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वो और आगे आया करीब पांच मीटर तक। फन बंद कर लिया, लेकिन उसका सर बहुत बड़ा था! आदमी के सर से भी बड़ा! उसके दाढ़ी नहीं थी युवा था वो! उसकी आँखें ऐसी जैसे अंगार! उसने जीभ लपलपाई, माहौल का जायज़ा लिया और फिर ऊंचा उठा।

ऐसे लहराया जैसे कोई सपेरा किसी सांप को बीन से लहराता है। उसका शरीर बहुत मोटा था। हाथी के पाँव से भी मोटा। अजगर जैसा एकदम काला वो और आगे आया, करीब तीन मीटर लहरा कर और अब हम लेट गए नीचे। दोनों हाथ आगे किये, सर झुकाये। वो और आगे आया और एकदम हमारे करीब।

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मणि के प्रकाश से आँखें मिचमिचा गयीं। चमक के मारे आँखें बंद ही हो गयीं। मैंने अब अपने हाथों पर गरम गरम श्वांस महसूस की। वो हमारे करीब ही था। भय तो था हमें। उसने एक दंश मारना था, और मैं सीधा परलोक सिधार जाता। मैंने सर उठाया और उसके भयानक नेत्रों को देखा। पीला लौह जैसे खौलता है, ऐसे नेत्र। उसने जीभ फिर लपलपाई, मेरे शरीर में झुरझुरी छूट गयी।

“क्षमा! क्षमा हे नागराज!” मैंने कहा,

उसने मुझे देखा और जीभ लपलपाई। दो-फाड़ जीभ ऐसी जैसे कि दो तलवारें आपस में भिड़ी हुईं।

“क्षमा!” मैंने कहा।

वो पीछे हटा और हटता ही चला गया। मैं उठा घुटनों पर बैठा, हाथ जोड़े हुए। वो पीछे हट गया था और अब कुंडली मारकर गौर से हमें ही देख रहा था।
उसका फन बंद था, अब कोई फुंफकार नहीं! शांत था वो। जैसे हमारी धृष्टता को क्षमा कर दिया था उसने। मैंने प्रणाम किया उसको और खड़ा हो गया।

वो पीछे हटा, कुंडली खोली, पीछे घूमा! और चल पड़ा पीछे। हमारे देखते ही देखते प्रकाश झलकाता हुआ झाड़ियों से होकर जंगल में चला गया। हम भौचक्के से उसको देखते रहे और वह ओझल हो गया।  कितना अलौकिक नज़ारा था।

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उसकी गरम श्वास अभी तक जैसे मेरे हाथों पर जीवंत थी और वो भीनी भीनी अलौकिक सुगंध अभी तक नथुनों में बसी थी। मैं लौट आया, लेकिन मन उसी इच्छाधारी में था। उस सहस्त्र वर्षों के तपस्वी में, तपस्याधारी में रमा हुआ था।

अगले दिन रात करीब ग्यारह बजे मैं फिर से उसी स्थान पर पहुंचा। फिर से प्रकाश सा चमका अब ये दो रंग का था! एक सफ़ेद  दूधिया और एक संतरी। आज दो मणियाँ थीं उसके पास। हम उसकी ओर बढ़े। वह बैठा था फन फैलाये कुंडली मारे। आज वे मणियाँ उसके मस्तक पर नहीं थीं बल्कि कुंडली के मध्य थीं। वहीँ से प्रकाश आ रहा था।

संतरी वाला प्रकाश तो जैसे दहक रहा था। प्रकाश उसके कुंडली के बीच से ऐसे आ रहा था। जैसे कोई टॉर्च भूमि में दबा दी हो। उस प्रकाश में उसका फन साफ़ दिखायी दे रहा था। मैं डरता हुआ आगे गया और बैठ गया घुटनों के बल। उसने फुंफकार भरी और फिर फुंकार छोड़ी। भयानक आवाज़ हुई, कोई हाथी भी हो तो भाग जाए पीछे।

फिर कुछ देर ऐसे ही रहा मैं, न वो हिला, और न हम। फिर मैं आगे बढ़ा। सांप ऐसे ही बैठा रहा। मैं और आगे गया! कोई हरक़त नहीं की उसने। हमारे बीच कोई एक मीटर की दूरी रह गयी!

अब उसने जीभ लपलपाई और मैं बैठ गया। हाथ जोड़े और घुटनों पर बैठ गया। मेरे सामने एक विशाल सर्प था। जो विषैला, खतरनाक, और ताक़तवर था। शायद मैने उसका विश्वास जीत लिया था। मैंने सर उठाकर उसके दहकते नेत्रों में देखा। कुछ पल ऐसे ही बीते।

“हे नागराज!” मैंने कहा, उसने फुंकार मारी। “हे नागराज!” मैंने फिर कहा, और फिर से एक भयंकर फुंकार!

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