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भगवान दत्तात्रेय श्रीहरि के अवतार थे. यह बात उन्होंने प्रकट नहीं होने दी थी. बस जिसने समझ लिया वही समझता था. जिसे नहीं पता वह उन्हें एक महर्षि मात्र ही समझता था.
एक बार राजा यदु उनके दर्शन को आए और पूछा- महर्षि संसार की ऐसी कोई विद्या नहीं जिसमें आप निपुण न हों. आप संसार के बंधनों में भी नहीं पड़ते. आपको ऐसी उत्तम शिक्षा देने वाले गुरू के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता है.
श्रीदत्तात्रेयजी ने कहा- मैंने दस गुरुओं से यह सब कुछ सीखा है. 10 गुरुओं की बात से यदु को विस्मय हुआ. फिर उन्होंने गुरूओं के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की.
दत्तात्रेय़ बोले- देवी पृथ्वी मेरी प्रथम गुरू हैं जिनसे मैंने दैविक, भौतिक और कृत्रिम विपत्तियों को सहते हुए भी स्थिर बने रहने की शिक्षा पाई.
मेरे दूसरे गुरू वायु हैं. रूप, रस और गंध की वासना से मुक्त होकर यह सिर्फ प्राणवायु (इसे हम ऑक्सीजन कह सकते हैं) के रूप में आहार लेता है और जीव का अस्तित्व बनाए रखता है.
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