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देशभर में चारों ओर यह समाचार फैल गया. दूर- दूर से तपस्वी, त्यागी, व्रती, दान-पुण्य करने वाले लोग काशी आने लगे. एक तपस्वी ने कई महीने लगातार चन्द्रायण व्रत किया था. वह उस स्वर्णपात्र को लेने आए.

जब स्वर्णपात्र उन्हें दिया गया, उनके हाथ में जाते ही वह मिट्टी का हो गया. उसकी ज्योति नष्ट हो गई. लज्जित होकर उन्होंने स्वर्णपात्र लौटा दिया. पुजारी के हाथ में जाते ही वह फिर सोने का हो गया और रत्न चमकने लगे.

एक धर्मात्मा ने बहुत से विद्यालय बनवाये थे, कई सेवाश्रम चलाते थे। दान करते-करते उन्होंने काफी धन खर्च कर दिया था. बहुत सी संस्थाओं को दान देते थे. अखबारों में नाम छपता था. वह भी स्वर्णपात्र लेने आए किन्तु उनके हाथ में भी जाकर मिट्टी का हो गया.

पुजारी ने कहा- ऐसा लगता है कि आप पद, मान या यश के लोभ से दान करते जान पड़ते हैं. नाम की इच्छा से होने वाला दान सच्चा दान नहीं है. इसी प्रकार बहुत से लोग आए, किन्तु कोई भी स्वर्णपात्र पा नहीं सका. सबके हाथों में वह मिट्टी का हो जाता था.

कई महीने बीत गए. बहुत से लोग स्वर्णपात्र पाने के लोभ से भगवान के मंदिर के आसपास ही ज्यादा दान-पुण्य करने लगे. लालच की पट्टी पड़ गई थी और मूर्खतावश यह सोचने लगे कि शायद मंदिर के पास का दान प्रभु की नजरों में आए.

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