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भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥

भावार्थ:- अच्छे कवियों के द्वारा रची हुई सुंदर रचनाएं भी राम नाम के बिना वैसे ही शोभाहीन है जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती.

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥3॥

भावार्थ:- इसके विपरीत, कविता की कला से हीन पुरुष जिसकी कविता रचना के सभी गुणों से रहित हो फिर यदि उसमें श्रीराम के नाम एवं यश का गान है तो बुद्धिमान लोग उसे आदरपूर्वक सुनते हैं क्योंकि संतजन तो भौंरे जैसे होते हैं जो सिर्फ गुण ही ग्रहण करते हैं.

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥4॥

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