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सेठ ने उत्तर दिया- सच में संसार में धन की ही पूजा है. अब मेरा यह विश्वास पक्का हो गया है. धन ही संसार को चला रहा है.
महात्माजी ने कहा- ऐसा आपने क्यों कहा अचानक, कोई खास कारण?
सेठ ने कहना शुरू किया- महात्माजी आप तो संतई में हैं. मोह-माया के बंधनों में आपको भी इतना लिपटे देखकर आश्चर्य हुआ. आम लोगों की भावनाएं तो भौतिकता से जुड़ी होंगी लेकिन आप तो संत है. मैले कपड़े वाले को अपने पास बिठाने की आपको तभी सूझी जब मेरे धनी होने का पता चला.
माया को माया मिले, कर-कर लंबे हाथ।
तुलसीदास गरीब की, कोई न पूछे बात।।
महात्माजी आप माया के प्रभाव में मुझे अपना रहे हैं. क्या यह सत्य है या आपके द्वारा प्रदर्शित प्रेम का कोई और कारण है?
महात्माजी अपने स्वभाव अनुसार मुस्कुराए और फिर बोले- सेठजी आपको समझने में फेर हुआ है. मैं यह सम्मान आपके धन के प्रभाव में नहीं दे रहा. मेरा यह सम्मान तो जरूरतमंदों के प्रति आपके त्याग के भाव को है.
धन तो संसार में अनेकों लोगों के पास और बेहिसाब है पर उनके जेब से किसी के परोपकार के लिए स्वेच्छा से दमड़ी तक नहीं निकलती.
आपके अंदर में दान के भाव के रूप में स्वयं साक्षात लक्ष्मीपति निवास कर रहे हैं. मेरा यह सम्मान उस भाव को है. जब मैंने चादर घुमवाई तो इस प्रांगण में बहुत से और ऐसे लोग भी थे जो आपके जितना तो नहीं पर वे भी काफी समर्थवान हैं.
परंतु जब किसी दुखियारे की सहायता की बात आई तो उन्होंने मन मसोसकर चंद रूपए इस कारण डाल दिए कि अगल-बगल वाले डाल रहे हैं इसलिए डालना ही होगा या फिर महात्माजी ने कहा है इसलिए भी डालना होगा.
आपके अंदर वह भाव स्वयं से उपजा.
आप यदि इसमें दो रूपए भी डालते तो लोगों को इससे ज्यादा की आशा न होती पर आपने जो दान किया वह अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए नहीं बल्कि सचमुच आपमें किसी दुखियारे के प्रति सुंदर भाव आया. उस भाव को सम्मान न करूं तो अच्छाई संसार से लुप्त हो जाएगी.
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