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त्रेतायुग में एक बार बहुत भयंकर अकाल पड़ा. अकाल इतना भीषण था कि कौशिक ऋषि जैसे तेजस्वी भी उसकी पीड़ा से नहीं बच सके.
कौशिक पत्नी-बच्चों समेत सुरक्षित स्थान की खोज में निकले. परिस्थिति ऐसी बन गई कि कौशिक को अपने एक पुत्र को बीच रास्ते में ही छोड़ना पड़ा.
अकेला रह जाने के कारण वह बालक बड़ा दुखी था. बालक को बहुत भूख लगी थी. उसने आसपास नजर दौड़ाई मगर कुछ भी न मिला.
उसे बस एक पीपल का पेड़ दिखा. पेड़ के नजदीक ही एक तालाब भी था जिसमें कुछ जल अभी बचा था
भूख से बेचैन उस बालक ने पीपल के पत्ते खाए. इसी तरह वह पीपल के पत्ते खाकर और तालाब का पानी पीकर अपने दिन काटने लगा.
एक दिन नारदजी की नजर उस पर पड़ी. वह दयालु हो गए. उस बालक के साहस से प्रभावित होकर उन्होंने उसे विष्णुमंत्र की दीक्षा दी और साधना करने को कहा.
बालक ने अपनी भक्ति से भगवान विष्णु को प्रसन्न कर लिया. उनसे योग एवं ज्ञान की शिक्षा लेकर महर्षि बन गया. पीपल के पत्ते खाकर जीवित रहने के कारण नारद ने उसका नाम पिप्पलाद रखा.
एक दिन महर्षि पिप्पलाद ने नारदजी से अपने बचपन के कष्टों का कारण पूछा. नारदजी ने बताया कि शनि के प्रकोप के कारण उन्हें दुख झेलना पड़ा.
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Aap ke aap me gyanbardhak kàthayen hain jo bahut hi achhi hain
Iske liye dhanyabad
आपके शुभ वचनों के लिए हृदय से कोटि-कोटि आभार.
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