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हर रात्रि की भांति इंद्रपुत्र जयंत बागीचे में आया और यान से उतरकर फूलों को तोड़्ने लगा. फूलों की सुगंध में मस्त उसे भगवान नृसिंह के निर्माल्यों का ध्यान ही न रहा.

जयंत जब वाग के फूल तोड़कर वापस यान पर चढने का प्रयास करने लगा तो वह स्वयं अपने यान में चढ़ने में असमर्थ अनुभव करने लगा. उसके पैर उठ ही नहीं पा रहे थे. उसने कई प्रयास किए पर असफल रहा.

यान पर बैठे सारथी देवसेवित ने कहा- इंद्रकुमार लगता है कि आपने भूलवश भगवान नृसिंह के निर्माल्य को लांघ लिया है. अब आप इस यान पर चढ नहीं पायेंगे. मुझे दुःख है पर मैं कुछ नहीं कर सकता. इसलिए मैं तो चला स्वर्गलोक.

जयंत ने विनीत भाव से कहा- यदि मेरे साथ जाना संभव नहीं है तो कम से कम अज्ञानता में हुए मेरे इस पाप के निवारण का कोई उपाय जानते हो तो वह बताकर प्रस्थान करो या स्वर्गलोक जाकर वहां से निवारण पूछकर शीघ्र ही मुझे संदेश दो.

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