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भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मनु थिर करि तब संभु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥2॥

पार्वतीजी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए. सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने ब्रह्मलोक को चले गए. तब शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान करने लगे.

भोलेनाथ जैसे विजितेंद्रिय विवाह की बात को सहमत हैं यह सब अकारण नहीं हो रहा है. इसके पीछे एक बड़ा देवकार्य भी छुपा है. तारकासुर नामक महाअसुर ने संसार को क्षुब्ध कर रखा है. उसने सभी दिक्पालों से छीनकर त्रिलोकी का संचालन स्वयं करने की धृष्टता की है.

तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख संपति रीते॥3॥

देवता और मनुष्य सभी त्राहि-त्राहि कर रहे हैं. इस संकट का निवारण भोलेनाथ के अतिरिक्त किसी के भी पास नहीं है. प्रभु अपने भक्तों को कष्ट में कैसे देख सकते हैं.

अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥4॥

वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था. देवताओं ने उसके साथ बहुत युद्ध किया किंतु हार गए. तब देवों ने ब्रह्माजी के पास जाकर गुहार लगाई.

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