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निषेधयुक्ति से पति के मन की बातें हो रही थीं इससे वह प्रसन्न थे. फिर वह बोले- अच्छा ठीक है अठारह बुला लो किंतु पकवान मत बनाना, केवल दाल रोटी बनाकर खिला देना.
मैं चिढ़ गई. मैंने फिर तो खूब पकवान बनाए. मेरे पति जो-जो भी निषेधयुक्ति से कहते मैं उसका उलटा ही मैं करती. मेरे पति भीतर से प्रसन्न थे किंतु बाहर से ऐसा दिखाते जैसे अप्रसन्न हैं. इससे मैं संतुष्ट रहती.
पर दैवयोग से पति आगे निषेधयुक्ति की बात भूल गये और बोल पड़े- यह जो पिण्ड है इसे किसी अच्छे तीर्थ में डाल आना.
मैंने वह पिण्ड वहीं नाली में डाल दिया. यह देखकर उन्हें दुःख हुआ किंतु सावधान हो गए.
निषेधयुक्ति का सहारा लिया और बोले- “हे प्रिये! अब उस पिण्ड को नाली से निकालकर नदी में बिलकुल मत डालना. इसे तो यहीं पड़ा रहने देना.
यह सुनते ही मैं तो उस पिण्ड को तुरंत नाली से निकालकर नदी में डाल आयी.
प्रेतात्मा इस प्रकार कथा सुनाती रही. हे ब्राह्मण! इस प्रकार मेरे पति जो भी कहते मैं उसका उलटा ही करती. सावधानीपूर्वक काम लेते रहते तो भी मेरा स्वभाव कलहप्रिय ही था और उन्हें कष्ट देती रहती थी.
मेरे पति को संतान की इच्छा थी पर मैंने उन्हें संतान ही नहीं देने की ठान ली थी. मेरे पति खूब दुःखी हुए. हारकर संतान प्राप्ति हेतु उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया.
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