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लक्ष्मी देवी बोलीं- देव! मुझे न तो विरोचन जानते हैं न बलि. मुझे भूति, लक्ष्मी और श्री कहते हैं.

देवताओं को भी मेरे विषय पर ज्यादा ज्ञात नहीं. धाता-विधाता मुझे किसी कार्य में नियुक्त नहीं कर सकते लेकिन काल का आदेश मैं मानती हूं.

इस समय काल ने बलि को त्यागने के लिए प्रेरित किया है. मैं सत्य, दान, व्रत, तपस्या और धर्म में निवास करती हूं.

बलि इन सबसे युक्त थे तो मैं आनंदपूर्वक और गर्व से इनके महल और कोष में निवास करती थी. अब वह इनसे अलग हुए हैं.

बलि साधुजनों के हितैषी,सत्यवादी और जितेंद्रिय होते थे किंतु अब मोह में पड़कर वह अपना ही यजन करने लगे हैं. इसलिए मैं उनका त्याग करने को विवश हूं.

इंद्र ने कहा- देवी आपकी कृपा से ही बलि का प्रताप था. अब वह निस्तेज हो जाएंगे. आपको सदैव के लिए प्रसन्न रखने का क्या उपाय है.

लक्ष्मीजी बोलीं- देव मैं चंचला हूं, सदैव कहीं वास नहीं करती फिर भी मैं आपको यह बताउंगी कि मैं किस स्थान पर निवास करना पसंद करती हूं. मेरी बात को ध्यान से सुनना.

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