से अजामिल को बांधा था, पार्षदों ने उसे तोड़ डाला. यमदूतों के पूछने पर पार्षदों ने कहा कि नारायण नाम के प्रभाव से यह श्रीहरि का शरणागत है.

यमदूतों ने कहा कि यदि हमने अपना कार्य पूरा न किया तो धर्मराज का कोप झेलना पड़ेगा. इस व्यक्ति ने जीवनभर बुरे कर्म किए हैं. इसे घोर नर्क में स्थान मिला है.

पार्षदों ने कहा- किंतु जब तुम इसे पकड़ने आए तो यह नारायण नाम का स्मरण कर रहा था. प्रभु के आदेश पर हम प्रभुनाम जपने वालों की सहायता करते हैं.

यमदूतों ने बताया कि यह प्रभुनाम का स्मरण नहीं कर रहा था बल्कि हमारे भय से अपने पुत्र को पुकार रहा था. दोनों पक्षों में बहस चलती रही.

पार्षदों ने कहा- अंत समय में इसने नारायण नाम लिया है इसलिए इसे नरक नहीं ले जा सकते. यमदूत गए और उन्होंने धर्मराज को सारी बात बताई.

धर्मराज ने कहा- श्रीहरि के दूतों के दर्शन के कारण इसे एक वर्ष की जीवन स्वतः ही मिल गया. अब इस एक साल के कर्मों के आधार पर इसकी गति तय होगी.

अजामिल को एक साल मिल गया था. वह धर्मपरायण हो गया. प्रभु नाम का जाप करना और धर्म-कर्म यही उसका काम था. जीवन के शेष दिन उसने सत्संग में बिताए.

एक साल पूरे होने पर यमदूत फिर आए लेकिन इस बार उन्होंने उसे अपमानित करते हुए रस्सी में नहीं बांधा बल्कि सम्मान के साथ विदाकर स्वर्ग ले गए.

श्रीमद भागवत की यह कथा बताती है कि ईश्वर का मार्ग ही मोक्ष का मार्ग है. अंततः ईश्वर के ही पास जाना है. तय करना होगा कि यमदूत हमें रस्सियों में बांधकर घसीटते हुए ले जाएं या सम्मान के साथ प्रभु शरण प्राप्त हो.

संकलन व संपादन: प्रभु शरणम्

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भागवत सुनाकर गोकर्ण ने धुंधुकारी को दिलाई प्रेत योनि से मुक्ति, भागवत कथा महात्म्य में गोकर्ण प्रसंगः दूसरा और अंतिम भाग

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पहले भाग में आपने पढ़ा- संतानहीन आत्मदेव को संतान के लिए ब्राह्मण ने एक दिव्य फल दिया लेकिन उसकी दुष्ट पत्नी ने उसे गाय को खिला दिया और अपनी बहन के बेटे धुंधुकारी को अपना बेटा बताकर रख लिया.

गाय से तेजस्वी बालकर गोकर्ण का जन्म हुआ. आत्मदेव ने उसे भी पुत्र की तरह पाला. धुंधुकारी कुसंगति में पड़कर सभी अनैतिक कर्म करने लगा. इस दुख से आत्मदेव की मृत्यु हो गई. अब आगे-

आत्मदेव के निधन के बाद धुंधुकारी पहले से ज्यादा उन्मुक्त और स्वतंत्र हो गया. उसके उपद्रव तथा धन के लिए प्रताड़ित करने से दुखी धुंधुली ने कुंए में कूदकर प्राण त्याग दिए.

माता-पिता नहीं रहे तो गोकर्ण भी तीर्थयात्रा पर निकल गया. परम स्वतंत्र धुंधुकारी अब सदा वेश्याओं के साथ विलास में डूबा रहता था. व्यभिचार और कुकर्मों से उसकी बुद्धि नष्ट हो गई.

वेश्याएं धुंधुकारी से ज्यादा से ज्यादा धन लूटने लगीं. उवनकी इच्छाएं पूरी करने के लिए एक बार धुंधुकारी ने राजमहल में बड़ी चोरी की.

राजकोष का धन और आभूषण देखकर वेश्याओं ने सोचा कि यदि चोरी का भेद खुल गया तो राजा के सिपाही धुंधुकारी के साथ-साथ उन्हें भी कारागर में डाल देंगे.

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पुण्यात्मा गोकर्ण ने अपने भाई को दिलाई प्रेत योनि से मुक्तिः भागवत महात्म्य कथा में गोकर्ण प्रसंग भाग-1

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भागवत महापुराण की कथा शृंखला बीच में रूक गई थी. आज से वह पुनः आरंभ हो रही है. हम अब तक की प्रकाशित सभी भागवत कथाओं को एक बार फिर से दे रहे हैं.

इस तरह जो लोग नए जुड़े हैं वे इसे पढ़ सकेंगे और जो पुराने हैं उनका तारतम्य बना रहेगा. आज 10 कथाएं एक साथ हैं. प्रतिदिन एक-एक कथा दी जाएगी. जल्द ही पुरानी कथाएं पूर्ण हो जाएंगी तो नई कथाओं का आरंभ होगा.

तुंगभद्रा नदी के तट पर बसे एक सुन्दर नगर में आत्मदेव नाम का एक धर्मपरायण ब्राह्मण रहता था. उसका विवाह धुंधुली नामक एक उच्च कुल की सुन्दर कन्या से हुआ था.

धुंधुली रूप में जितनी सुन्दर थी, स्वभाव से उतनी ही दुष्ट, लोभी, ईर्ष्यालु व क्रूर. झगड़ालू पत्नी के साथ भी आत्मदेव की गृहस्थी सन्तोषपूर्ण चल रही थी.

विवाह के कई वर्ष बीत जाने के बाद भी दोनों को सन्तान नहीं हुई. सभी तरह के पूजा- हवन कराके देख लिए आत्मदेव के संतान न हुई.

समाज से मिलने वाले ताने के कारण हताश आत्मदेव ने प्राण त्यागने की मंशा से अपना घर छोड़कर निकल गया. वह एक सरोवर के किनारे पहुंचे.

उसी के किनाने दुखी हृदय से बैठ गए. तभी एक तेजस्वी सन्यासी वहाँ से गुजर रहे थे. आत्मदेव को इस प्रकार दुःखी देखकर उन्होंने चिन्ता का कारण पूछा.

परमात्मा कौन है, उनका आदिस्वरूप क्या हैः एक विचारोत्तेजक आलेख

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सभी आदरणीय प्रभुभक्तों को प्रभु शरणम् अभिवादन! आपके लिए दो सूचनाएं लेकर आया हूं. पहली, हम जल्द ही तीर्थाटन शृंखला आरंभ करने वाले हैं. इस शृंखला में हिंदू धर्मों के प्रसिद्ध और किंचित कारणों से प्रसिद्धि में पीछे रह गए तीर्थस्थानों का महात्म्य और उससे जुड़ी सारी सूचनाएं लेकर आएंगे.

गर्मियां आ रही हैं. आप घूमने जाएं तो आसपास मौजूद हिंदुत्व के किसी अद्भुत स्थान का दर्शन करने का लाभ प्राप्त करने से वंचित न रह जाएं, यही इसका उद्देश्य है.

उस पवित्रस्थल के दर्शन से जुड़ी सभी छोटी-बड़ी सूचनाएं होंगी. एप्प में चैट का विकल्प शुरू करने के पीछे एक उद्देश्य यह भी था. रविवार को खाटू धाम की यात्रा का विवरण प्रस्तुत करेंगे. आप उसके आधार पर अपने आस-पास के तीर्थस्थलों के बारे में बताएं. हम उसे आपके नाम से प्रकाशित करेंगे.

दूसरी सूचना, आपकी मांग पर हम अब शिवजी की कथाओं की सीरिज आरंभ करने जा रहे हैं. एकादश रूद्र शिव की कथाओं से शुरुआत होगी. उसके बाद शिव पुराण व अन्य पुराणों की कथाएं आएंगी. आप लोग कथाओं का आनंद लीजिए और दूसरों को भी एप्प से जोड़िए.

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यक्ष-युधिष्ठिर संवादः यक्ष ने युधिष्ठिर से जो प्रश्न पूछे थे, वे जीवन का मर्म हैं, जीवनोपयोगी हैं.

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मित्रों, महाभारत की नीति कथाएं प्रतिदिन आपको सुना रहा हूं, आप इसे पसंद भी कर रहे रहे हैं. कई लोगों ने यक्ष-युधिष्ठिर संवाद देने की इच्छा जाहिर की. संवाद व्यापक है. आज उस संवाद के वे प्रश्न दे रहा हूं जिनका आज के जीवन में हमारे साथ सरोकार है. प्रभु का नाम लेकर आनंद लीजिए.

पांडव बनवास काट रहे थे. धर्म को पता था कि युद्ध होकर रहेगा. वह पांडवों की तैयारी आंकना चाहते थे. उन्होंने युधिष्ठिर की परीक्षा लेने की सोची और हिरण का रूप धरकर वहां पहुंचे जहां पांडव निवास कर रहे थे. हिरण पड़ोस की कुटिया में गया और आग जलाने वाली अरणी को सींग में फंसाकर ले भागा.

ब्राह्मण युधिष्ठिर के पास आए और उनसे कहा कि हिरण से अरणी (आग जलाने की लकड़ी) वापस पाने में मदद करें. सभी पांडव हिरण को खोजने निकले. उसका पीछा करते वे थक गए और प्यास लग गई. एक जगह थककर बैठ गए.

युधिष्ठिर ने नकुल से कहा कि आसपास देखो कहीं कोई जलाशय हो तो पीने के पानी का इंतजाम करो. नकुल को एक जलाशय दिखा. नकुल उसमें पानी पीने उतरे. तभी एक आवाज आई- यह जलाशय मेरा है. अगर पानी पीना है तो पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो.

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कैसा रहेगा आपका यह सप्ताहः साप्ताहिक राशिफल (20 अप्रैल से 26 अप्रैल)

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मेषः
सूर्य, बुध और गुरू की युति बन रही है इस कारण यह सप्ताह आपके लिए प्रसन्नता भरा रहेगा. कुछ नई शुरुआत के लिए समय अच्छा है. आपके रूके हुए कार्यों में अचानक तेजी आ सकती है इससे आपका आत्मबल बहुत बढ़ेगा. सप्ताह के मध्य में आपकी सुख-समृद्धि या ऐश्वर्य में वृद्धि होगी. कोई प्रिय वस्तु उपहारस्वरूप प्राप्त हो सकती है या उसे खरीदने में सफल हो सकते हैं. विद्यार्थियों के लिए भी समय बहुत अच्छा है. एडमिशन आदि चीजों के लिए प्रयास कर रहे हैं तो आपकी मेहनत सफल रहेगी. सप्ताह के मध्य में व्यापार में थोड़ी गिरावट हो सकती है, कुछ लेन-देन का चक्कर फंसेगा या सरकारी पक्ष से कोई अड़चन आएगी लेकिन यह सब अस्थाई है. दो-तीन दिनों में इसमें सुधार होने लगेगा. जिनके प्रेम संबंध चल रहे हैं उन्हें दूरी बनाए रखनी चहिए क्योंकि कोई बड़ा विवाद होने वाला है. विवाहित लोगों का दांपत्य जीवन अच्छा रहेगा. कोई छोटी यात्रा भी हो सकती है. सप्ताह के अंत में लीवर या पेट में इंफेक्शन जैसी परेशानी हो सकती है. इसलिए पानी का विशेष रूप से ध्यान रखें. हनुमानजी की आराधना करें.

वृषः
सप्ताह का आरंभ प्रसन्नता भरा रहेगा. घर-परिवार के लोगों का सहयोग मिलने से मन उल्लास से भरा होगा लेकिन सप्ताह के मध्य में आमदनी में गिरावट होने या आय के किसी स्रोत में अचानक कोई बाधा आने से आप तनाव में आ सकते हैं. इसलिए किसी खर्च की योजना बना रहे थे तो थोड़ा रूक जाइए अभी समय इसके अनुकूल नहीं है. सप्ताह के अंत में आय की स्थिति में कुछ सुधार भी होगा. ग्रहों की स्थिति आपको विवाद के लिए बार-बार उकसाएगी क्योंकि शत्रु भी आपके प्रबल हुए हैं. यदि आपने विवाद से बचने के लिए अतिरिक्त प्रयास नहीं किया तो आप संकट में आने वाले हैं. शनि की दृष्टि के कारण आप जल्दबाजी में रहेंगे और इसी में अपशब्दों का प्रयोग कर देंगे. नौकरीपेशा लोगों के लिए खासरूप से सतर्क रहना है, विवाद किया या काम में लापरवाही की तो नौकरी संकट में है. प्रोफेशन्लस के लिए भी समय बहुत उत्साहवर्धक नहीं है. विद्यार्थियों के लिए समय अच्छा है. उन्हें अपेक्षित परिणाम मिल सकते हैं. आपका मन आपको नशे की ओर ले जाएगा लेकिन उससे बचिएगा जरूर. आपके लीवर पर दिक्कत के संकेत मिल रहे हैं. सुख की बात है कि जीवनसाथी का भरपूर सहयोग मिलेगा. शिवजी को जल चढ़ाकर संकट हरने की विनती करें.

मिथुनः

आपके लिए भी यह सप्ताह मिले-जुले असर वाला रहेगा. आप कहीं से कोई धन प्राप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं और इस तनाव में सप्ताह के शुरुआती दिन बीतेंगे लेकिन सप्ताह के मध्य यानी बुधवार से काफी सुधार के योग बन रहे हैं. इसलिए आपकी चिंता दूर भी हो सकती है. किसी भी ऐसे कार्य से जिसमें कोर्ट कचहरी का चक्कर होता है उससे जहां तक संभव हो बचकर निकलने की कोशिश करें. चंद्रमा के प्रभाव के कारण आपको अपने विरोधियों को लेकर लापलवाह हो सकते हैं और वे आपका नुकसान करने के लिए मौके की प्रतीक्षा में हैं. इसलिए उन्हें मौका न प्रदान करें. आपको बहुत गोपनीयता बनाए रखनी है, यदि जरूरत न हो तो बोलना ही नहीं है, संकेत की भाषा का ही प्रयोग करना है. संतान पक्ष से कुछ अच्छी सूचना मिल सकती है. शुक्रवार, शनिवार और रविवार को मन बहुत प्रसन्न रहेगा. माता पक्ष से कोई अच्छी खबर मिलेगी. व्यापारी बंधुओं को काम में अड़चनें आ सकती हैं. लेन-देन में आपके साथ छल की भी आशंका है इसलिए लेन-देन का काम पक्का वाला होना चाहिए. विद्यार्थियों के लिए समय आनंददायक है. दांपत्य जीवन और प्रेम संबंधों के लिए भी समय अच्छा है. गणपति स्तोत्र का पाठ करें और गणेशजी को दूर्वा चढ़ाएं.

कर्कः
बृहस्पति का गोचर एवं मंगल की पूर्ण दृष्टि प्राप्त हो रही है. दोनों मिलकर आनंद का संयोग बना रहे हैं. यदि कोई कार्य शुरू करने की योजना बना रहे थे तो समझ लीजिए कि सही समय आ गया है, आगे बढ़िए. आप जिस भी कार्य को मन से प्रारंभ करेंगे उसमें सफलता की काफी संभावना है. बस मन को चंचल नहीं होने दें. हर ओर से अनुकूल स्थिति बनती दिखाई दे रही है. आमदनी बढ़ने वाली है. जो लोग प्रोफेशनल कार्य करते हैं उनकी आय बढ़ने वाली है, नए प्रोजेक्ट मिल सकते हैं. नौकरीपेशा लोगों को नौकरी में प्रमोशन मिल सकता है. विद्यार्थियों के लिए भी समय बहुत अनुकूल है. यदि किसी परीक्षा आदि में बैठ रहे हैं तो समय आपका साथ दे रहा है. व्यापारियों के लिए भी समय अच्छा है. कोई बड़ी डील हो सकती है या उस दिशा में बात आगे बढ़ सकती है. स्वास्थ्य के पक्ष से चिंता रहेगी. सिर में दर्द और रक्तचाप जैसी परेशानी हो सकती है जिससे आप तनावग्रस्त हो सकते हैं. प्रेम संबंधों के लिए समय अच्छा नहीं है इसलिए इसमें दूरी बनाकर ही रखें. जो लोग विवाह के इच्छुक हैं उन्हें विवाह के प्रस्ताव भी आएंगे. पति-पत्नी के बीच दांपत्य जीवन बहुत मधुर रहेगा. भोलेनाथ को जल या मिश्री के साथ दूध चढ़ावें तो सौभाग्य में और वृद्धि होगी.

सिंहः

शनि की दसवें भाव में दृष्टि है इस कारण आपकी बहुत भागदौड़ या अचानक कोई यात्रा हो सकती है. सप्ताह के आरंभ में आय की स्थिति आपके मन और परिश्रम के अनुसार नहीं होगी लेकिन सप्ताह के मध्य से स्थिति में कुछ बदलाव आएगा और आपको संतुष्टि मिलेगी. स्त्री पक्ष से सुख है यानी कार्यस्थल पर किसी स्त्री के सहयोग से आपकी कई परेशानियों से राहत मिल सकती है. घर में पत्नी के सहयोग से वातावरण अनुकूल होगा. आपके मान-सम्मान में स्त्री के सहयोग से वृद्धि हो सकती है. आपको कुछ नई जिम्मेदारियां भी मिल सकती हैं, इससे आपका प्रभाव बढ़ेगा लेकिन चंद्रमा के बारहवें भाव में होने से आपके मन में कोई चिंता या शंका भी साथ-साथ चलती रहेगी इस कारण आपका उसका भरपूर आनंद नहीं उठा पाएंगे. आपमें प्रबंधन की क्षमता की वृद्धि होगी जिससे आप काम कराने में सहज महसूस करेंगे साथ ही प्रशंसा भी प्राप्त करेंगे. प्रोफेशनल कार्यों के लिए भी समय अच्छा है. व्यापार के लिए भी समय ठीक-ठाक ही है. पठन-पाठन के कार्यों में बाधा हो सकती है. विवाहित लोगों का दांपत्य सुख उत्तम है. सिर में दर्द की शिकायत हो सकती है. सौभाग्य में वृद्धि के लिए सूर्य को जल दें.

कन्याः
आपके लिए सप्ताह मिले-जुले फल वाला रहेगा. किसी भी कार्य को आरंभ करने से पहले खूब सोच विचार कर लें, यदि थोड़ा भी जोखिम नजर आता है तो उसे टाल दीजिए. आपका शत्रुपक्ष प्रबल हुआ है और उसे आपकी चूक की प्रतीक्षा है. इसलिए किसी की बात पर भी आंख मूद कर भरोसा न करें. गोपनीयता भंग करने के कारण सप्ताह के मध्य में आपके कई काम पूरे होते-होते रूक सकते हैं. इसका ध्यान रखें. सप्ताह के अंत में स्थिति सुधरेगी. किसी करीबी जन की बीमारी के कारण आपकी भागदौड़ रहेगी और खर्च भी बढ़ सकता है. प्रोफेशनल लोगों को काम में बहुत उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकता है. उसकी तरह व्यापार में भी अनिश्चितता की स्थिति रहेगी. आपको धैर्य रखना है क्योंकि शनिवार तक स्थितियां सुधर सकती हैं. संतान के साथ मन-मुटाव हो सकता है. विद्यार्थियों का पढ़ाई से मन उचटेगा. लेखन कार्य में जुड़े लोगों के लिए समय अच्छा है. पति-पत्नी के बीच संबंध मधुर रहेंगे. कोई पुराना प्रेम संबंध फिर से आपके मन में दस्तक दे सकता है. पेट की परेशानी से भी आपकी चिंता कुछ बढ़ेगी. शिवजी की शरण में जाएं तो कल्याण होगा.

तुलाः

समय संकेत कर रहा है कि अपने बुद्धि-विवेक का पूरा प्रयोग करें और बहुत फूंक-फूंककर कदम रखना है. आपसे कुछ गलत निर्णय हो सकते हैं इसलिए निर्णय से पहले खूब विचार कर लें. किसी अपरिचित पर अंधा विश्वास करने से बचें क्योंकि किसी निकटवर्ती से छल की आशंका है. संभव हो तो पूरे सप्ताह मौन व्रत जैसा ही रख लें. बिना जरूरत एक शब्द नहीं बोलना है और जितना संभव हो बोलने से बचें क्योंकि आपकी बात का उल्टा तात्पर्य लगाया जा सकता है. नौकरीपेशा लोगों को विशेष ध्यान रखना है. सप्ताह के मध्य में अधिकारियों के साथ विवाद की स्थिति बन सकती है और इस कारण नौकरी पर भी संकट होगा. आप पर कोई कार्रवाई भी की जा सकती है. इसलिए क्रोध पर नियंत्रण रखते हुए यह सप्ताह काट लें. महिलाओं के लिए यह सप्ताह अतिरिक्त व्यस्तता वाला रहेगा. नौकरीपेशा हैं तो अचानक बहुत से कार्य मिल जाएंगे और उसे शीघ्र पूरा करने का दबाव बनेगा. धैर्य बनाए रखिएगा रक्तचाप और सांस की परेशानी से जूझ रहे लोगों के लिए ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है. विद्यार्थियों के लिए समय अच्छा है. पति-पत्नी के बीच किसी बात को लेकर जबरदस्त गलतफहमी हो सकती है, ऐसे संकेत है इसलिए आपसी बातचीत में सूझ-बूझ रखें. विवाहित लोगों को सुझाव है कि तत्काल राधाकृष्ण की एक तस्वीर या प्रतिमा ऐसे जगह पर लगा दें जहां आपकी बार-बार दृष्टि पड़े. ऊं नमो भगवते वासुदेवाय का जप करें, लाभ होगा.

वृश्चिकः
गुरु, शुक्र और मंगल की दृष्टि तथा शनि के गोचर के कारण सप्ताह अनुकूलता भरा रहेगा. आपको कोई अच्छी सूचना भी मिल सकती है जिससे मन प्रसन्न होगा और आत्मविश्वास बढ़ेगा. आप यदि कोई प्रोजेक्ट आरंभ करना चाह रहे थे तो उसके लिए यही सही समय है. उसमें आपको लोगों का साथ मिलेगा और काम स्वतः ही आगे बढ़ने लगेंगे. कोई संपत्ति की खरीद भी हो सकती है. कोर्ट-कचहरी के मामले में आपको लाभ मिल सकता है. आर्थिक स्थिति अच्छी रहेगी, आय के नए साधन बनते नजर आ सकते हैं. व्यापारियों को कोई व्पापारिक यात्रा करनी पड़ सकती है जो लाभदायक सिद्ध होगी. विद्यार्थियों को सफलता के लिए अतिरिक्त परिश्रम करना पड़ेगा क्योंकि भाग्य उतना साथ नहीं दे रहा. सप्ताह के अंत में किसी विवाद की आशंका है. पति-पत्नी के संबंधों में संवादहीनता की स्थिति आने से कोई बखेड़ा खड़ा हो सकता है इसलिए आप सतर्क रहें और इसे टाल लें. प्रेम संबंधों में भी बड़ा मनमुटाव हो सकता है और संबंध टूट सकते हैं इसलिए भावुक न हों. आप त्वचा रोग या एलर्जी के कारण पीड़ित हो सकते हैं. इसलिए साफ-सफाई का पूरा ख्याल रखें और धूप-धूल से बचें. प्रतिदिन हनुमान चालीसा और बजरंग बाण का पाठ करें.

धनुः
यह सप्ताह आपके लिए मिश्रित फलदायक रहेगा यानी कुछ बातों में सफलता मिलने से मन प्रसन्न रहेगा लेकिन कई काम होते-होते रूकेंगे और मानसिक तनाव होगा. सप्ताह के आरंभ में ज्यादा परेशानी रहेगी इसलिए धैर्य रखें तो लाभ होगा. आपको हाल ही में किसी धोखे का सामना करना पड़ा है जिससे मन व्यथित हुआ होगा इसलिए आप गोपनीयता बनाए रखें अन्यथा आपकी परेशानी बढ़ेगी. प्रोफेशन कार्यों से जुड़े लोगों को सप्ताह के मध्य में यात्रा करनी पड़ सकती है. पठन-पाठन से जुड़े लोगों का मन बहुत उचटेगा, पढ़ाई में बड़ी अरुचि रहेगी. पेट और घुटने की परेशानी हो सकती है. पुराने प्रेम संबंधों को त्यागकर नए संबंधों की ओर बढ़ सकते हैं इससे प्रसन्नता होगी. पति-पत्नी के बीच कोई पुराना झगड़ा फिर से आरंभ हो सकता है इस कारण आप निराशा में जा सकते हैं. कोई पुराना गड़ा मुर्दा न उखाड़ें तो अच्छा. माता-पिता आपके साथ साए की तरह सहयोग के लिए खड़े हो जाएंगे इसलिए आपकी मन की बहुत सी पीड़ाओं में आसानी से राह निकल आएगी. व्यापारिक कार्यों के लिए भी समय मध्यम ही है. पैसे-पैसे का लेन-देन लिखित में करें अन्यथा आपके साथ ठगी हो सकती है. ऊं नमो भगवते वासुदेवाय की एक माला प्रतिदिन जपें तो कष्टों से राहत मिलेगी.

मकरः

आपकी राशि के स्वामी शनि की तीसरे भाव में पूर्ण दृष्टि हो रही है इसलिए शनि का प्रभाव शुभकारी रहने के संकेत हैं. बृहस्पति के सप्तम भाव पर दृष्टि के कारण विवाह आदि की चर्चा हो सकती है. आपको किसी मांगलिक कार्य में शामिल होने का अवसर मिलेगा. अचानक कहीं से धन का लाभ हो सकता है जिससे मन प्रसन्न होगा. व्यापारियों के लिए समय बहुत अच्छा है. व्यापारिक निर्णयों में और विलंब न करें. आपको परिवार का भरपूर सहयोग मिलेगा इसके कारण बहुत सी चिंताएं दूर हो जाएंगी. किसी पुराने मित्र से अचानक मुलाकात हो सकती है और पिकनिक यात्रा का कोई कार्यक्रम बन सकता है. ईश्वर के प्रति आस्था बढ़ेगी और किसी तीर्थयात्रा पर जाने की बात हो सकती है. डायबिटीज के मरीजों के लिए चिंता के संकेत हैं. उन्हें खाने-पीने पर विशेष ध्यान रखना है अन्यथा कष्ट में आने वाले हैं. मूत्र रोग या हृदय रोग का संकट मंडरा रहा है इसलिए सतर्क रहें और एकांतवास से बचें. दांपत्य जीवन बहुत आनंददायक रहेगा. कोई नया प्रेम प्रसंग आरंभ हो सकता है. हनुमानजी की आराधना करें तो सौभाग्य में वृद्धि होगी.

कुंभः
आपको इस सप्ताह में बहुत सावधानी से रहना है. आपका मन बार-बार विवाद को उकसाएगा किंतु विवाद एकदम न करें. कोर्ट-कचहरी का लंबा चक्कर हो सकता है और आप क्षणिक आवेश पर नियंत्रण न कर पाने के कारण बहुत समय तक पछताएंगे. सावधान रहिए. आपके शत्रु भी आप पर घात लगाए बैठे हैं और आपकी ओर से विवाद को आरंभ करने का बहाना तलाश रहे हैं. सप्ताह के मध्य से स्थितियों में कुछ बदलाव होगा. स्वभाव की उग्रता थोड़ी कम होगी. परिजनों पर उग्रता न दिखाएं अन्यथा भाग्य का रहा-सहा साथ भी निकल जाएगा. सप्ताह के मध्य से आय में कुछ सुधार होगा किंतु उस धन को व्यस्न में खर्च न करें क्योंकि संकट टला नहीं है. यदि पैसे की कद्र की तो सप्ताह के मध्य से लेकर अंत तक आय होती रहेगी. व्यापार में बहुत चतुराई दिखाने का समय है. पत्नी को प्रसन्न रखें. उनके भाग्य से परेशानियां मिटेंगी. जो लोग प्रेम संबंधों में हैं उनके लिए समय बड़ा सुखकर बीतेगा. विद्यार्थियों के लिए भी समय अनुकूल है. सफलता की संभावना है. सिर में दर्द और मानसिक पीड़ा रहेगी. शिवजी को बेलपत्र चढ़ाए तो समस्या का निदान होगा.

मीनः
केतु का गोचर होने और चंद्रमा के दूसरे भाव में दृष्टि होने के कारण आप आत्मबल और पराक्रम से भरा हुआ महसूस करेंगे. शत्रुओं के मन में आपसे भय होगा. किंतु अति आत्मविश्वास में न आएं, शत्रु भी कमजोर नहीं हुआ है. नौकरीपेशा लोगों को सप्ताह के मध्य में अधिकारियों के साथ विवाद हो सकता है. इससे आपकी मानसिक पीड़ा बढ़ जाएगी. आपके शत्रु सप्ताह के मध्य में थोड़ा हावी होने का प्रयास करेंगे इसलिए सूझबूझ दिखाएं, बुद्धि के कारण बृहस्पति आपका साथ देंगे लेकिन उसके लिए मृदुभाषी बनना पड़ेगा. यदि ऐसा कर पाते हैं तो शत्रुओं की मंशा नाकाम हो जाएगी. व्यापार के लिए समय उत्तम है. कोई नया समझौता हो सकता है. विद्यार्थियों के लिए भी समय सफलता दिलाने वाला है. दांपत्य जीवन मधुर रहेगा. प्रेम संबंधों में भी प्रसन्नता रहेगी. अनावश्यक कार्य करने की प्रवृति रहेगी तो सोच विचार कर लें कहीं समय तो व्यर्थ नहीं कर रहे किसी काम में. शरीर में दर्द या घुटने का दर्द हो सकता है. साथ ही माता के स्वास्थ्य से भी चिंता हो सकती है. गणेशजी को दूर्वा चढ़ाएं एवं एक माला ऊं नमो भगवते वासुदेवाय का जप लें तो सब अच्छा रहेगा.

प्रस्तुतकर्ताः
डॉ. नीरज त्रिवेदी, ज्योतिषाचार्य, पीएचडी
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय

व्रत त्यौहार वार्षिक हिंदी कैलेंडर २०१५-२०१६

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चैत्र, वैशाख व ज्येष्ठ

चैत्र (6 मार्च – 4 अप्रैल 2015)

06-03-2015          होली, चैत्रप्रारम्भ

09-03-2015          संकष्टीचतुर्थी

11-03-2015          रंगपञ्चमी

13-03-2015          कालाष्टमी

14-03-2015          बसोड़ा, शीतलाअष्टमी, वर्षीतपआरम्भ, कारादाइयननौम्बू

15-03-2015          मीनसंक्रान्ति

16-03-2015          पापमोचिनी एकादशी

17-03-2015          पापमोचिनी एकादशी, वैष्णव पापमोचिनी एकादशी

18-03-2015          प्रदोषव्रत, मासिकशिवरात्रि

20-03-2015          सूर्यग्रहण

21-03-2015          चन्द्रदर्शन, चैत्रनवरात्रि, गुड़ीपड़वा, युगादी, वसन्तसम्पात

22-03-2015          झूलेलालजयन्ती, गौरीपूजा, गणगौर, मत्स्यजयन्ती

23-03-2015          विनायकचतुर्थी

25-03-2015          यमुनाछठ, स्कन्दषष्ठी, रोहिणीव्रत

26-03-2015          नवपदओलीप्रारम्भ

27-03-2015          मासिकदुर्गाष्टमी

28-03-2015          रामनवमी

31-03-2015          कामदाएकादशी, वामनद्वादशी

01-04-2015          प्रदोषव्रत

02-04-2015          महावीर स्वामी जयन्ती

04-04-2015          हनुमानजयन्ती, चैत्रपूर्णिमा, चन्द्रग्रहण


 

वैशाख (5 अप्रैल – 4 मई 2015)

05-04-2015          वैशाखमास प्रारम्भ

08-04-2015          संकष्टीचतुर्थी

12-04-2015          कालाष्टमी शीतलाष्टमी

14-04-2015          मेषसंक्रान्ति

15-04-2015          वरूथिनी एकादशी, वल्लभाचार्यजयन्ती

16-04-2015          प्रदोषव्रत

17-04-2015          मासशिवरात्रि

19-04-2015          चन्द्रदर्शन

21-04-2015          अक्षयतृतीया, परशुरामजयन्ती

22-04-2015          विनायकचतुर्थी, रोहिणीव्रत

25-04-2015          गंगासप्तमी, श्रीगंगा उत्पत्ति

26-04-2015          मासिकदुर्गाष्टमी, अन्नपूर्णा अष्टमी

27-04-2015          सीतानवमी

29-04-2015          मोहिनी एकादशी

01-05-2015          शुक्र प्रदोषव्रत

02-05-2015          नरसिंह जयन्ती, ओंकारेश्वर यात्रा, चतुर्दशी

03-05-2015          कूर्मजयन्ती, पूर्णिमा उपवास

04-05-2015          बुद्धपूर्णिमा, अग्निनक्षत्रम्प्रारम्भ, चित्रापूर्णनामी


 

ज्येष्ठ (5 मई – 2 जून 2015)

05-05-2015          ज्येष्ठ मास प्रारम्भ, नारदजयन्ती

07-05-2015          संकष्टी गणेश चतुर्थी

14-05-2015          अचला एकादशी, भद्रकाली एकादशी

15-05-2015          प्रदोषव्रत, वटसावित्रीव्रत

16-05-2015          मासशिवरात्रि

17-05-2015          वटसावित्रीव्रत

18-05-2015          शनि अमावस्या, शनि जयन्ती

19-05-2015          रोहिणी व्रत

21-05-2015          विनायक चतुर्थी

28-05-2015          गंगादशहरा, गंगा जन्मदिन

29-05-2015          निर्जला एकादशी

31-05-2015          प्रदोषव्रत

02-06-2015          वटपूर्णिमाव्रत, पूर्णिमा उपवास

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