आपने कल की भागवत कथा में पढ़ा कि वृतासुर के वध के बाद इंद्र ब्रह्महत्या के दोष से से बचने के लिए मानसरोवर में कमलनाल में जाकर एक हजार वर्षों के लिए छिप गए और तप करने लगे.काफी तलाशने पर भी देवताओं को इंद्र नहीं मिले. अब आगे

देवगुरू बृहस्पति ने अपने चले जाने से देवताओं एक के बाद एक नए संकट में पड़ता देखा तो अपना क्रोध त्यागकर देवलोक में आ गए. उन्होंने इंद्र की खोज में देवों को लगा दिया आखिर अग्नि ने इंद्र को तलाश ही लिया. बृहस्पति ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह उन्हें पापमुक्त करने का उपाय करेंगे तब तक वह मानसरोवर में रहकर श्रीहरि की आराधना करें.

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इन्द्रासन के ख़ाली रहने से असुरों के देवलोक पर कब्जा करने का भय था. इसलिए देवताओं ने पृथ्वी के धर्मात्मा राजा नहुष को इन्द्र के पापमुक्त होने तक स्वर्ग के अधिपति का पद दे दिया. नहुष प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा पुरुरवा का पौत्र था.

नहुष बड़े धर्मात्मा, प्रतापी और त्यागी थे. अपने पुण्य-प्रताप से वह सशरीर स्वर्ग पहुंचे थे. इसलिए देवताओं को इंद्र की पदवी के लिए कार्यवाहक के रूप में नहुष से श्रेष्ठ कोई नहीं नजर आया.

नहुष अब समस्त देवता, ऋषियों और गन्धर्वों से शक्ति प्राप्त कर स्वर्ग का भोग करने लगे. एक दिन स्वर्ग में नहुष ने इन्द्र की साध्वी और परम सुंदरी पत्नी शची को देखा. शची को देखते ही नहुष रीझ गए और उसे प्राप्त करने का हर सम्भव प्रयत्न करने लगे.

जब शची को नहुष की बुरी नीयत का आभास हुआ तो वह भयभीत होकर बृहस्पति के शरण में पहुँची और नहुष से अपने सतीत्व की रक्षा की गुहार लगाई. गुरु बृहस्पति ने इन्द्राणी को शरण दी. इन्द्र पर लगे ब्रह्महत्या के दोष का निवारण के लिए बृहस्पति ने अश्वमेघ यज्ञ करवाया.

ब्रह्महत्या के दोष से मुक्त होकर इंद्र पुनः शक्ति सम्पन्न हो गये किन्तु इन्द्रासन पर तो नहुष का अधिकार था. इसलिए अन्य देवों और महर्षियों के पुण्य की जो शक्ति इंद्रासन को मिलती थी, इंद्र उससे अभी भी वंचित थे. वह शक्ति तो नहुष को मिल रही थी.

इंद्र ने इसका उपाय निकालने के लिए अपनी पत्नी शची से कहा कि तुम नहुष को आज रात एकांत में मिलने के लिए बुलाओ किन्तु शर्त यह रखना कि वह तुमसे मिलने के लिए सप्तर्षियों द्वारा उठाई जाने वाली पालकी पर बैठ कर आएं.

शची के निमंत्रण से नहुष को अपना मनोरथ पूरा होता दिखा. कामांध होकर वह बुद्धिभ्रष्ट हो गए थे. नहुष को यह भी ध्यान न रहा का सप्तर्षियों के कंधे पर सवार होने से उनके सारे पुण्य कर्म नष्ट होने लगेंगे. काम का मोह ही ऐसा होता है.

सप्तर्षि(आकाश में हम इन्हें तारकों के पुंज के रूप में देख सकते हैं) पालकी उठाकर नहुष को लेकर चले. उनकी अपनी चाल होती है जिसके अनुसार वे गति कर रहे थे. शची से मिलने की बेचैनी में उन्हें सप्तर्षियों की पालकी की चाल बहुत धीमी लग रही थी.

नहुष ने सप्तर्षियों को तेज चलने के लिए उकसाने के उद्देश्य से ‘सर्प-सर्प’ तेजी से चलो लेकिन ऋषियों की चाल तेज न हुई. क्रोध में नहुष ने अगस्त्य मुनि को एक लात मार दी.

अगस्त्य मुनि ने नहुष को शाप दे दिया- मूर्ख! तेरा धर्म नष्ट हो जाए और तू दस हज़ार वर्षों तक सर्पयोनि में पड़ा रहे. अगस्त्य ऋषि के शाप से नहुष तत्काल सर्प बन कर पृथ्वी पर जा गिरा और देवराज इन्द्र को उनका इन्द्रासन पुनः प्राप्त हो गया.

इक्ष्वाकु वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे– याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति. याति परमज्ञानी थे तथा राज्य और लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे. इसलिए राजा नहुष ने अपने दूसरे बेटे ययाति का राज्याभिषेक कर दिया. (भागवत कथा)

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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