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स्वर्णपात्र उन्हें भी नहीं मिला. एक दिन एक बूढ़ा किसान भोलेनाथ के दर्शन को आया. उसे इस पात्र की बात पता भी न थी. गरीब देहाती किसान था तो कपड़े भी मैले और फटे थे.
उसके पास कपड़े में बंधा थोड़ा सत्तू और एक फटा कम्बल था. लोग मन्दिर के पास गरीबों को कपड़े और पूरी-मिठाई बांट रहे थे; किन्तु एक कोढ़ी मन्दिर से दूर पड़ा कराह रहा था. उससे उठा नहीं जाता था. सारे शरीर में घाव थे.
कोढ़ी भूखा था लेकिन उसकी ओर कोई देखता तक नहीं था. किसान को कोढ़ी पर दया आ गयी. उसने अपना सत्तू उसे खाने को दे दिया और कम्बल उसे ओढ़ा दिया. फिर वह मन्दिर में दर्शन करने आया.
मन्दिर के पुजारी ने अब नियम बना लिया था कि सोमवार को जितने यात्री दर्शन करने आते थे, सबके हाथ में एकबार वह स्वर्णपात्र जरूर रखते थे. किसान जब दर्शन करके निकला तो उसके हाथ में भी स्वर्णपात्र रख दिया.
उसके हाथ में जाते ही स्वर्णपात्र में जड़े रत्न पहले से भी ज्यादा प्रकाश के साथ चमकने लगे. यह तो कमाल हो गया था. सब लोग बूढ़े व्यक्ति की प्रशंसा करने लगे.
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