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ऋषि भारद्वाज ने सूतजी से पूछा- ऋषिवर, शांतनु देवताओं द्वारा दिए रथ पर बैठने योग्य नहीं रह गये थे, ऐसा क्यों हुआ था? फिर उन्होंने ऐसा क्या किया कि वह रथ पर बैठने के अधिकारी बन सके? इस प्रसंग को सुनाने की कृपा करें.

राजा शांतनु को देवताओं ने प्रसन्न होकर दिव्य रथ प्रदान किया था. शांतनु उसी रथ का प्रयोग करते थे. एक दिन वह रथ पर सवार होकर कहीं गए. कार्य पूरा करने के बाद वह पुनः अपने रथ पर सवार होने आए तो वह सवार ही न हो सके.

राजा ने कई बार प्रयास किया किंतु वह उस दिव्य रथ पर सवार न हो सके. रथ वहां से लुप्त गया. राजा रथविहीन हो गए थे. चिंतित शांतनु ने सोचा- मैं प्रतिदिन नृसिंह भगवान की पूजा मनोयोग से करता हूं. लक्ष्मीपति भी मुझसे रुष्ट नहीं हैं. देवताओं ने तो प्रसन्न होकर ही यह रथ सौंपा था. फिर ऐसा क्यों?

इसी बीच नारदजी उधर से होकर गुजरे. यदि राजा रथविहीन हो जाए तो उसका अर्थ होता है कि उसका पराक्रम और ऐश्वर्य नष्ट हो चुका है. इसलिए शांतनु को थोड़ी लज्जा आयी. परंतु नारदजी को देख कुछ ढाढस भी बंधा.

शांतनु के बोलने से पहले नारदजी ही बोल पड़े- राजन इस तरह विषाद से भरकर आप किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. आपका रथ कहां है, दिखाई तो नहीं देता?

शांतनु ने विनीत भाव से कहा- मुनिश्रेष्ठ मैं अपने रथ से ही यहां आया था पर जब लौटकर रथ पर चढने को हुआ तो जाने क्यों मेरी गति रूक गई. मैं रथ पर चढने में असमर्थ हो गया तो रथ लौट गया. मैं यहां असहाय खड़ा हूं.

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