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वह बुद्धिमान थे. कक्षीवान सारा माजरा समझ गये. कक्षीवान ने सामकश्व को दूर से ही देख कर अपने शिष्य से कहा- मेरी यह थैली नदी में फेंक दो. मेरी पहेली सुलझाने वाला मनुष्य मुझे साफ दिखाई दे रहा है. अब पहेली के हल के इंतज़ार में जीना नहीं पड़ेगा.

सामकश्व कक्षीवान के करीब आकर बोला- जो मनुष्य केवल `ऋचा’ गाता है, `साम’ नहीं गाता, उसका गायन उस अग्नि जैसा है जिससे प्रकाश नहीं पैदा होता लेकिन जो ऋग्वेद की `ऋचा’ के ठीक बाद सामवेद के`साम’ भी गाता है, उसका गायन उस अग्नि-जैसा है, जिससे रोशनी भी पैदा होती है.

असल में साकमश्व के दिमाग में जब अचानक साम कौंधा था तो उसने तुरंत ही उसे गाया. संगीत सहित लयबद्ध गायन से उसे `साम’ के तेज का अहसास हुआ. उसकी समझ में आ गया कि संगीत के बिना रूखा सूखा मन्त्र पढने से कोई लाभ नहीं है.
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