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मेरे आठवें गुरू है समुद्र. संसार के सभी रत्नों के खान रत्नाकर होने के वाबजूद यह शांत रहते हैं. रूप, गुण और संपत्ति से परिपूर्ण होने पर भी मानसिक संतुलन कैसे बनाया जाए वह समुद्र ने सिखाया.
भ्रमर यानी भौंरे को मैं अपना नवां गुरू मानता हूं. भ्रमर विभिन्न पुष्पों के रस निचोड़ते हैं. इनके व्यक्तित्व से मैंने सीखा कि संसार में जहां भी ज्ञान हो उसे ग्रहण करने को तत्पर होना चाहिए.
मेरे दसवें गुरू है- अबोध बच्चे. ये सबसे स्नेह रखते हैं. बच्चों से सीखा जा सकता है कि ईर्ष्या, द्वेष और अभिमान से मुक्त रहकर कैसे सरलतापूर्वक और आनंदमय जीवन जीना संभव है.
कितना सच है न, हम गुरू की तलाश में भटकते रहते हैं. जीवन निकल जाता है. प्रकृति हमारी सबसे बड़ी गुरू है क्योंकि उसे माता का दर्जा भी मिला है. सीखिए उन सभी चीजों से जो आपमें कोई गुण जोड़ने की क्षमता रखते हैं.
संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्