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व्रती मंडप के मध्य में ब्राह्मणों द्वारा एक सुंदर सी वेदिका की रचना करवाए. उसके ऊपर सोने से जड़ा शिलारूप भगवान शालिग्राम को स्थापित कर भक्तिपूर्वक चन्दन, पुष्प आदि से पूजा करनी चाहिए. भगवान् का ध्यान करते भूमि पर सोकर सात रात बिताए.
यह सुनकर राजा चन्द्रचूड ने काशी में ही कोई समय न गंवाते हुए भगवान् सत्यनारायण की शीघ्र ही पूजा की. इस पूजा से प्रसन्न होकर रात्रि में भगवान ने राजा को एक उत्तम तलवार-प्रदान की.
शत्रुओं को नष्ट करने वाली तलवार प्राप्त कर राजा ब्राह्मण श्रेष्ठ सदानंद को प्रणाम कर अपने नगर को चले. चंद्रचूड जब अपने नगर वापस आए तो वहां विधर्मियों का राज था.
राजा चंद्रचूड़ ने उन विधर्मियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया और छ: हजार विधर्मी दस्युओं को मारकर उनसे अपार धन प्राप्त किया साथ ही नर्मदा के मनोहर तट पर पुन: भगवान श्रीहरि की पूजा की.
राजा प्रत्येक मास की पूर्णिमा को भक्तिपूर्वक विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण की पूजा करने लगे. उस व्रत के प्रभाव से वह लाखों ग्रामों के अधिपति हो गये और साठ वर्ष तक राज्य करते हुए अन्त में उन्होंने विष्णुलोक को प्राप्त किया.
(स्रोत: भविष्य पुराण प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खंड तृतीय अध्याय)
संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली
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