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तुलसीदासजी ने अवधी भाषा में श्रीरामचरितमानस की रचना आरंभ की तो उन्हें ज्ञात था कि विधर्मियों द्वारा भाषाशैली को लेकर आक्षेप किया जाएगा, हीन बताया जाएगा. इसलिए उन्होंने अनुरोध किया कि जिसमें श्रीराम नाम आए वह कविता के गुणों से हीन होने पर भी परम कल्याणकारी होता है.
दोहा :
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥
भावार्थ:- तुलसीदास जी कहते हैं- मेरी रचना सब गुणों से रहित है. इसमें जगत प्रसिद्धि के अतिरिक्त कोई गुण नहीं है. उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले और निर्मल ज्ञान से युक्त लोग इसे सुनेंगे.
चौपाई :
एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥
भावार्थ:- इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है जो अत्यन्त पवित्र है. यह नाम सभी वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन या आसरा है और अमंगलों को हरने वाला है जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं.
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