गणेश चतुर्थी को गणपति स्थापना के साथ दस दिनों का विशेष पूजा-अनुष्ठान आरंभ होता है. हमने आपको गणपति प्रतिमा स्थापना की सारी बातें बताईं. गणपति की पूजा में कौन सी भूल जो अक्सर लोग कर देते हैं, उससे बचने को बताया. गणपति कौन हैं, क्या वह सचमुच शिव-पार्वती के पुत्र ही हैं, इस बारे में बताया. गणपति को प्रसन्न रखना क्यों जरूरी है, यह बताया. आप उस पोस्ट को इस लिंक से भी पढ़ सकते हैं.
अब आपको गणेश चतुर्थी की पूजन की कथा बताते हैं. कथाएं किसी भी पूजा में बहुत आवश्यक होती हैं. क्योंकि इनके माध्यम से ही परंपराएं आगे बढ़ी हैं. इनके माध्यम से ही आगे बढ़ेंगी
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।।गणेश चतुर्थी पूजन की कथा।।
गणेश चतुर्थी की अनेक कथाएं हैं. इनमें से तीन कथाएं बहुत लोकप्रिय हैं. तीनों कथाओं में से सर्वाधिक प्रचलित कथा यहां प्रस्तुत की जा रही है. शेष दोनों कथाएं प्रभु शरणम् ऐप्प में दी जाएंगी.
एक बार भगवान शंकर और माता पार्वती नर्मदा नदी के तट पर बैठे थे. देवी पार्वती ने समय व्यतीत करने के लिए भोलेनाथ से चौपड़ खेलने को कहा. महादेव तैयार हो गए. परन्तु वहां कोई और था नहीं. इसलिए इस खेल में हार-जीत का फैसला कौन करेगा?
भोलेनाथ ने कुछ तिनकों से पुतला बनाया और उसमें प्राण प्रतिष्ठा कर दी. पुतला बालक के रूप में जीवित हो गया. महादेव ने बालक से कहा- पुत्र हम चौपड़ खेलना चाहते हैं. तुम इस खेल का निर्णायक बनो. तुम फैसला करना कि चौपड़ में कौन हारा और कौन जीता?
चौपड का खेल तीन बार खेला गया. संयोग से तीनों बार पार्वतीजी जीत गईं. खेल समाप्त होने पर बालक से देवी ने उसका निर्णय पूछा. उसने महादेव को विजयी घोषित कर दिया. पार्वतीजी क्रोधित हो गईं.
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उन्होंने कहा- तुममें निर्णायक बनने की क्षमता नहीं है. हार-जीत प्रत्यक्ष देखते हुए भी तुमने कुटिलता से गलत निर्णय सुनाया. इसलिए तुम लंगड़े होकर कीचड में पड़े रहो. बालक ने पैर पकड़ लिए और कहा- आप मेरी माता समान हैं. मैंने द्वेष में ऐसा नहीं किया अज्ञानतावश से हुआ. क्षमा कर दें.
पार्वतीजी पसीज गईं. उन्होंने कहा- यहां गणेश पूजन के लिए नाग कन्याएं आएंगी. उनसे पूजा की विधि समझकर तुम गणेश व्रत करो. ऐसा करने से तुम मुझे प्राप्त करोगे. यह कहकर शिव-पार्वती कैलाश चले गए. सालभर बाद नाग कन्याएं गणेश पूजन के लिए आईं.
उनसे पूजन विधि ठीक से समझकर बालक ने श्रीगणेश का 21 दिन लगातार व्रत किया. गणेशजी प्रसन्न हो गए और वर मांगने को कहा.
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बालक ने मांगा- हे विनायक मुझमें इतनी शक्ति दीजिए कि मैं अपने पैरों से चलकर अपने माता-पिता के साथ कैलाश पर्वत पर पहुंच सकूं और वे यह देख प्रसन्न हों.
श्रीगणेश से वरदान प्राप्त कर वह बालक कैलाश पर्वत पर पहुंच गया. अपने कैलाश पर्वत पर पहुंचने की कथा उसने भगवान महादेव को सुनाई. किसी बात पर पार्वतीजी, भोलेनाथ से रुष्ट हो गईं. बातचीत तक बंद हो गई. कैलाश पर रह रहे उस बालक को भी बात पता चली.
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उसने शिवजी से कहा- जैसे माता ने कहा था कि गणेश पूजा करके तुम मेरा स्नेह प्राप्त करोगे. नाराज देवी को मनाने के लिए आप भी वही पूजन करिए. भक्त की बात पर भोलेनाथ मुस्कुराए.
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वह देवी को प्रसन्न करने के लिए बालक के मन में बसे गणेश आराधना के भाव को बनाए रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने बालक से गणेश पूजा की विधि समझी और व्रत किया. पुत्र के प्रति इस स्नेह के भाव से पार्वती खुश हो गईं. माता के मन से भगवान भोलेनाथ के लिये जो नाराजगी थी वह समाप्त हो गई.
गणेश को प्रथम पूजनीय बनाने से नाराज शिवपुत्र कार्तिकेय दक्षिण में निवास कर रहे थे. देवी को पुत्र से मिलने की बड़ी इच्छा हुई. वह पुत्र से मिलने को बेचैन हो गईं. शिवजी ने युक्ति लगाई. उन्होंने पार्वती से कहा- पुत्र को प्राप्त करने के लिए तुम भी गणेश पूजन करो.
एक पुत्र से मिलन को व्याकुल माता ने दूसरे पुत्र की आराधना करनी शुरू कर दी. कार्तिकेय को खबर लगी. वह भागे-भागे कैलाश आए. माता की पुत्र से भेंट की मनोकामना पूरी हुई. उस दिन से श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत मनोकामना पूरे करने वाला व्रत माना जाता है.
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