Monday, April 28, 2025
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श्रीहरि के आदेश से दक्ष ने पैदा किए दस हजार पुत्र, नारद ने दक्षपुत्रों को वैराग्य ज्ञान देकर भटकायाः भागवत कथा में नारद को दक्ष के शाप का प्रसंग

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प्रचेताओं के औरस और अप्सरा के गर्भ से दक्ष उत्पन्न हुए. विंध्यपर्वत के पास दक्ष श्रीहरि की आराधना करने लगे. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगावन विष्णु ने दर्शन दिए.

श्रीहरि ने दक्ष को उत्तम ज्ञान देने के बाद कहा- तुम प्रजापति बनो. मैं तुम्हें प्रजापति पंजचन से पैदा हुई एक सुंदर कन्या आसिक्ती देता हूं. उसके साथ संतान पैदा करो. तुम्हें सृष्टि की वृद्धि का कार्य करना है.

भगवान के आदेश पर दक्ष ने आसक्ती के साथ रमण किया और हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र पैदा किए. दक्ष पुत्र तेजस्वी थे. जन्म के साथ ही सभी ज्ञान से युक्त थे.

दक्ष ने उन्हें कहा कि श्रीहरि का आदेश है कि हमें सृष्टि की वृद्धि करना है. इसलिए तुम सभी सारे संसार में फैल जाओ और उत्तम संतान पैदा कर सृष्टि को बढ़ाओ.

दक्ष पुत्र पिता की आज्ञा से दक्षिण की ओर चले और सिंधु और समुद्र के संगमस्थल पर स्थित नर-नारायण नामक धाम पर पहुंचे. उस तीर्थ के जल के स्पर्श से ही प्राणी पवित्र हो जाता था.

दक्ष पुत्रों ने स्नान किया और परमपवित्र होकर परमहंस जैसे हो गए. इसके बाद उन्हें पिता का आदेश याद आया तो सृष्टि विस्तार के लिए तप की तैयारी करने लगे.

देवर्षि नारद ने देखा कि परमहंस बन जाने के बावजूद दक्षपुत्र सृष्टि रचना की चिंता कर रहे हैं, ऐसा सोचकर नारद बड़े दुखी हुए. वह दक्ष पुत्रों के पास आए.

नारद ने कहा- दक्ष पुत्रों अभी तो तुमने इस धरा का अंत देखा ही नहीं है फिर क्यों सृष्टि रचना की चिंता से घुले जा रहे हो. तुम लोग नादान नहीं हो फिर ऐसा क्यों करते हो.

नारद ने कहा- जिस पृथ्वी के लिए सृष्टि बसाना चाहते हो पहले उसे जान तो लो. बिना जाने किए गए कार्य के कारण विद्वान लोगों को बाद में पछताना पड़ता है.

नारद की बात हर्यश्वों के मन में बैठ गई. उन्होंने आपस में परामर्श करके पहले पृथ्वी का विस्तार से भ्रमण का निर्णय लिया. संतान पैदा करने की बात को उन्होंने किनारे कर दिया.

अपने पुत्रों को सृष्टि वृद्धि के कार्य से विमुख होता देख दक्ष को बड़ा अफसोस हुआ. उन्होंने आसक्ती के साथ फिर से रमण करके संतान उत्पन्न किया.

दक्ष की संताने फिर से उसी नर-नारायण तीर्थ पर पहुंची. स्नान करके संतान वृद्धि का संकल्प लिया. नारद फिर से आ धमके.

उन्होंने दक्षपुत्रों को समझाया कि तुम्हारे बड़े भाइयों ने संतान पैदा करने के बजाय पृथ्वी के विस्तार का पता लगाने का निश्चय किया, तुम क्यों अज्ञान में भटकते हो.

नारद ने तरह-तरह के तर्क देकर इन दक्ष पुत्रों को भी संतान वृद्धि के कार्य से अलग कर दिया. दक्ष को जब यह बात पता चली तो वह बड़े क्रोधित हुए.

दक्ष ने नारद को शाप दिया- नारद तुमने साधु का वेश धारण कर रखा है लेकिन मन से बड़ा कुटिल है. तुम प्राणियों को उनके उद्देश्य से भटकाने का कार्य कर रहे हो.

तुमने मेरे पुत्रों को भ्रमित करके उन्हें उनके कार्य से रोका और संसार में भटकने को प्रेरित कर दिया है. आज से तुम संसार में एक स्थान पर नहीं टिक पाओगे.

नारदजी ने दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया. इसी कारण नारद का घर नहीं बसा और वह एक जगह से दूसरे जगह पर भटकते रहते हैं.

ब्रह्मा ने दुखी दक्ष को शांत कराया और उन्हें फिर से संतान उत्पन्न करने को कहा. इस बार दक्ष को साठ पुत्रियां हुईं.

दक्ष ने अपनी पुत्रियों का विवाह महर्षि कश्यप, धर्म, चंद्रमा, भृगु और अरिष्टनेमि के साथ किया. इनके गर्भ से देवता, असुर, यक्ष-गंधर्व, पशु-पक्षी, वनस्पति और कीट आदि हुए और पृथ्वी जीवों से भर गई.

जानिए जन्म, कुल निर्धारण, एवं नर्क का रहस्य

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शमीकपुत्र ऋंगी ने राजा परीक्षित को सात दिनों के अंदर सांप के काटने से मृत्यु का शाप दे दिया था. परीक्षित जीवन के अंतिम क्षणों में शुकदेव से भागवत सुन रहे थे.

परीक्षित ने पूछा- महर्षि! संसार में जीवों में इतनी भिन्नता क्यों हैं. कोई राजा तो कोई दास क्यों होता है? प्राणियों का जन्म क्यों होता है?

शुकदेव बोले- प्राणी कर्मों के आधार पर स्वर्ग, नर्क और फिर से पृथ्वी पर जन्म का कष्ट भोगता है. सात्विक, राजस और तामस ये तीन प्रकार के कर्म होते हैं.

इन्हीं कर्मों के आधार पर प्राणी की गति तय होती है. निषिद्ध यानी वर्जित कर्म करने वाला प्राणी नर्क का भागी तो अच्छे कर्म वाला स्वर्ग भोगता है.

नर्क और स्वर्ग भोगने के बाद जब अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बचे हुए पुण्य रूपी कर्मों को प्राणी तब तक इसी लोक में जन्म लेने के लिए आता रहता है जब तक उसे मोक्ष न मिल जाए.

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“यह मेरा है” की मृगतृष्णा त्यागकर श्रीहरि की भक्ति में लगने से मिलता है मोक्ष, जड़ भरत का रहोगुण को ब्रह्मज्ञानः भागवत कथा में जड़ भरत प्रसंग

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ऋषभदेव के बाद भरत ने लम्बे समय तक जम्बूद्वीप पर राज किया. भरत ने ज्येष्ठ पुत्र को सम्राट बनाकर संन्यास ले लिया और पुलह ऋषि के आश्रम के पास रहने लगे.

एक दिन भरत नदी में स्नान कर रहे थे. एक गर्भवती हिरणी नदी में पानी पीने आई लेकिन तभी एक शेर की दहाड़ सुनकर उसने नदी पार करने के लिए छलांग लगा दी.

छलांग के कारण उसका बच्चा गर्भ से बाहर नदी में ही गिर पड़ा और डूबने लगा. पीड़ा से हिरणी ने दम तोड़ दिया. भरत का मन मृगशावक के लिए द्रवित हो उठा.

उन्होंने मृगशावक को बचाया और अपने आश्रम ले आए. वह उसका माता की तरह पालन करने लगे. अपना राजपाट त्यागकर निर्मोही बन चुके भरत मृग के मोह में डूबते चले गए.

उस मृग के मोह में डूबे भरत ईश्वर भक्ति भूल चुके थे. उन्हें हमेशा उसी मृग की ही चिंता रहती थी. मृग के मोहपाश में बंधे भरत ने समय आने पर प्राण त्याग दिया.

मरते समय भी भरत ने ईश्वर की जगह मृग को ही याद किया. इसी कारण अगले जन्म में वह मृग बने. पूर्वजन्म के पुण्य प्रभाव से भरत को पूर्वजन्म का स्मरण था.

भरत को इस बात का पछतावा रहता कि नारायण के पुत्ररूप में जन्म मिला, उनसे ही ज्ञान मिला और मोहबंधन तोड़कर संन्यासी हुए लेकिन एक मृग से मोह के कारण मोक्ष नहीं मिला.

इस जन्म में वह अपने कर्मों के लिए विशेष सचेत थे. मृगरूप में भी भरत पुलह के आश्रम के पास ही रहते थे. ऋषियों के मुख से ईश्वर स्तुति सुनते.

समय आने पर उन्होंने पशु देह को त्याग और पुनः मानव रूप में जन्म लिया. इस बार वह एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे.

भरत अपना पूर्व जन्म नहीं भूले थे. वे अब किसी मोहबंधन में बंधना नहीं चाहते थे. इसलिए सांसारिकत से फंसने से बचने के लिए मूर्ख होने का दिखावा करते.

उनके पिता ने शिक्षा देने का बहुत प्रयास किया लेकिन भरत ने जान-बूझकर कुछ भी न सीखा. विद्याहीन होने के कारण उनका नाम जड़ भरत पड़ गया.

पिता की मृत्यु के बाद भाइयों ने भरत को खेती के काम में लगा दिया. वे उनसे खूब मेहनत कराते और भोजन थोड़ा देते लेकिन भरत तनिक भी दुखी न होते.

एक रात जड़ भरत खेतों पर पहरा दे रहे थे तभी डाकू उन्हें नरबलि के लिए उठा ले गए. डाकुओं ने उन्हें खिला-पिला कर सजाया और बलि की तैयारी पूरी की.

सब देखते समझते हुए भी भरत दुखी न थे. उन्होंने न तो डाकुओं से मुक्त करने की प्रार्थना की और न ही अपने वध की बात से दुखी हुए. वह सहर्ष बलि के लिए तैयार हुए.

पुजारी ने बलि के लिए तलवार उठायी तो देवी साक्षात प्रकट हो गईं. देवी ने डाकुओं को मार डाला और भरत के प्राणों की रक्षा हो गई. भरत फिर भटकने लगे.

एक दिन भरत कहीं चले जा रहे थे कि राजा रहूगण की सवारी निकली. पालकी उठाने वालों ने देखा कि एक हट्टा-कट्टा पागल घूम रहा है तो उन्होंने साथ ले लिया.

भरत पालकी उठाए चलने लगे लेकिन उनकी नजर भूमि पर रहती कि कहीं कोई कीड़ा-मकोड़ा उनके पैरों से न दब जाए. पालकी डगमगाने लगी तो राजा क्रोधित हुआ.

राजा ने कहारों को डांटा तो कहारों ने कहा कि इस नए कहार के कारण यह हो रहा है. राजा ने भरत को काफी गालियां दीं पर वह चुपचाप सुनते हुए मुस्कुराते रहे.

राजा का क्रोध अब आपे से बाहर हो गया था. उसने कहा- तुम जान-बूझकर मुझे कष्ट पहुंचा रहे हो. मैं राजा हूं और इस कार्य के लिए तुम्हें प्राणदंड दे सकता हूं.

भरत ने कहा- आपको राजा होने का दंभ है. इसलिए आप स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझते हैं और मानते हैं कि आपको दण्ड का अधिकार है. किन्तु आप किसे दण्डित करेंगे?

इस शरीर को दंडित करेंगे जो पंचभूतों से बना है, विकारों से युक्त है लेकिन यह मेरा है ही नहीं. जो मैं हूं वह तो आत्मारूप है जिसे देखा भी नहीं जा सकता तो दण्डित कैसे करेंगे?

कहार के मुख से ज्ञान की बातें सुनकर रहूगण पालकी से उतरे और भरत को प्रणाम किया. राजा ने कहा-मैं कपिल मुनि के पास ज्ञान के लिए जा रहा था, सौभाग्य से आप मिल गए. आप ही मुझे शिक्षा दें.

शरण में आए राजा को भरत ने ज्ञान देना आरंभ किया- मानव का संसार में भटकाव का एकमात्र कारण उसका मन है. मन, सतो-रजो और तमो गुणों के प्रभाव से भटकता है.

दीपक में जलती हुई तो बाती दिखती है लेकिन यथार्थ में बाती नहीं जलती बल्कि दीए का घी जलता है. उस अग्नि में जो तेज और रंग है वह घी का है बाती का नहीं.

जब घी समाप्त हो जाता है तब बाती का सूत जलता है. ऐसे ही सत-रज-तम त्रिगुणों में लिप्त सांसारिकता में फंसा जो कर्म करता है वह मिथ्या है.

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा, पिपासा, व्याधि आदि से मुक्त हुए बिना जीव स्वयं को जान ही नहीं सकता. जो स्वयं को न जाने वह ईश्वर को क्या पहचानेगा.

गृहस्थ आश्रम के बंधनों को तोड़े बिना ईश्वर नहीं मिलते. “यह मेरा है” का मोह त्यागो क्योंकि तुम्हारा कुछ भी नहीं. सब श्रीहरि की माया है.

संसार का मोह त्यागकर श्रीहरि की सेवा में लगो और मोक्ष का मार्ग तलाशो, यही जीवन का मूल कर्म है.

मित्रों हम जल्द ही तीर्थाटन शृंखला आरंभ करने जा रहा हैं. इसमें हम देश के सभी बहुत प्रसिद्ध अथवा किसी कारण से कम प्रसिद्ध तीर्थों से परिचित कराएंगे. हमारा उद्देश्य है अपने देश के कोने-कोने में बसे पवित्रस्थलों के महात्म्य से दुनिया को परिचित कराना, उन तीर्थों के दर्शन के लिए लोगों को राह दिखाना.

आप सभी भी अपने आस-पास के तीर्थों के बारे में सूचनाएं भेजें. हम उसे आपके नाम से प्रकाशित करेंगे. रविवार को इस सीरिज का एक लेख दिया जाएगा ताकि आपको अंदाजा हो कि किस तरह की सूचनाएं भेजनी हैं. आइए हम सब मिलकर हिंदुत्व के अद्भुत तीर्थाटन पर चलें.

ब्रह्मा के आदेश पर प्रियव्रत ने त्यागा तप, पृथ्वी पर बनाए सात महाद्वीपः भागवत कथा में मनुपुत्र प्रियव्रत का प्रसंग

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मनु और शतरूपा की संतानों आकूति, देवहुति, प्रसूति और उत्तानपाद की चर्चा हो चुकी है. आज भागवत कथा में मनु-शतरूपा के पुत्र प्रियव्रत का प्रसंग

प्रियव्रत मनु के बड़े पुत्र थे लेकिन उन्हें शासन में रूचि न थी इसलिए उन्होंने उत्तानपाद को राजा बनाया और स्वयं तप के लिए वन को चले गए थे.

उत्तानपाद के वंशजों ने अनंत काल तक पृथ्वी पर राज किया. जब प्रचेताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष राज-काज त्याग कर वन को चले गए तब पृथ्वी राजा विहीन हो गई.

मनु ने अपने बड़े पुत्र प्रियव्रत जो तप कर रहे थे, उनसे परेशानी बताई और कहा कि संन्यास को छोड़कर राजकाज की बागडोर संभालो. हजारों वर्ष से तप में लीन प्रियव्रत नहीं माने.

हारकर मनु अपने पिता ब्रह्मा के पास गए और उनसे प्रियव्रत को समझाने को कहा. ब्रह्माजी प्रियव्रत को समझाने आए. उस समय प्रियव्रत नारद के साथ बैठे ज्ञानचर्चा कर रहे थे.

ब्रह्माजी ने कहा- जिस प्राणी को भी जीवन मिलता है उसी समय उसके लिए कुछ कर्म भी तय किए जाते हैं. हमारी रूचि हो या न हो, हमें अपना कर्तव्य करना होता है.

श्रीहरि विष्णु ने यही व्यवस्था दी है. प्रियव्रत तुम्हें राजकाज में कोई रुचि नहीं है, किन्तु जिस पृथ्वी पर तुमने जन्म लिया उसे सुरक्षित और सबल करना तुम्हारा कर्तव्य है.

ब्रह्मा ने कहा श्रीहरि की भक्ति से तुमने परम आनंद की प्राप्ति हुई है. श्रीहरि के विधान के अनुसार पृथ्वी को सुखी, संपन्न बनाकर उसे भोगते हुए परमात्मा में लीन हो जाओ.

प्रियव्रत ने प्रभु की इच्छा मान ली. प्रियव्रत ने वन से लौटकर राजकाज संभाला और ब्रह्मा ने उनका विवाह विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से करा दिया.

प्रियव्रत के एक पुत्री और दस पुत्र हुए. उन्होंने कई वर्षों तक राज किया और साधारण राजा का जीवन जिया. उनका राज्य सुखी और सुरक्षित था और कोई शत्रु नहीं थे.

एक दिन राजा ने सोचा कि सूर्यदेव एक समय में आधी पृथ्वी को ही क्यों प्रकाशित करते हैं. कहीं सूर्यदेव के मार्ग में कोई विघ्न तो नहीं जिससे वह आधे भूभाम को ही प्रकाशित कर पाते हैं.

प्रियव्रत ने निश्चय किया कि वह सूर्य की राह का पता लगाकर रात को भी दिन जैसा प्रकाशित करेंगे. वह सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर सवार हुए सूर्य के पीछे-पीछे चक्कर लगाने लगे.

उन्होंने पवनवेग से चलकर धरती की सात परिक्रमाएं कर लीं. उनके रथ के पहियों के कारण पृथ्वी पर सात धब्बे बने और वह सात हिस्से में बंट गई. इस तरह सात द्वीप बने.

प्रियव्रत के 10 में से तीन पुत्र बचपन में ही संन्यास के मार्ग पर चले गए थे. सात पुत्रों को सातों द्वीपों का शासन करने को कहा. बड़े पुत्र अग्नित्र को अपने स्थान पर राजा बना दिया.

प्रियव्रत का मन फिर से उचट गया था. उन्होंने पृथ्वी के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर लिया था. अपने गुरू नारद के परामर्श पर वह फिर संन्यास लेकर तप को चले गए.

अग्नित्र जम्बूद्वीप के राजा हुए. अग्नित्र के पुत्र थे नाभि. नाभि संतानहीन थे. पुत्र प्राप्ति के लिए नाभि ने यज्ञ कराया और प्रसन्न होकर नारायण प्रकट हुए.

नाभि ने नारायण से मांगा- प्रभु मुझे आप जैसा पुत्र प्राप्त हो जाए. नारायण ने कहा कि मेरे जैसा कोई दूसरा नहीं है. इसलिए वचनबद्ध होने के कारण मैं स्वयं आपके पुत्ररूप में आउंगा.

समय आने पर नाभि को नारायण के अंश रूप में पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई. इनका नाम पड़ा-ऋषभदेव. युवा होने पर ऋषभदेव का विवाह इंद्र की बेटी जयंती से हुआ.

ऋषभदेव और जयंती के सौ पुत्र हुए. इनमें सबसे बड़े भरत जी थे. ऋषभदेव के सभी पुत्र स्वयं संत स्वभाव के थे. ऋषभदेव ने एक दिन पुत्रों को बुलाया और उन्हें ब्रह्मज्ञान दिया.

ऋषभजी बोले- पुत्रों, मानव शरीर हमें पशुओं की तरह केवल संसार का सुख भोगने के लिए नहीं मिला है, बल्कि इसके उच्च लक्ष्य हैं. लक्ष्यों की पूर्ति के लिए मन की शुद्धि जरूरी है.

लोकसेवा का कर्तव्य, मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है. कर्मों में संग होने और इन्द्रिय विषयों में लिप्त होना संसार में डुबा देता है. अहंकार मानव का सबसे बड़ा शत्रु है.

पुत्रों अपने बड़े भ्राता भरत को पिता समान समझना. संसार में वैसे ही रहना जैसे मैंने अभी तुम्हें समझाया है. भक्ति से मोहबंधन को काटते रहो और खुद को इस जन्म मृत्यु के फेर से निकालो.

ऋषभदेवजी भरत को राजा बनाया और वन को चले गए. अवधूत होकर आसक्ति त्याग दी और तप करते हुए योगअग्नि में स्वयं को भस्म करके अपने धाम को चले गए.

कल भागवत कथा में पढ़िए श्रीहरि के अनन्य भक्त तपस्वी जड़ भरत की कथा.

भय और प्रज्वर की सहायता से जरा ने पुरंजन को घेरा, पुरंजन को अविज्ञाता ने दिया मोक्ष का ज्ञानः भागवत कथा में पुरंजन प्रसंग- दूसरा भाग

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पुरंजन कथा के पहले भाग में आपने पढ़ा कि पुरंजन आसक्ति में डूबा सब कुछ भूल गया था. सांसारिकता में फंसकर उसे अपने परिवार के अलावा कुछ नजर न आता था.

उधर काल की पुत्री जरा ने नारद से प्रेमदान मांगा लेकिन नारद ने ब्रह्मचारी होने के कारण जरा का अनुरोध ठुकरा दिया. जरा ने नारद को शाप दिया- आप एक स्थान पर टिक नहीं पाएंगे. अब आगे…

नारद से ठुकराए जाने पर जरा यवनराज भय के पास पहुंची. भय ने जरा से कहा- तुम्हारे भयानक रूप के कारण कोई स्वेच्छा से स्वीकारेगा नहीं. इसलिए तुम्हें जो पुरुष भाए उसे बल से प्राप्त करो.

भय ने उसे बहन बना लिया. उसने जरा को वादा किया कि इस ब्रह्मांड में वह जिन पुरुषों को बलपूर्वक प्राप्त करना चाहेगी, वह अपने भाई प्रज्वर के साथ जरा की सहायता करेगा.

जरा को पुरंजन पसंद आ गया. उसने पुरंजन को आलिंगन में भरा. उसके प्रभाव से पुरंजन का बल नष्ट हो गया. वह अपनी प्रजा और पुत्रों के लिए शोक करने लगा.

यवन सेना पुरंजन को पकडकर ले चली. वह उन-उन स्थानों से गुजरा जहां उसने जीवों की बेवजह हत्या की थी. वे सभी उस पर आक्रमण करके कष्ट पहुंचाते रहे.

मृत्यु के समय पुरंजन को सिर्फ अपनी पत्नी का ध्यान रहा था इसलिए उसका अगल जन्म एक स्त्री के रूप में हुआ. इस जन्म में वह विदर्भराज की अपूर्व सुंदरी पुत्री बना.

बड़े होने पर उसका विवाह मलयध्वज जैसे सदाचारी और धार्मिक राजा से हुआ. वृद्ध होने पर राजा ने अपने पुत्रों के बीच राज्य को बांटा और पत्नी संग संन्यास लेकर वन चले गए.

मलयध्वज ने शरीर त्यागा तो रानी भी उनके साथ सती होने चलीं. तभी अविज्ञाता वहां आ गए. उसने रानी को बताया- मैं तुम्हारा पुराना मित्र और शुभचिंतक अविज्ञाता हूं.

हम दोनों मानसरोवर के हंस थे और साथ-साथ सहस्त्रों वर्ष रहे. तुम्हारे मन में विषय भोग की इच्छा पैदा हुई और तुम मेरा त्याग करके पृथ्वी पर चली आई.

अविज्ञाता ने उसे ज्ञान दिया- तुम न तो विदर्भकुमारी हो न पुरंजन. माया में पड़कर तुमने नौ द्वारों वाले नगर को अपना घर बनाया और स्वयं को भूल गई. उसके दस सेवकों को तुमने दास समझा.

जिन दस सिरों को तुम दास मानकर खुद को भूल गई वे पांच कामेंद्रियां और पांच ज्ञानेन्द्रियां थीं. जिस पत्नी के इशारे पर नाचते अच्छे-बुरे का फर्क करने की जरूरत नहीं समझी, वह मन था.

पांच सिरों वाले नाग, पांच इन्द्रिय विषय थे जो नगर रूपी तुम्हारे शरीर की रक्षा करते रहे. तुम्हारी 360 सेविकाएं दिन और रात थे जिनसे वर्षों तक लड़ने के बाद इन्द्रियां हार गयीं.

जरा यानी बुढ़ापे ने तुम्हें जब बाहों में जकड़ा तब इंद्रियां हार गईं. प्रज्वर यानी सभी तरह के रोगों ने तुम्हें चंगुल में ले लिया और भयभीत किया.

शरीर और मन के जाल में फंसे तुम दुबारा मन के ही रूप में जन्मे और आज तक स्वयं को वही मन ही समझ रहे हो.

इस मन से मोह को अलग करो. फिर से मुझ अविज्ञाता, जो विधाता के रूप में जीवों का मित्र है लेकिन उसे कोई पहचान नहीं पाता, के संग चले चलो. मुझसे मिलने के बाद तुम्हारे भटकाव का अंत हुआ.

नारद ने राजा बर्हिषत को इस कथा का सार समझाया और उन्हें मोह का त्यागकर अविज्ञाता रूपी ईश्वर में खो जाने को कहा.

राजा को ज्ञान हुआ. उसने सारे कर्मकांड त्याग दिए और ईश्वर की खोज को अपना लक्ष्य बनाकर यज्ञ के स्थान पर तप के कार्य में जुट गया.

कल भागवत चर्चा में पढ़िए प्रियव्रत की कथा जो रात को भी दिन की तरह उज्जवल बनाने के संकल्प से चला और उस दौरान सात महाद्वीपों की रचना हुई.

मन की दासता यानी बुद्धि-विवेक का अंतः भागवत में पढ़ें पुरंजन की कथा- पहला भाग

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सभी मित्रों को प्रभु शरणम्! आशा है भागवत पुराण की कथाएं प्रस्तुत करने का यह तरीका आपको पसंद आ रहा होगा. आप सभी से एक अनुरोध है- यदि आपके आसपास कहीं भागवत कथा का आयोजन हो रहा हो, या आप स्वयं भागवत कथा कराते हों, या कथावाचक हैं तो कृपया नारायण के नाम के प्रसार के प्रभु शरणम् के इस प्रयास में शामिल हों.

जो लोग भी प्रचार कार्य में सहयोग के इच्छुक हैं वे सभी संपर्क कर सकते हैं. आप हमें अपना नाम, नंबर और स्थान Whatsapp से भेजें. हम आपसे कोई बड़ा कार्य नहीं कह रहे बस कथास्थल या किसी मंदिर के पास श्रीराधेकृष्ण का एक पोस्टर लगाने का अनुरोध कर रहे हैं ताकि एप्प के बारे में सबको जानकारी हो. जो इच्छुक हों वे संपर्क करें, हम उन्हें पोस्टर का डिजायन भेजेंगे.

हाथ जोडकर विनती है, वही लोग इच्छा जताएं जो सच में सहयोग करना चाहते हैं, भैया भगवान के नाम पर झूठा आश्वासन देना उचित नहीं क्योंकि हम बड़े विश्वास के साथ भेजते हैं. आपसे यह सहयोग मांगते हैं. ना कर देना अच्छा है, झूठे हां से. अभी तक जिन लोगों ने सहयोग किया सबके लिए हृदय से आभार. आज पढ़े पुरंजन की कथा.

ध्रुव के वंशज और राजा पृथु के पोते बर्हिषत एक के बाद एक यज्ञ करते जा रहे थे लेकिन संसार से मोह नहीं छूट रहा था. तब नारदजी ने उनकी आंखें खोलने के लिए पुरंजन की कथा सुनाई.

एक राजा थे- पुरञ्जन. पुरंजन के मित्र थे अविज्ञाता. अविज्ञाता का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि कोई न तो उनका परिचय जानता था न ही उनकी बातें समझ पाता था.

पुरंजन और अविज्ञाता हमेशा साथ रहते थे. पुरंजन का मन अपने राजमहल से उचट गया था. वह अपने रहने के लिए कोई बेहतर स्थान की खोज करने निकले.

अविज्ञाता ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, पुरंजन नए स्थान की खोज के लिए भटकते रहे और हिमालय की तराई में पहुंच गए.

हिमालय के पास उन्हें एक बहुत सुंदर नगर दिखा. सुगंधित फूलों से भरे सुंदर बाग-बगीचों वाले नगर के नौ द्वार थे. पुरंजन उस नगर की सुंदरता को निहारता रहा.

नगर विरान नजर आता था. तभी पुरंजन को एक अद्वितीय सुंदरी दिखाई पड़ी. पांच फनों वाला नाग उसकी रक्षा कर रहा था. सुंदरी के साथ दस मुख्य सेवक भी थे.

पुरञ्जन उस सुंदरी को निहारता रहा. युवती ने भी पुरंजन को देखा और मोहित हो गई. पुरंजन ने पूछा- आप कौन हैं देवी? ब्रह्मांड में आप जैसी सुंदरी मैंने कभी नहीं देखा. अपना परिचय दें.

सुंदरी ने कहा- मुझे अपने माता-पिता या गोत्र का कोई ज्ञान नहीं है. मैं बस इतना जानती हूं कि मैं इस नगर की स्वामिनी हूं और ये मेरे सेवक. मैं अपने लिए योग्य वर तलाश रही हूं.

युवती ने कहा- मैं आपके मन की बात जानती हूं. आप मेरे साथ विवाह करके इस नगर में निवास करें. संसार के सभी सुखों को भोगते हुए विलासपूर्ण जीवन बिताएं.

पुरंजन को तो मन की मुराद मिल गई. दोनों ने विवाह कर लिया. सुंदरी के प्रेम में डूबे हुए पुरंजन ऐश्वर्य के साथ गृहस्थ जीवन जीने लगे.

पुरंजन कई संतानों के पिता बने. उनकी पत्नी और सभी संतानें उनसे बहुत प्रेम करते थे. पुरंजन भी पत्नी की हर बात मानते. वह दिन कहे तो दिन, रात कहें तो रात.

एक बार पुरंजन पांच हवा सी गति से चलने वाले घोड़ों से बने रथ पर सवार होकर शिकार के लिए गया. शिकार में खोया वह कई दिनों तक वन में भटकता रहा और अनगिनत जीव मार डाले.

कई दिनों तक उसने कुछ खाया पीया भी नहीं, बस शिकार करता रहा. इस दौरान उसे न तो अपनी रानी की याद आई न सुंदर नगर की. जब भूख महसूस हुई तो नगर लौटा.

राजा लौटा तो उसकी रानी रूठी बैठी थी. उसने रानी को किसी तरह मना लिया और उसके साथ अनंतकाल तक रास में डूबा रहा. उसने अनेक और संतानें पैदा कीं.

इसके बाद वह पहले पुत्र-पुत्रियों, फिर पौत्रों और पौत्रियों उसके बाद उनकी संतानों के विवाह आदि काम में ही फंसा रहा और समय का पता ही न चला.

गंधर्वराज चंडवेग की उसके नगर पर नजर थी. उसने सेना लेकर आक्रमण किया और नगर को लूटने लगा.

इधर काल की पुत्री जरा अपने लिए एक पुरुष की तलाश में घूम रही थी. जरा कुरूप थी. उससे कोई विवाह नहीं करना चाहता था. राजा पुरू ने अपने पिता ययाति को यौवन देने के लिए उसका एक बार वरण किया था. जब पुरू ने जरा को त्याग दिया तब वह नारद पर मोहित हुई.

जरा ने नारद से प्रेमदान मांगा लेकिन नारद ने अपने ब्रह्मचर्य व्रत का हवाला देकर उसकी मांग ठुकरा दी. उसने नारद को शाप दिया तुम कहीं टिक नहीं सकोगे.

जरा ने अपनी कामेच्छा की पूर्ति के लिए कैसे अपने दो भाइयों भय प्रज्वर की सहायता से इच्छित पुरुषों को बल से प्राप्त करना शुरू किया और पुरंजन की क्या गति की.

पुरंजन की कथा का अगला भाग आज दोपहर की पोस्ट में पढ़ें. कथा बड़ी होने के कारण हमने इसे दो हिस्सों में बांट दिया ताकि आपको बोझिल न लगे.

ध्रुव के वंश में जन्मे अधर्मी वेण के पुत्र पृथु ने किया धरा का दोहन, इंद्र ने चुराया पृथु के यज्ञ का घोड़ाः आज भागवत में महान राजा पृथु की कथा

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ध्रुव के बड़े पुत्र उत्कल की राजकाज में रुचि न थी. इसलिए उनके छोटे भाई वत्सर को राजा बनाया गया. वत्सर ने अनेक वर्षों तक कुशलता से शासन किया.

उसी वंश में एक राजा हुए अंग. अंग की पत्नी सुनीता ने वेण को जन्म दिया. वेण स्वभाव से बड़ा क्रूर और अधर्मी था. राजा अंग ने उसे सुधारने के कई प्रयत्न किए लेकिन असफल रहे.

अंग के बाद वेण राजा बना तो और निरंकुश हो गया. वेण ने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया. उसने मुनियों को आदेश दिया कि वे यज्ञ में देवताओं के बदले वेण के नाम की आहुति डालें.

क्रोधित ऋषियों ने दंड देने के लिए यमराज का आह्वान किया और यमराज ने उसके प्राण हर लिए. वेण की माता सुनीता ने पुत्रमोह के कारण मृत शरीर का अंतिम संस्कार नहीं किया.

रानी ने ऋषियों से कहा- राजा के न होने से राज्य पर अधर्मियों का कब्जा हो जाएगा. राजा की मृत्यु उनके कारण हुई है, इसलिए प्रजा को राजा देने की जिम्मेदारी भी ऋषियों की है.

ऋषियों ने रानी से वेण का शरीर मांगकर उसके शरीर को मथा. इससे पृथु पैदा हुए. पृथु भगवान श्रीविष्णु के अंश थे. ऋषियों ने पृथु का राज्याभिषेक किया.

वेण के राजा बनने से अधर्मियों का पृथ्वी पर बोलबाला हो गया था. इसलिए सहमी पृथ्वी ने अपने उदर में सारा अन्न, औषधि और बहुमूल्य रत्न छिपा लिया था.

पृथु जब राजा बने तब तक पृथ्वी अन्नहीन हो चुकी थी. प्रजा भूखी मर रही थी. प्रजा ने राजा से भोजन की व्यवस्था करने की प्रार्थना की.

पृथु को पता चला कि धरती बीज तो निगल लेती है किन्तु अन्न नहीं देती. क्रोध में पृथु ने धरती का नाश करने की ठानी और अपने धनुष पर दिव्य बाण चढ़ाए.

धरती डरकर गाय का रूप धरकर भागी. राजा ने उस गौ का पीछा किया. भयभीत धरती ने कहा- मैं स्त्री हूँ और अभी गौ रूप में हूं. इसलिए आप मुझे नष्ट न करें.

राजा ने कहा कि नाश से बचने का एक ही रास्ता है कि धरती प्रजा का अन्न-औषधि आदि लौटा दे. धरती ने कहा कि अधर्मियों से बचाने के लिए मैंने अपने उपहार छुपा लिए थे.

धरती ने बताया- आज मैं गौ रूप हूं. आप मेरे दुहे जाने और उचित बछड़े की व्यवस्था करें. मैं दुग्ध के रूप में वह सब दूँगी जो दुहने वालों की अभिलाषा होगी.

पृथु ने मनु को बछड़ा बनाकर स्वयं उसे दुहा. पृथ्वी को समतल करके प्रजा के लिए अन्न पौधे आदि पाए. धरती ने सबकी मनोकामना पूरी की.

प्रसन्न हो कर पृथु ने धरती को अपनी पुत्री के रूप में स्वीकारा. पृथ्वी तब से ही पृथ्वी कहलाने लगीं. उससे पहले वह धरा या धरती थी.

महाराज पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प लिया. जब 99 यज्ञ पूरे हुए तो इंद्र को भय हुआ कि कहीं सौंवे यज्ञ के बाद पृथु इंद्र की पदवी न प्राप्त कर लें.

यज्ञ रोकने के लिए इंद्र साधू का वेश धरकर यज्ञ का अश्व चुरा ले गए. अत्रि ऋषि ने इंद्र को भागते देख लिया. पृथु के पुत्र ने अश्व के चोर का पीछा करके पकड़ लिया.

लेकिन इंद्र ने साधू का वेश बनाया था इसलिए पृथु पुत्र ने उससे अश्व वापस नहीं छीना. अत्रि ने बताया कि वह साधू नहीं बल्कि इंद्र है तो वह उन्हें पकडने गया.

इंद्र भय से अश्व छोड़कर भाग गए. अश्व को लाकर घुड़साल में बांधा गया. इंद्र फिर से अश्व चुरा ले गए. पृथुपुत्र कई बार इंद्र से अश्व छीनकर लाया. इसलिए उसका नाम विजितश्व हुआ.

पृथु को इंद्र की करतूत का पता चला तो दंड देने के लिए उन्होंने अस्त्र उठा लिए. अत्रि ने समझाया कि अश्वमेध का व्रत लेने के कारण वह किसी का वध नहीं कर सकते.

अत्रि ने कहा कि इंद्र की करतूत का दंड देने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं. मंत्रों की शक्ति से वह इंद्र को यहां खींच लाएंगे और यज्ञ कुंड में भस्म कर देंगे.

इंद्र का आह्वान करके ऋत्विजों ने आहुति डाली तो ब्रह्मा प्रकट हुए. उन्होंने पृथु से कहा कि इंद्र आपकी ही तरह नारायण का अंश है. इसलिए उसका नाश करना उचित नहीं होगा.

भगवान विष्णु स्वयं इंद्र को लेकर वहां प्रकट हुए. इंद्र को क्षमा करने को कहते हुए उन्होंने पृथु से वरदान मांगने को कहा. पृथु ने इंद्र को क्षमा कर दिया.

पृथु ने भगवान से कहा- आपके दर्शन के बाद कुछ भी सांसारिक वस्तु पाने की इच्छा नहीं. आप मुझे सहस्त्र कान दे दीजिए जिससे मैं आपकी स्तुति सुनता रहूं.

पृथु ने अपना राज्य पुत्र विजितश्व को सौंपा और पत्नी संग वन को चले गए. समय आने पर उन्होंने शरीर त्याग और उनके साथ ही उनकी पत्नी सती हो गईं.

विजितश्व ने लंबे समय तक राज किया. उनके वंश में ही राजा बर्हिषत हुए जिनका विवाह सागर की पुत्री शतद्रुति से हुआ.

शतद्रुति इतनी रूपवती थीं कि उनके रूप पर सभी देवता मोहित थे. विवाह के फेरों के समय तो स्वयं अग्निदेव भी उन पर मोहित हो गए थे.

बर्हिषत और शतद्रुति के दस पुत्र हुए जो प्रचेता कहलाये. पिता की आज्ञा से प्रचेता सागर के भीतर ही तप करने चले गए.

प्रचेताओं को भगवान शिव के दर्शन हुए. उनसे दीक्षा लेकर प्रचेताओं ने तप आरंभ किया. बर्हिषत एक के बाद एक यज्ञ करते जा रहे थे.

एक दिन नारद ने राजा को समझाया कि यज्ञ आदि करने के बाद भी आप कर्मबंधन से मुक्त होने की बजाय उसमें और बंधते जा रहे हैं. इससे मोक्ष प्राप्त नहीं होगा.

जिन पशुओं की तुम यज्ञों में बलि कर रहे हो वे सब प्रतिशोध के लिए इंतज़ार कर रहे हैं. नारदजी ने बर्हिषत को पुरंजन की कथा सुनाई जिससे उनकी आंखें खुलीं.

कल की भागवत में पढ़िए पुरंजन की कथा.

माता ने किया घोर तिरस्कार, नारायण ने दिया प्रेम अपारः भागवत कथा में बालक ध्रुव के ध्रुवतारा होने के वरदान का प्रसंग

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मनु और शतरूपा की संतानों में हमने अभी तक उनकी पुत्रियों के विषय में चर्चा की. आज उनके पुत्र उत्तानपाद और उनकी संतानों की कथा आरंभ करते हैं.

मनुपुत्र राजा उत्तानपाद की दो पत्नियां थीं- सुरुचि और सुनीति. सुनीति के पुत्र थे ध्रुव और सुरुचि के पुत्र हुए उत्तम. राजा सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे.

एक दिन उत्तम पिता के संग खेल रहे थे. तभी ध्रुव वहां आए और छोटे भाई को पिता की गोद में देख वह भी उनकी गोद में आने का प्रयास करने लगे.

यह देख सुरुचि क्रोधित हो गईं. उन्होंने ध्रुव को पिता की गोद से बलपूर्वक उतार दिया और बोलीं- पिता की गोद में बैठने का सुख पाना चाहते थे तो मेरे गर्भ से जन्म लेना चाहिए था.

ध्रुव रोने लगे. उन्होंने पिता की ओर देखा लेकिन पत्नी प्रेम में डूबे उत्तानपाद बेटे के साथ हुए इस अन्याय पर भी चुप रह गए. ध्रुव ने अपनी माँ से सारी बात बताई.

ध्रुव ने माता से पूछा- पिता का प्रेम प्राप्त करने का क्या उपाय है? सुनीति बोलीं- नारायण की उपासना से संसार के सभी सुख प्राप्त होते हैं. तुम नारायण को प्रसन्न करो.

ध्रुव के मन में माता की बैठ गई. वह तप करने निकल पड़े लेकिन पांच साल के बालक को नारायण की आराधना की विधि नहीं आती थी. वह वन में भटक रहे थे.

देवर्षि नारद ने वन में ध्रुव को देखा. नारद ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि तुम्हारी उम्र तप की नहीं है. लेकिन बालक ध्रुव निश्चय करके आए थे.

नारदजी ने उन्हें नारायण मंत्र की दीक्षा दी और कहा- यमुना किनारे मधुवन में जाओ और वहां इस मंत्र को जपते हुए प्रभु का ध्यान करना.

नारायण ने ध्रुव को नारायण का रूप बताया. ध्रुव नारायण की उसी छवि का ध्यान करते द्वादशाक्षर मंत्र ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय का जप करने लगे.

इधर ध्रुव के वन चले जाने से उत्तानपाद अपने व्यवहार पर बहुत लज्जित हुए. ध्रुव को दीक्षित करने के बाद नारद उत्तानपाद के पास आए और चिंता का कारण पूछा.

उत्तानपाद ने कहा- मैं पुत्र के लिए चिंतित हूं कहीं वन में उसे पशु न खा गए हों. नारद ने बताया कि ध्रुव साधारण बालक नहीं. स्वयं नारायण उनकी रक्षा कर रहे हैं. आगे जाकर ध्रुव प्रतापी राजा होंगे.

ध्रुव वन में श्रीहरि को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करने लगे. पहले मास उन्होंने सिर्फ फल खाए, दूसरे महीने घास और सूखे पत्ते खाने लगे.

तीसरे महीने सिर्फ जल पर और चौथे महीने सिर्फ हवा पर रहे. पांचवे महीने से ध्रुव ने श्वास लेना भी बंद कर दिया. तप से घोर ऊर्जा प्रकट होने लगी. तप की अग्नि से देवता भी पीड़ित होने लगे.

वे नारायण के पास गए और उनसे बालक को दर्शन देने की विनती की. नारायण ध्रुव के सामने आए और उनसे आंखें कोलने को कहा. ध्रुव को नारायण के दर्शन हुए.

नारायण को सामने देखकर बालक ध्रुव को समझ में न आया कि वह नारायण की स्तुति किस प्रकार करें. वह बोल नहीं पा रहे थे. आनंद में डूबे ध्रुव की आँखों से आंसू बहने लगे.

नारायण बालक के मन की भावनाएं समझ गए. उन्होंने प्रेम से ध्रुव के गालों को छू दिया. ध्रुव के मन में सारा वेदज्ञान प्रकाशित हो उठा. श्रीहरि ने वरदान मांगने को कहा.

ध्रुव ने कहा- प्रभु आपके दर्शन के बाद अब किसी चीज की कोई अभिलाषा ही नहीं बची. नारायण ने कहा तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी.

तुम महान राजा बनोगे और तीस हज़ार वर्षों तक शासन करोगे. इस जीवन के बाद तुम ध्रुव तारा के रूप में अंतरिक्ष में सर्वोच्च पद प्राप्त करोगे और सप्तर्षि तुम्हारी परिक्रमा करेंगे.

यह वरदान देकर नारायण अन्तर्धान हो गए. उनके जाने के बाद ध्रुव को चेतना आई. ध्रुव पछताने लगे कि उन्होंने नारायण से सांसारिकता से मुक्ति और मोक्ष क्यों नहीं माँगा?

ध्रुव का तप समाप्त हो गया. वह अपने नगर को लौटे. राजा उत्तानपाद पत्नियों और छोटे पुत्र उत्तम के साथ स्वागत के लिए आए और ध्रुव को गले से लगा लिया.

उत्तानपाद ने ध्रुव का विवाह किया और उन्हें गद्दी सौंपकर तपस्या के लिए वन में चले गए. नारायण के आशीर्वाद से ध्रुव महान प्रजापालक राजा बने.

एक बार ध्रुव का छोटा भाई उत्तम वन में शिकार के लिए गया. वहां यक्षों से उत्तम का विवाद हो गया और यक्षों ने उसकी हत्या कर दी. पुत्र की मृत्यु से दुखी सुरुचि ने प्राण त्याग दिए.

ध्रुव ने अपनी सेना समेत यक्षों पर आक्रमण कर दिया. महान योद्धा ध्रुव ने अकेले ही सहस्त्र यक्षों का संहार कर दिया. यक्षों का विनाश होता देखकर ध्रुव के दादा स्वयंभावु मनु ने उन्हें दर्शन दिए.

मनु ने ध्रुव से कहा- ये यक्ष शिवभक्त कुबेर के सेवक हैं. निर्दोष यक्षों को क्षमा कर दो. उत्तम की हत्या के लिए वे उत्तरदायी नहीं हैं. दादा के आदेश पर ध्रुव ने यक्षों को माफ कर दिया.

इससे कुबेर बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने ध्रुव को ऐश्वर्ययुक्त बना दिया. नारायण की भक्ति करते हुए ध्रुव ने तीस हजार वर्षों तक कुशल राजा की तरह शासन किया.

उसके उन्होंने अपने बड़े पुत्र उत्कल को राज्य का कार्यभार सौंपकर संन्यास ले लिया और फिर से तप करने लगे.

दार्शनिक स्वभाव के उत्कल की सत्ता में रूचि न थी. उनकी जगह उनके भाई वत्सर को राजा बनाया गया. वत्सर का एक क्रूर और अधर्मी पुत्र वेण हुआ जिससे अत्याचार से प्रजा दुखी थी.

-प्रभु शरणम् मंडली
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शिव का सुरेश्वर अवतारः उपमन्यु की परीक्षा के लिए महादेव ने धर लिया इंद्र का रूप, भक्त को प्रदान किए संसार के सारे ऐश्वर्य

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व्याघ्रपाद मुनि के एक पुत्र का नाम था उपमन्यु. उपमन्यु को पूर्वजन्म में ही सिद्धि की प्राप्ति हो गई थी. उन्हें मुनिकुमार के रूप में एक और जन्म लेना पड़ा था. उपमन्यु अपनी माता के साथ मामा के घर में रहते थे.

परिवार दरिद्रता से ग्रसित था. एक दिन उपमन्यु ने माता से पीने के लिए दूध मांगा. माता पुत्र की इच्छा पूरी करने में असमर्थ थीं. बालक की बातें सुनकर माता की हृदय पीड़ा से भर गया.

उन्होंने कुछ चावल पीसे और उसको पानी में घोलकर दूध का रूप दे दिया. वह दूध उपमन्यु को पीने को दिया. दूध पीकर उपमन्यु ने कहा- यह तो नकली दूध है. मुझसे छल कर रही हो. और वह रोने लगा.

उपमन्यु की मां ने कहा- बेटा, हम बनवासी हैं. हमारे पास दूध के लिए कोई प्रबंध भी नहीं. भगवान शिव संसार के सभी दुधारु पशुओं के स्वामी हैं. उनकी कृपा से ही दूध प्राप्त होता है.

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कैसे प्रकट हुआ था ओंकारतीर्थ का परमेश्वर लिंगः ओंकारेश्वर तीर्थ का महात्म्य बताती शिव पुराण की कथा

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शास्त्रों में वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को ओंकारेश्वर धाम में परमेश्वर लिंग का दर्शन उत्तम फलदायक और मोक्षदायक बताया गया है. आज वैशाख शुक्ल चतुर्दशी पर आपके लिए लेकर आया हूं ओंकारेश्वर धाम की पौराणिक कथा.

एक बार नारद ऋषि महादेव की आराधना में लीन थे. कुछ समय तक आराधना में बिताने के बाद वह गिरिराज विन्ध्य पर पहुंचे. विन्ध्य ने नारदजी का बड़ा सत्कार किया.

सत्कार करते हुए बातों-बातों में विंध्य ने अपना बखान आरंभ कर दिया. विंध्य ने कहा- मैं सर्वगुण सम्पन्न हूं. मेरे पास हर प्रकार की सम्पदा है किसी वस्तु की कमी नहीं है.

विन्ध्य की बातों से उनका अहंकार झलक रहा था. विंध्याचल जैसे श्रेष्ठ पर्वत को गर्व से चूर देखकर नारदजी को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने उसके अहंकार का नाश करने का मन बनाया.

विन्ध्य ने जैसे ही अपनी बात समाप्त की नारदजी ने उलाहना देने के अंदाज में गहरी सांस खींची और शांत हो गए. उनके मुख पर कोई भाव नहीं था. विंध्याचल समझ गए कि नारदजी को कुछ कमी खली है.

विन्ध्य पर्वत ने पूछा- देवर्षि आपको मेरे पास किस साधन-संपदा की कमी दिखाई दी? आपने असंतोष में भरी लम्बी सांस खींची है यह किस कारण था?

नारद जी बोले- विन्ध्यांचल आपके पास सब कुछ है, किन्तु मेरू पर्वत आपसे बहुत ऊंचा है. उस पर्वत के शिखर देवलोक को छूते हैं. मुझे लगता है कि आपके शिखर वहां तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे.

इस प्रकार कहकर नारदजी वहां से चले गए. उनके जाने पर विन्ध्यांचल को बहुत पछतावा होने लगा. अपने शिखर की ऊंचाई कम जानकर वह मन ही मन शोक करने लगा.

उसने निश्चय किया कि अब वह भगवान शिव की आराधना और तपस्या करेगा और वरदान में अपने शिखर की ऊंचाई ऐसी मांगेगा जो देवलोक को छूते हों.

विंध्यांचल ने भगवान शंकर की आराधना आरंभ कर दी. जहां पर साक्षात ओंकार विद्यमान हैं वहा पहुंचकर उसने मिट्टी का शिवलिंग बनाया और छ: महीने तक लगातार शिवपूजन में मनोयोग से लगा रहा.

वह शम्भू की आराधना-पूजा के बाद निरन्तर उनके ध्यान में तल्लीन हो गया और अपने स्थान से इधर-उधर नहीं हुआ. उसके कठोर तप से भगवान शिव उसपर प्रसन्न हो गए.

महादेव ने विन्ध्यांचल को अपना दिव्य स्वरूप प्रकट कर दिखाया. वह विन्ध्यांचल से बोले- ‘विन्ध्य! मैं तुम पर प्रसन्न हूं. मैं भक्तों को उनका अभीष्ट वर प्रदान करता हूं, बोलो तुम्हें क्या चाहिए.

विन्ध्य ने कहा- ‘देवेश्वर महेश! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो भक्तवत्सल! हमारे कार्य की सिद्धि करने वाली वह अभीष्ट बुद्धि हमें प्रदान करें!’.

विन्ध्य पर्वत की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान भोलेनाथ ने कहा- पर्वतराज! मैं तुम्हें वह उत्तम बुद्धि प्रदान करता हूं. तुम जिस प्रकार का काम करना चाहो, वैसा कर सकते हो.

भगवान शिव ने जब विन्ध्य को वर दिया, उसी समय देवगण तथा कुछ ऋषिगण वहां पधारे. उन्होंने महादेव की स्तुति करके कहा- ‘प्रभो! आप हमेशा के लिए यहां स्थिर होकर निवास करें.

देवताओं की बात से भगवान शिव को बड़ी प्रसन्नता हुई. लोकों को सुख पहुंचाने वाले परमेश्वर शिव ने उन ऋषियों तथा देवताओं की बात को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया.

वहां स्थित एक ही ओंकारलिंग दो स्वरूपों में विभक्त हो गया. प्रणव के अन्तर्गत जो सदाशिव विद्यमान हुए, उन्हें ‘ओंकार’ नाम से जाना जाता है. इसी प्रकार पार्थिव मूर्ति में जो ज्योति प्रतिष्ठित हुई थी, वह ‘परमेश्वर लिंग’ के नाम से विख्यात हुई.

परमेश्वर लिंग को ही ‘अमलेश्वर’ भी कहा जाता है. इस प्रकार भक्तजनों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले ‘ओंकारेश्वर’ और ‘परमेश्वर’ नाम से शिव के ये ज्योतिर्लिंग जगत में प्रसिद्ध हुए.

इस प्रकार भगवान शिव के प्रादुर्भाव और निरन्तर निवास से विन्ध्याचल पर्वत को बड़ी प्रसन्नता हुई. विंध्यांचल को अभीष्ट वर मिल गया, महादेव का निवास हो गया इससे पर्तश्रेष्ठ के मन की पीड़ा समाप्त हो गई.

शिव पुराण में कहा गया है कि जो मनुष्य भगवान शंकर का पूजन कर निरन्तर ध्यान करता है, उसे दोबारा माता के गर्भ में नहीं आना पड़ता है अर्थात उसको मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है. (शिव पुराण से)

ब्रह्मा ने क्यों किया मृत्यु निर्माण का विचारः महाभारत में वर्णित मृत्यु देवी की उत्पत्ति कथा

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ब्रह्माजी को सृष्टि रचना का भार मिला था सो वह रचनाकर्म में जुट गए लेकिन उन्होंने संहार की कोई व्यवस्था नहीं की. ब्रह्माजी के कारण संसार में प्राणी तो आते थे लेकिन जा नहीं सकते थे क्योंकि मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं थी.

इस कारण जल्द ही संपूर्ण पृथ्वी प्राणियों से भर गई. यह देख ब्रह्माजी चिंतित हो गए. जीवों का संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी था कि संहार भी हो, लेकिन कैसे हो, यह समझ में नहीं आ रहा था.

चिंता क्रोध में बदल गई और ब्रह्मा के अंगों से प्रचंड अग्नि निकलने लगी जिसमें प्राणी भस्म होने लगे. अचानक आई आपदा से चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच गई. राक्षसों के अधिपति स्थाणु रूद्र ब्रह्मा के पास आए.

स्थाणु ने स्मरण कराया- यह सृष्टि आपने बड़े लगन और परिश्रम से बनाई. अब इसे स्वयं क्यों भस्म कर रहे हैं. उनके कष्टों को देखिए, मेरी तरह आपका मन भी करुणा से भर जाएगा और यह विध्वंस नहीं कर पाएंगे.

ब्रह्माजी ने कहा- हे रूद्र मैं भी मन से ऐसा नहीं चाहता किंतु पृथ्वी पर बढ़ते भार की चिंता के कारण यह शोक है. मैंने प्राणी संतुलन का विचार किया पर मार्ग नहीं सूझता. इससे मेरा क्रोध बढ़ा है.

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जातीय अहंकार व जातीय विद्वेष पतन की ओर ले जाता है, भीष्म ने युधिष्ठिर को सुनाई थी पद्मनाभ नाग की कथाः महाभारत की नीति कथा

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नैमिषारण्य में गोमती के तट पर धर्मात्मा, बुद्धिमान और शास्त्रों का ज्ञाता पद्मनाथ नामक एक नाग रहता था. वह तप, संयम और उत्तम विचारों से युक्त हमेशा स्वाध्याय में लगा रहता.

तीर्थयात्रा पर निकला एक ब्राह्मण उसके दर्शन को पहुंचा. नागराज घर पर नहीं थे तो नागपत्नी ने अतिथि का सत्कार किया. नागपत्नी ने कहा कि नागराज घर पर नहीं हैं. वह आते ही आपके दर्शन करेंगे.

ब्राह्मण ने कहा- जब तक उनके दर्शन नहीं होते तब तक मैं गोमती के तट पर निराहार उनकी प्रतीक्षा करूंगा. वह नागपत्नी के बार-बार कहने पर भी निराहार गोमती के तट पर बैठा साधना करने लगा.

नागपत्नी परिवार के बुजुर्गों और बच्चों को लेकर ब्राह्मण के पास पहुंची और कहा- हम गृहस्थ हैं और गृहस्थ का अतिथि भोजन न करे तो मन क्लेशयुक्त रहता है. आप हमें सत्कार का अवसर दीजिए.

किंतु ब्राह्मण ने उनका आभार व्यक्त कर यह कहते हुए लौटा दिया कि उसने दर्शन का व्रत लिया है. छह दिनों बाद नागराज आए तो पत्नी ने सब बताया.

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मोहिनी एकादशी व्रत कथा – महर्षि वशिष्ठ ने श्री रामचंद्रजी को सुनाई मोहिनी एकादशी व्रत की महिमा

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धर्मराज युधिष्ठिर कहने लगे कि हे कृष्ण! वैशाख मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी का क्या नाम है तथा उसकी कथा क्या है? इस व्रत की क्या विधि है, यह सब विस्तारपूर्वक बताइए।
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श्रीकृष्ण कहने लगे कि हे धर्मराज! मैं आपसे एक कथा कहता हूँ, जिसे महर्षि वशिष्ठ ने श्री रामचंद्रजी से कही थी। एक समय श्रीराम बोले कि हे गुरुदेव! कोई ऐसा व्रत बताइए, जिससे समस्त पाप और दु:ख का नाश हो जाए। मैंने सीताजी के वियोग में बहुत दु:ख भोगे हैं।

महर्षि वशिष्ठ बोले- हे राम! आपने बहुत सुंदर प्रश्न किया है। आपकी बुद्धि अत्यंत शुद्ध तथा पवित्र है। यद्यपि आपका नाम स्मरण करने से मनुष्य पवित्र और शुद्ध हो जाता है तो भी लोकहित में यह प्रश्न अच्छा है। वैशाख मास में जो एकादशी आती है उसका नाम मोहिनी एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य सब पापों तथा दु:खों से छूटकर मोहजाल से मुक्त हो जाता है। मैं इसकी कथा कहता हूँ। ध्यानपूर्वक सुनो।

सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नाम की एक नगरी में द्युतिमान नामक चंद्रवंशी राजा राज करता था। वहाँ धन-धान्य से संपन्न व पुण्यवान धनपाल नामक वैश्य भी रहता था। वह अत्यंत धर्मालु और विष्णु भक्त था। उसने नगर में अनेक भोजनालय, प्याऊ, कुएँ, सरोवर, धर्मशाला आदि बनवाए थे। सड़कों पर आम, जामुन, नीम आदि के अनेक वृक्ष भी लगवाए थे। उसके 5 पुत्र थे- सुमना, सद्‍बुद्धि, मेधावी, सुकृति और धृष्टबुद्धि।

क्षमा बड़ी या दंड, शास्त्र को शस्त्र बनाकर प्राण लेने वाले के प्राण संकट में आते हैः महर्षि अष्टावक्र की कथा

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उद्दालक ऋषि ने अपने प्रिय शिष्य कहोड़ के साथ अपनी पुत्री सुजाता का विवाह कर दिया था. एक बार जब सुजाता गर्भवती थी और कहोड़ वेद पाठ कर रहे थे. वह बार-बार उच्चारण में चूक कर रहे थे.

तभी सुजाता के गर्भ से आवाज़ आई- “आपका उच्चारण अशुद्ध है”. यह सुनते ही कहोड़ कुपित हुए. उन्होंने पूछा कि कौन है जो मेरे उच्चारण को चुनौती दे रहा है, मेरे समक्ष प्रकट हो.

फिर से आवाज आई- पिताजी में आपका अंश हूं जो माता के गर्भ में स्थित हूं. आप जैसे ज्ञानी के मुख से अशुद्ध उच्चारण सुनकर मैंने टोका.

कुपित होकर कहोड़ ने शाप दिया- तू जन्म से पूर्व ही मीनमेख निकालने लगा है. तेरे आठ अंग टेढ़े हो जाएंगे. कहोड़ शास्त्रार्थ से धन प्राप्ति की इच्छा के साथ राजा जनक के दरबार में पहुंचे.

जनक के राजपुरोहित बन्दी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती देते और हारने वाले को जल में डुबोकर मार डालते. बंदी ने कुतर्कों से कहोड़ को पराजित कर दिया और पानी में ड़ुबाकर मार डाला.

शाप के प्रभाव से कहोड़ को आठ स्थानों से टेढ़े अंगों वाला पुत्र जन्मा. इसलिए उसका ‘अष्टावक्र’ नाम पड़ा. कहोड़ की मृत्यु के बाद पुत्री सुजाता अपने बेटे अष्टावक्र को लेकर पिता के आश्रम में आ गई.

अष्टावक्र के हाथ-पैर टेढ़े-मेढ़े थे, कद नाटा था, पीठ पर कूबड़ निकला था, चेहरा भद्दा था पर मां सुजाता का वही एक आसरा था.  अष्टावक्र शरीर से भले बेढंगे थे, पर बुद्धि बड़ी तीव्र थी.

अपनी तीव्र बुद्धि के कारण उसने थोड़ी ही उम्र में वेद-शास्त्रों तथा धर्म-ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन कर लिया. एक दिन अष्टावक्र अपने नाना की गोद में बैठा था तभी उद्दालक का पुत्र श्वेतकेतु आया.

कैसा रहेगा आपका यह सप्ताहः साप्ताहिक राशिफल (26 अप्रैल से 02 मई)  

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मेषः

आपके लिए यह सप्ताह मिले-जुले फल वाला रहेगा. इस सप्ताह आपके धैर्य की परीक्षा हो रही है. यदि परीक्षा में पास हुए तो आगे चलकर बहुत लाभ होगा. सूर्य के मंगल की राशि में होने के कारण आपके अंदर आक्रोश बहुत ज्यादा आएगा इसलिए आपको स्वयं पर नियंत्रण रखना होगा अन्यथा आप अपना नुकसान कर लेंगे. आर्थिक वजहों से भी आपको कुछ मानसिक तनाव हो सकता है. सप्ताह के मध्य में परिवार में कोई विवाद या करीबीजनों से कोई तनातनी होने की आशंका है. आपको सुझाव है कम से कम बोले या संभव हो तो मौन व्रत धारण कर लें. प्रोफेशनल कार्य करने वाले लोगों और साझेदारी का व्यापार करने वाले लोगों को भी विशेष रूप से सावधान रहने की जरूरत है. क्षणिक क्रोध के कारण आपके वर्षों पुराने संबंधों पर आंच आ सकती है. विद्यार्थियों के लिए समय अच्छा है. यदि उन्हें किसी प्रतियोगिता परीक्षा या नामांकन संबंधी किसी परिणाम की आशा है तो उन्हें प्रसन्नता होने वाली है. सप्ताह के अंत में यात्रा का योग बन रहा है. पैरों में चोट-चपेट की आशंका है इसलिए वाहन चलाते समय या सड़क पर चलते समय विशेष रूप से सतर्क रहें. वैवाहिक जीवन भी मध्यम फलवाला रहेगा. यानी घर-परिवार में भी आपको सामंजस्य बनाने की आवश्यकता है. प्रेम संबंधों के लिए भी समय अनुकूल नहीं, हनुमत आराधना करें. प्रतिदिन सोने से पहले हनुमान चालीसा व बजरंग बाण का पाठ अवश्य कर लें.

 

वृषः

आपके लिए यह सप्ताह शुभ और प्रसन्नता से भरा रहने वाला है. कोई अच्छी सूचना मिलने से मन प्रसन्न होगा और परिवार में भी उल्लास का माहौल बनेगा, आपके सभी रुके हुए कार्यों में तेजी आने लगेगी. कोई नया प्रोजेक्ट आरंभ करने की सोच रहे हैं तो उसमें आगे बढ़िए. संपत्ति की खरीद-बिक्री से संबंधित निर्णय लेने का समय आ गया है, लाभदायक रहेगा. सप्ताह के मध्य में संपत्ति या कारोबार से जुड़ी कोई अच्छी सूचना मिल सकती है. आपकी जिम्मेदारियां बढ़ने वाली हैं. साझेदारी का कारोबार करने वालों को थोड़ा संभल कर रहने की जरूरत है. साझेदार के साथ किसी बात पर गलतफहमी हो सकती है जिससे कारोबार प्रभावित होगा. यदि आपने जिद छोडकर रिश्तों में समझदारी दिखा पाए तो लाभ के अच्छे संकेत हैं. शारीरिक पीड़ा की आशंका है यानी शरीर में चोट लग सकती है या ज्वर आदि के कारण शरीर में दर्द होगा. सप्ताह के अंत में कुछ मानसिक तनाव की स्थिति पैदा होगी. विवाहित लोगों का दांपत्य जीवन मधुर रहेगा. जिनके प्रेम संबंध चल रहे हैं उन्हें साथी से बहुत सपोर्ट मिलेगा. विवाह के इच्छुक लोगों को रिश्ते आ सकते हैं. परीक्षार्थियों को यदि किसी परीक्षा में सफलता की संभावना है तो समझ लीजिए कि परिणाम अनुकूल आने वाला है. ऊं नमः शिवाय की एक माला का जप करें और शिवजी को जल चढ़ावें.

 

 

मिथुनः

राशि से द्वितीय भाव में गुरु और चंद्रमा कार्यों में दृढता प्रदान करेंगे यानी आपका मनोबल बढ़ाएंगे. आपकी विचारधारा में परिवर्तन दिखाई पड़ेगा. कार्यशैली में कई ऐसे बदलाव आएंगे जो आपको ज्यादा व्यवस्थित करेंगे. विदेश में रहने वाले किसी परिजन या मित्र के कारण कोई लाभ हो सकता अथवा कोई ऐसा कार्य सफल होने वाला है जिसका संबंध विदेश मामलों से है. व्यापारियों की विदेश यात्रा हो सकती है या कोई अंतरराष्ट्रीय डील हो सकती है. नौकरीपेशा लोगों को नौकरी में कुछ दिक्कत हो सकती है. सप्ताह के मध्य में आय में गिरावट आ सकती है. संतान के कारण मन में कोई चिंता हो सकती है. सप्ताह के मध्य तक स्थितियों में सुधार होने लगेगा. विद्यार्थियों के लिए संघर्ष का समय है. पत्नी के साथ तनातनी की स्थिति पैदा न होने दें. व्यर्थ की भागदौड़ हो सकती है. शरीर में पीड़ा की शिकायत होगी. यदि बहुत जरूरी न हो तो यात्रा से बचें. प्रेम संबंधों से दूरी बनाए रखें. गणेशजी को दूर्वा चढ़ाएं और गणपति मंत्र का पाठ करें.

कर्कः

गुरु और चंद्रमा दोनों की युति एक राशि में होने से यह समय सफलतादायक रहेगा. किसी नए कार्य का प्रस्ताव मिलेगा. उसे स्वीकर कर लें आपके लिए लाभप्रद रहेगा. व्यापार के लिए यह समय काफी अच्छा है. विद्यार्थियों के लिए भी समय शुभ सूचनाएं लेकर आ सकता है. किसी परीक्षा या सेमिनार में शामिल होने का अवसर मिलेगा या सफलता मिल सकती है. किसी आत्मीयजन से मुलाकात होगी और उनसे कोई सहायता या मार्गदर्शन मिलेगा जिससे आपका मन प्रसन्न होगा. इससे धन का आगमन भी हो सकता है. यदि विदेश यात्रा का कार्यक्रम बहुत दिनों से टल रहा है तो उसमें बहुत तेजी आएगी. कुछ पुराने रूके हुए कार्य पूरे होंगे. नौकरीपेशा लोगों को शुक्रवार को प्रमोशन या ऑफिस में प्रशंसा मिल सकती है लेकिन आपको गोपनीयता बहुत बरतनी होगी. आपका मन गोपनीयता भंग करने को उकसाएगा ऐसा न करें और किसी व्यर्थ के कार्य में न पड़ें. वैवाहिक जीवन अच्छा है. प्रेम संबंधों में भी मधुरता आएगी. गले में इंफेक्शन हो सकता है. ऊं नमः शिवाय का जप करते हुए शिवजी को जल चढ़ाएं तो सौभाग्य में वृद्धि होगी.

 

सिंहः

बृहस्पति एवं चंद्रमा के बारहवें भाव में होने के कारण सप्ताह के आरंभ में किसी भी कार्य को पूर्ण कराने के लिए अनावश्यक भाग-दौड़ करनी पड़ सकती है. परेशानी तो आएगी किंतु सफलता भी मिलेगी. बुधवार से स्थिति में सुधार होगा. आपकी जिम्मेदारियां बढ़ सकती हैं. सप्ताह के मध्य में कोर्ट-कचहरी से जुड़े मामलों में सफलता मिलेगी. परिवार में कोई विवाद हो सकता है या आपको बेवजह किसी विवाद का हिस्सा बनना पड़ सकता है इसलिए जहां तक संभव हो टालें. नौकरीपेशा लोगों को प्रमोशन की बात हो सकती है या प्रशंसा मिल सकती है. विद्यार्थियों के लिए समय अच्छे संयोग लेकर आ रहा है. थोड़ी मेहनत का भी ज्यादा मिल सकता है. व्यापार के लिए भी समय अच्छा है. जीवनसाथी का सहयोग लें या व्यापारिक विषयों पर उनसे विमर्श करें तो लाभ ज्यादा होगा. दांपत्य जीवन ठीक-ठाक बीतेगी. पेट में कुछ परेशानी हो सकती है. ऊं घृणि सूर्याय नमः का उच्चारण करते हुए सूर्य को जल दें तो सौभाग्य में वृद्धि होगी.

 

कन्याः

आपके लिए यह समय अच्छे संयोग वाला है और बहुत महत्वपूर्ण है. अपने जीवन में कई विषयों पर आप निर्णायक मोड़ पर खड़े हैं, चतुराई और सूझबूझ से काम लें तो सभी कार्य सफल होंगे. नौकरीपेशा लोगों के लिए समय अनुकूल है. आय में कमी-वृद्धि की स्थिति हो सकती है लेकिन घबराने की बात नहीं, आप नुकसान में नहीं रहेंगे. व्यापार अच्छा चलेगा, सप्ताह के मध्य में कुछ तेजी आएगी. कोई व्यापारिक यात्रा हो सकती है. विद्यार्थियों के लिए समय अच्छा है. पेट में कोई परेशानी होने से मन खिन्न रहेगा. सप्ताह के अंत में कोई यात्रा हो सकती है. यदि बहुत जरूरी न हो तो इसे टाल दें. पारिवारिक जीवन अच्छा चलेगा. परिवार से जुड़ा कोई बड़ा या कड़वा निर्णय लेना पड़ सकता है. किसी अपरिचित या नए व्यक्ति पर बिलकुल भरोसा न करें, आपके साथ छल होने की पूरी आशंका है. गणेश स्तोत्र का पाठ करें.

तुलाः

आपका मन थोड़ा विचलित रहेगा. किसी भी काम में मन नहीं लगेगा. काम में बेवजह अड़चनें भी आ सकती हैं. सूर्य और मंगल की प्रभाव राशि है. राशि के आगे शनि और पीछे राहु है इस कारण विध्न बाधाएं आ सकती हैं लेकिन राहत की बात यह है कि बाधाएं साथ-साथ निदान का रास्ता भी दिखाती जाएंगी. यदि अपने व्यापारिक कौशल का प्रयोग करें तो प्रोपर्टी के कारोबार में आप लाभ प्राप्त कर सकते हैं. नौकरीपेशा लोगों के लिए भी समय अनुकूल है. विद्यार्थियों के लिए भी समय ठीक-ठाक ही है. व्यापार के भी संकेत अच्छे हैं लेकिन लेन-देन में आपसे चूक होगी और आपका पैसा फंस सकता है. कोई गबन भी हो सकता है. पत्नी या पुत्र के स्वास्थ्य के कारण कुछ चिंता हो सकती है. आपको व्यर्थ की भागदौड़ हो सकती है. हाथ-पैरों में दर्द के कारण भी कुछ शारीरिक कष्ट होगा. शिवजी का जल व दही-मिश्री से अभिषेक करें.

 

 

वृश्चिकः

सप्ताह की शुरुआत अच्छी रहेगी. कई कार्य बनेंगे. कार्यों में सफलता मिलने से मन प्रसन्न रहेगा. सरकारी पक्ष से कोई लाभ हो सकता है. सप्ताह के मध्य में कुछ बाधाए आएंगी. आय के स्रोत रुकंगे इसलिए मन बेचैन हो सकता है लेकिन सप्ताह के अंत में फिर से स्थिति में सुधार हो जाएगा. किसी यात्रा की तैयारी हो सकती है. व्यापार के लिए समय मध्यमफल वाला रहेगा. कुछ भाग-दौड़ करने से कारोबार में लाभ होगा. विद्यार्थियों के लिए समय अनुकूल है. वैवाहिक जीवन अच्छा गुजरेगा. जिनके प्रेम संबंध चल रहे हैं उनका समय भी उल्लासपूर्ण बीतेगा. पेट में कुछ परेशानी हो सकती है. घर-निर्माण के काम या घर-निर्माण के कार्य से जुड़े लोगों के लिए समय बहुत अच्छा है. उनके कुछ रुके हुए कार्य पूरे होने लगेंगे. पेट में दर्द या इंफेक्शन के कारण थोड़ी परेशानी हो सकती है. मंगलवार को सुंदर कांड का पाठ करें तो सौभाग्य में वृद्धि होगी.

 

 

धनुः

यह सप्ताह सफलता दिलाने वाला रहेगा लेकिन इसके लिए आपको खुद बहुत प्रयास करने होंगे. यदि आपको किसी के सहयोग की प्रतीक्षा है तो आप आशा न रखें. स्वयं कदम बढ़ाने होंगे. यदि समय रहते सक्रिय नहीं हुए तो किसी सहयोग की आशा में सप्ताह का आरंभ निकल जाएगा और मध्य आते-आते आप मानसिक चिंता के शिकार होने लगेंगे. आप कहीं गलत स्थान पर निवेश कर सकते हैं या कोई फिजूलखर्ची करेंगे जिसके कारण आपको चिंता होगी. हर कार्य को थोड़ा सा करने के बाद उसको छोड़ देने की प्रवृति होगी, ऐसा न करें. मन को एकाग्र रखें, भटकाव के कारण आप समय और धन दोनों की हानि करने वाले हैं. आपका स्वभाव उग्र हो रहा है इस कारण आप कई ऐसे साथियों से दूर हो रहे हैं जो आपके शुभचिंतक हैं. इसे रोकें. गुरुवार और शुक्रवार को कुछ ऐसा कार्य हो सकता है जिससे आपको मानसिक प्रसन्नता हो. सप्ताह के मध्य में पेट में कोई परेशानी हो सकती है. नौकरीपेशा लोगों को नौकरी में उतार-चढ़ाव देखने को मिल सकता है. विवाहित लोगों की जीवनसाथी के साथ मनमुटाव या कोई गलतफहमी हो सकती है. प्रेम संबंधों में भी वैचारिक मतभेद होने की आशंका है जिससे मानसिक पीड़ा बढ़ेगी. आपको किसी भरोसेमंद और परिपक्व साथी की तलाश करनी चाहिए. अहम का त्याग करें. राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए समय अच्छा है. उन्हें तरक्की मिल सकती है. ऊ नमो भगवते वासुदेवाय की एक माला का जाप करें.

मकरः

राशि पर चंद्रमा और बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि से आपके कई कार्यों में तेजी आएगी. आप यदि कोई नया कार्य शुरू करने वाले हैं तो आगे बढ़ें, सहयोगियों की कोई कमी न रहेगी. कोई शुभ समाचार मिलेगा जिससे आपका आत्मबल बढ़ा रहेगा. परिजनों और मित्रों का भरपूर सहयोग मिलने से मन प्रसन्न रहेगा. नौकरीपेशा लोगों को नौकरी में प्रोन्नति की चर्चा हो सकती है. व्यापारियों के लिए समय अच्छा है. कोई बड़ी डील की संभावना बन सकती है. शनि की तीसरी दृष्टि के कारण राजनीतिज्ञों को कुछ पद या महत्वपूर्ण अवसर प्राप्त हो सकता है. चोट-चपेट की आशंका है इसलिए वाहन से विशेष रूप से सावधान रहें. विद्यार्थियों के लिए समय अच्छा रहेगा. पारिवारिक जीवन सुखकारी रहेगा किंतु प्रेम संबंधों में न पडें. यात्रा का योग है. कोई छोटी यात्रा हो सकती है. हनुमान चालीसा का प्रतिदिन पाठ करें.

 

 

कुंभः

सप्ताह के आरंभ में यदि कार्यों को योजनाबद्ध तरीके से पूर्ण करने के संकल्प के साथ आगे बढ़ें तो भाग्य आपका भऱपूर साथ देने वाला है लेकिन आपाधापी में लिए निर्णय उलटे पड़ने वाले हैं. कोई विशेष लाभ प्राप्त होने के योग बन रहे हैं, बस आप मौका न गवाएं. नौकरीपेशा लोगों को नौकरी में बदलाव हो सकता है. सप्ताह के मध्य अनुकूल रहने वाला है. किसी पुरानी समस्या से छुटकारा पाने का अवसर मिलेगा. नए विचारों के साथ आप जोश में भरकर कुछ नया कार्य आरंभ कर सकते हैं. परिवार के साथ घूमने जाने का कार्यक्रम बन सकता है. आप उतना ही बोलें जितना आप सचमुच करने के लिए सोच रहे हैं. डींगे हांकने के कारण सप्ताह के अंत में मानसिक तनाव होगा. पति-पत्नी के बीच किसी विषय पर कहासुनी होगी. प्रेम संबंधों में भी तनाव आ सकता है. व्यापारियों को व्यापार के सिलसिले में कोई यात्रा करनी पड़ सकती है. यह यात्रा लाभदायक ही रहेगी. चोट-चपेट की आशंका है इसलिए यदि यात्रा पर हैं तो विशेष रूप से सावधान रहें. शुगर के मरीजों के लिए समय कष्टदायक है. हनुमानजी की आराधना करें.

 

मीनः

यह सप्ताह मिले-जुले फल वाला रहेगा. सप्ताह के आरंभ में किसी बात को लेकर मानसिक चिंता रहेगी लेकिन मंगलवार के बीतते-बीतते आपकी चिंता कम होने लगेगी. कुछ नए कार्य हो सकते हैं जिससे आय में वृद्धि होगी. आय के नए स्रोत खुल सकते हैं. नौकरीपेशा लोगों को कुछ कठिन लक्ष्य मिलेंगे लेकिन आप अपने लगन व हौसले के दम पर उनको पूरा कर लेंगे जिससे आपकी प्रशंसा होगी. जमीन-जायदाद के कार्यों में सफलता मिलेगी. यदि विद्यार्थियों को पहले से कोई चिंता सता रही है तो वह चिंता दूर होने के रास्ते खुलेंगे. व्यापारियों को यात्रा करनी पड़ सकती है जिसका आगे चलकर लाभ होगा. इस सप्ताह आपके धैर्य की कई बार परीक्षा होगी. जो धैर्य रख लेंगे वे आगे निकलेंगे अन्यथा किसी बड़े विवाद में फंसने की भी पूरी आशंका है. विवाहित लोगों का पत्नी के साथ मामूली विवाद बड़ा रूप ले सकता है इसलिए गलतफहमियों से दूर रहें. जिन्हें विवाह की इच्छा है उन्हें रिश्ते आ सकते हैं. सप्ताह के अंत में कोई छोटी यात्रा हो सकती है. सप्ताह के अंत में कोई मानसिक तनाव होगा. प्रेम संबंधों में खटपट आएगी. ऊं बृं बहस्पत्यै नमः की एक माला का जाप करें.

प्रस्तुतकर्ताः

डॉ. नीरज त्रिवेदी, ज्योतिषाचार्य, पीएचडी
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय

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