जरूरी नहीं है कि जूते मारने के हर बार किसी का अपमान ही हो. कई बार उद्धार का रास्ता यही है. कथा खत्म होते-होते आपको अपने आसपास इस नीति कथा के पात्र दिखने लगेंगे. हम किसी को लक्ष्य नहीं कर रहे, बस हित अहित, मित्र चाटुकार के बीच फर्क करना सीखना चाह रहे हैं.
आपके अनेक मित्र होंगे, अनगिनत नाते-रिश्तेदार. सभी आपके शुभेच्छु हो सकते हैं या कम से कम शुभचिंतक होने का दिखावा तो कर ही सकते हैं. सच्चे मित्र और चाटुकार के बीच भेद को पहचानना बहुत जरूरी होता है. चाटुकार मीठे जहर की तरह साबित होते हैं जिसे हम आनंद से मांगकर ग्रहण करते हैं, पता ही नहीं होता कि यह तो धीरे-धीरे मौत की नींद सुला रहा है. एक नीति कथा के माध्यम से इसे सरलता से समझेंगे.
एक बार एक राजा के दरबार में एक कवि आया. कवि गुणी और प्रतिभाशाली था पर धन का लोभ या धन की आवश्यकता ने उसे शायद कुछ विवश कर रखा था.
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राजा का संकेत मिलते ही कवि ने राजा की प्रशंसा में कविताएं सुनानी शुरू कर दीं. राजा खुश हो गया. फिर कवि का ध्यान राजसभा में उपस्थित महारानी की ओर गया.
उसने सोचा इसका लाभ भी ले लिया जाए. अब उसने रानी की प्रशंसा में कविताएँ सुनानी शुरू कीं. रानी भी उसकी कविता से प्रभावित और प्रसन्न थीं. कवि ने राजा-रानी दोनों का दिल जीत लिया था.
राजा ने मंत्री से पूछा कि इस विद्वान कवि ने हमें प्रसन्न किया है. राजा इतना प्रसन्न था कि वह कवि को दरबार में जगह तक दे सकता था. पर उसने मंत्री से ही कवि के योग्य उचित ईनाम पूछ लिया.
मंत्री कुछ चुप रहा. राजा को मंत्री की बुद्धिमता पर अटूट विश्वास था. उसके परामर्श के बिना निर्णय नहीं करता था. मंत्री था भी उस योग्य. राजा ने दोबारा पूछा.
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तो मंत्री ने अनमने मन से कहा- महाराज, इन्होंने आपको और महारानी को अपनी रचना और मधुर गीत से प्रसन्न कर लिया है. आपको जो उचित लगे वह पुरस्कार इन्हें दें. इस विषय पर मेरा निर्णय शायद अच्छा न हो.
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राधे राधे जी