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बालक निषाद के मन में यह बात बैठ गई कि उसे अयोध्या के राजकुमारों के दर्शन करने हैं. इस तरह वह पांच वर्ष के गए. पुत्र की उत्कंठा देख वृद्ध पिता ने आज्ञा दे दी कि जाओ इच्छा पूरी कर लो. साथ में सहायक भी भेज दिए.
पिता ने भेंटस्वरूप मीठे फल तथा रुरु नामक मृग के चर्म की बनी हुईं छोटी छोटी पनहिंयाँ (बनवासियों द्वारा पहनी जाने वाली छोटी धोती) देकर पुत्र को विदा किया.
छोटे निषाद ने फल वगैरह तो साथियों को सौंपा कि लेकर चलो लेकिन चारों पनहियां अपनी काँख मे दबाए चलते रहे. कई दिन में रास्ता तय हुआ. अयोध्या पहुंचकर छोटे निषाद ने अपनी गठरी सरयू जी के किनारे रखी और स्नान करने लगे.
उन्हें पिता ने समझाया था कि स्नान करके ही महल में जाना. वह स्नान तो कर रहे थे तो लेकिन निगाह गठरी पर ही थी जिसमें वह रामलला और उनके अनुजों के लिए उपहार लाए थे.
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