गणेश जी ने ब्रह्मचारी रहने का संकल्प लिया था. दैवयोग से संयोग ऐसे बने कि उनका ब्रह्मचारी रहने का संकल्प तो टूटा ही दो विवाह हो गए.
गणेश जी की दो पत्नियां है- ऋद्धि एवं सिद्धि. पर गणेश जी ने ब्रह्मचारी रहने का संकल्प किया था. फिर दो-दो विवाह कैसे हो गए? है न आश्चर्य की बात. आपको भगवान श्रीगणेश की लीला कथा सुनाता हूं. इस कथा को सुनकर आपको बचपन की शरारतों की याद ताजा हो जाएगी.
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गणेश जी बचपन में बड़े नटखट थे. उनकी शरारत से माता पार्वती कई बार बहुत परेशानी हो जाती थीं. गणेश जी ने एक बिल्ली देखी. उसके साथ खेलते-खेलते अचानक हवा में घुमाकर उछाल दिया. बिल्ली धरती पर गिरकर घायल हो गई. गणेश जी बिल्ली की ओर दौड़े तो वह अचानक गायब हो गई. बालगणेश खेलते-खेलते थक चुके थे सो चले घर.
उन्हें भूख लग आई थी. वह माता पार्वती से भोजन मांगने लगे.
देवी पार्वती ने कहा- पुत्र अभी थोड़ी देर बाद आओ तब भोजन देती हूं क्योंकि अभी मेरे पूरे शरीर धूल लगी है. मैं धूल-धूसरित हूं. जोर से गिरीं भी हूं इसलिए शरीर में दर्द हो रहा है. अभी औषधि का लेप लगाकर विश्राम कर रही हूं.
बाल गणेश ने सुना कि माता को चोट लगी है तो दुखी हो गए. उन्होंने पार्वतीजी से पूछा- माता आप कैसे गिर गईं. आपका शरीर धूल-धूसरित कैसे हो गया?
माता बोलीं- पुत्र जिस बिल्ली को तुमने घुमाकर फेंका, वह मैं ही थी. मैं मातृस्वरूपा हूं. संसार के सभी जीव मेरे अंश हैं. इसलिए किसी को कष्ट न दिया करो. तुम किसी भी जीव को कष्ट देते हो वह कष्ट मुझे ही होता है.
गणेशजी को बड़ा दुख हुआ कि उनके कारण माता को कष्ट हुआ.
माता ने तो बालगणेश की शरारतें कम करने और एक अच्छी बात सिखाने के लिए सीख थी थी पर यह सीख उलटी पड़ती दिखी. गणपति जी ने माता की बात की अपने तरह से एक ऐसी व्याख्या कर ली कि माता के लिए पहले सी बड़ी समस्या पैदा हो गई.
गणेश जी इस बात को मन में गांठ बांधकर बैठ गए कि संसार के सभी जीव मेरी माता के ही अंश है. जब सभी जीव माता के अंश है तो मातृस्वरूप हो गए. इसलिए वह कभी विवाह नहीं करेंगे. सभी स्त्रियों को माता समान पूजेंगे.
इसी विचार में गणेश जी ने ब्रह्चारी रहने का विचार कर लिया. उन्हें शिवगणों से पूछा कि ब्रह्मचारी के लिए सबसे उत्तम कार्य क्या होता है. नंदी आदि गणों ने सोचा कि जिज्ञासावश पूछ रहे हैं बालगणेश सो उन्होंने बता दिया कि ब्रह्मचारी को ब्रह्म को साधना चाहिए. इसके लिए उसे पवित्र स्थल पर ध्यान तप आदि करना चाहिए.
गणपति को सुझाव अच्छा लगा. वह तप करने के लिए गंगातट पर पहुंचे और ध्यान लीन हो गए .
इसी बीच एक अन्य घटना हुई. असुरकुल में जन्मी तेजस्विनी वृंदा जिनका नाम तुलसी भी पड़ा, विवाह योग्य हुई. वृंदा इतनी तेजस्विनी थीं कि उनके योग्य कोई वर ही न था. गुरू के परामर्श पर वृंदा अपने लिए योग्य वर की तलाश में स्वयं निकलीं. सारे संसार में उन्हें अपने योग्य कोई वर नहीं मिला.
घूमते-घूमते तुलसी गंगातट पर पहुँची. वृंदा ने तप में लीन गणेश जी को देखा. उनके आकर्षक व्यक्तित्व और तप को देखकर वह उन पर मोहित हो गईं. गणेश जी को रिझाने के लिए वृंदा तरह-तरह के स्त्रियोचित प्रयास करने लगीं. इस प्रयास में वृंदा का भी काफी समय व्यतीत हो गया पर गणेश जी का तप चलता रहा. वृंदा ने भी प्रयास न छोड़ा.
गणेश जी वृंदा के प्रपंच देख रहे थे. उन्हें आश्चर्य़ भी हो रहा था कि यह स्त्री इस प्रकार का आचरण आखिर क्यों कर रही है. आखिरकार उन्होंने वृंदा से पूछ ही लिया- देवी आप कौन हैं और यहां पर तरह-तरह के स्वांग क्यों रच रही हैं?
वृंदा ने अपना पूरा परिचय बताया. यह भी कहा कि पिता उनके योग्य वर नहीं खोज पाए इसलिए मुझे स्वयं अपने योग्य वर के तलाश में निकलना पड़ा है. सब जगह घूम आई पर कहीं योग्य वर नहीं मिला.
वृंदा ने विनीत भाव में कहा- आपको देखकर मेरा कार्य पूर्ण हुआ. मैं आप पर मुग्ध हूं. आपको प्रसन्न करने के लिए तरह-तरह के स्त्रियोचित भंगिमाएं बना रही थी. मैं सर्वगुणसंपन्न हूं. जितनी रूपवती हूं, उतनी ही विचारवान, कार्य-व्यवहार कुशल. मेरे पिता का कहना है कि संसार में मेरे रूप-गुण की बराबरी की स्त्री दूसरी नहींं. हे पार्वतीनंदन आप मुझसे विवाह कर मुझे कृतार्थ करें. मैं आपको उत्तम पत्नी की तरह हर प्रकार से प्रसन्न रखूंगी.
गणेश जी भी चक्कर में पड़ गए. ब्रह्मचर्य का विचार किया है. आया हूं तप के लिए यहां यह विवाह करना चाह रही है. इसकी बुद्धि फिर गई है, इसे समझा-बुझाकर भेजना होगा.
गणेश जी समझाने लगे- देवी आपके पिता ने अगर आपको सर्वगुणसंपन्न कहा है तो ठीक ही कहा होगा. उस पर कोई तर्क-वितर्क करना उचित नहीं है. परंतु हे देवी किसी ब्रह्मयोगी का ध्यान भंग करना अशुभ होता है. मैं ने ब्रह्मचारी रहने का विचार किया है. इसलिए अब मैं तपोलीन रहना चाहता हूं. मैं विवाह बंधनों में नहीं बंध सकता. आप जैसी योग्य कन्या के लिए वर की क्या कमी. कोई दूसरा वर खोज लें. मैं विवाह नहीं कर सकता.
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मेरी जैसी योग्य कन्या से विवाह का प्रस्ताव कोई कैसे ठुकरा सकता है, वृंदा का गर्व उसकी बुद्धि को ग्रसने लगा. गणेशजी ने तो शांत होकर अपनी विवशता बताई थी पर रूप के गर्व मे चूर वृंदा ने उसका तात्पर्य गलत लिया.
वृंदा क्रोध से तिलमिलाने लगीं. उसने गणेशजी को फिर कहा- आप मुझसे विवाह करें अन्यथा मैं आपको श्राप दे दूंगी.
गणेशजी ने अनसुना कर दिया तो वृंदा ने श्राप दिया- तुम्हें अपने ब्रह्मचारी होने का बड़ा मान है. तुम मुझ जैसी रूपवती और गुणी कन्या को ठुकरा रहे हो. मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम्हारे एक नहीं दो-दो विवाह होंगे.
गणेशजी ने सुना तो आवाक रह गए. वृंदा ने उन्हें अकारण शाप दिया था. इससे उन्हें क्रोध आया. उन्होंने भी तुलसी को श्राप दिया.
गणेशजी बोले- तुम्हें अपने रूप और गुण पर बड़ा मान है. तुम कामोत्तेजित हो, विवाह के लिए इतनी लालायित हो. तुम पर असुर गुण हावी हुआ और अकारण मुझे शाप दिया. इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम्हारा विवाह असुर से होगा. तुम्हें जिस सुंदर शरीर पर इतना अभिमान है वह समाप्त हो जाएगा और तुम एक दिन वृक्ष बन जाओगी.
असुर से विवाह और वृक्ष बन जाने की शाप सुनकर वृंदा रोने लगीं. वह गणेशजी के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगीं. वृंदा के बार-बार याचना पर गणपति का क्रोध शांत हुआ.
गणेशजी बोले- मैं शाप को वापस तो नहीं लौटा सकता लेकिन शाप में ऐसा संशोधन कर सकता हूं कि यह शाप वरदान सिद्ध हो जाएगा. शाप भी तुम्हारे लिए आनंददायी हो जाएगा.
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