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शिवि ने एक तराजू मंगाया. एक पलड़े में कबूतर को रखा दूसरे में अपनी बायीं जंघा से मांस काटकर रखा. काफी सारा मांस काटकर रखने से भी पलड़ा न हिला.
एक जंघा का पूरा मांस काट देने से भी पलड़ा न हिला तो उन्होंने दूसरी जंघा काटकर पलड़े पर रखा. पलड़ा फिर भी न हिला.
राजा ने एक-एक कर अपने सभी अंगों का मांस काटकर तराजू पर रख दिया तो भी वह कबूतर के वजन के बराबर न हुआ. पूरे शरीर से खून की धारा बह रही थी लेकिन उनके चेहरे पर पीड़ा न थी.
उन्हें चिंता बस इस बात की थी कि अगर कबूतर के वजन के बराबर मांस न हुआ तो बाज कबूतर को ले जाएगा और वचन में बंधे होने के कारण वह बाज को रोक भी न पाएंगे.
अब शिवि के शरीर पर बस हड्डियों का ढांचा भर बचा था. कोई राह नहीं दीख रही थी. सो शिवि कबूतर की जान बचाने के लिए वह खुद तराजू के पलड़े में बैठ गए. ऐसा करते ही कबूतर और बाज दोनों अपने असली रूप में प्रकट हो गए.
दोनों देवों ने राजा की प्रशंसा की और उन्हें स्वस्थ कर दिया. देवों ने वरदान दिया-शरणागत की रक्षा और प्रजापालक व धर्मरक्षक वीरों का जब भी जिक्र होगा, शिवि का नाम सुनकर देवता भी प्रशंसा में सिर झुकाएंगे.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश
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बहुत प्रेरक कहानी है आप का प्रयास सराहनीय है बहुत बहुत धन्यवाद