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यशोदा जी ने नारायण का अवतार समझकर उन्हें विधिवत प्रणाम किया. प्रभु ने माया फैलाई और माता को ममता रस से सराबोर कर दिया. उनकी स्मृति से वह सब निकाल दिया जो उन्होंने देखा था.

शुकदेवजी ने जब राजा परीक्षित से प्रभु की इस लीला का वर्णन आरंभ किया तो उनके मन में कौतूहल हुआ. उन्होंने शुकदेव से पूछा- मुनिवर नंदजी और यशोदाजी ने ऐसा क्या पुण्य किया था जो उन्हें ऐसा सौभाग्य प्राप्त हुआ?

शुकदेवजी ने बताया- नन्दबाबा पूर्वजन्म में द्रोण नामक वसु थे. उनकी पत्नी का नाम था धरा. दोनों ने ब्रह्माजी से मांगा- जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब जगदीश्वर श्रीहरि हमारे घर में पुत्र रूप में रहकर हमारा जीवन सार्थक करें.

ब्रह्माजी ने द्रोण और धरा को अभीष्ट वरदान दे दिया. द्रोण ब्रज के राजा नन्द हुए और धरा इस जन्म में उनकी पत्नी यशोदा हुईं. ब्रह्माजी का वरदान पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण ब्रज में रहकर ब्रजवासियों को अपनी लीला से आनन्दित करने लगे.

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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