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कार्तिकेय ने भगवान देवदेवेश्वर से कहा– आपके कहने से मैं दांत तो विनायक के हाथ में दे देता हूं, किंतु इन्हें इस दांत को सदैव धारण करना पड़ेगा. यदि इस दांत को फेंककर ये इधर-उधर घूमेंगे तो यह फेंका गया दांत इन्हें भस्म कर देगा.
ऐसा कहकर कार्तिकेय ने गणेशजी का दांत उनके हाथ में रख दिया. भगवान देवदेवेश्वर ने गणेशजी को इस बात के सहमत कर लिया कि वह कार्तिकेय की बात को स्वीकार करेंगे. पिता की इच्छा रखने के लिए गणेशजी ने बात मान ली.
सुमन्तु मुनि ने कहा– राजन! आज भी भगवान शंकर के पुत्र विघ्नहर्ता महात्मा विनायक की प्रतिमा हाथ में दात लिए देखी जा सकती हैं. देवताओं की यह रहस्यपूर्ण बात देवता भी नहीं जान पाये थे. पृथ्वी पर इस रहस्य को जानना तो दुर्लभ ही है.
मैंने इस रहस्य को आपसे तो कह दिया हैं, किंतु गणेश को यह अमृत कथा चतुर्थी तिथि के संयोग पर कहनी चाहिए. जो इस चतुर्थी व्रत का पालन करता हैं उसके लिये इस लोक तथा परलोक में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता.
सुमन्त मुनि बोले– चतुर्थी तिथि में निराहार रहकर व्रत करना चाहिए. ब्राह्मण को तिल का दान देकर स्वयं भी तिल का भोजन करना चाहिये. इस प्रकार दो वर्ष का व्रत करने पर भगवान विनायक प्रसन्न होकर व्रती को अभीष्ट फल प्रदान करते हैं.
वह अपार धन-सम्पत्ति का स्वामी हो जाता है तथा परलोक में भी अपने पुण्य-फलों का उपभोग करने के पश्चात इस लोक में आकर वह दीर्घायु, कान्तिमान,बुद्धिमान, भाग्यवान तथा असाध्य-कार्यों को भी क्षण-भर में ही सिद्ध कर लेने वाला होता है.
(स्रोत- भविष्य पुराण ब्रह्मपर्व, बाइसवां अध्याय)
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्
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