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माता पार्वती के अनुरोध पर भगवान शिव ने गीता के अध्यायों के पाठ का माहात्म्य सुनाना शुरू किया था. काशीपुरी में धीरबुद्धि नाम से विख्यात एक ब्राह्मण था, जो मुझमें प्रिय नन्दी के समान भक्ति रखता था.
वह हिंसा, कठोरता और दुःसाहस से दूर रहने वाला था. जितेन्द्रिय होने के कारण वह निवृत्तिमार्ग में स्थित रहता था और समस्त वेदों का पाठ किया था.
मुझे वह ऐसा प्रिय था कि अन्तरात्मा से पाठ करने के बाद जब वह चलने को होता तो मैं उसे अपने हाथों का सहारा दिया करता था. जब वह मेरा ध्यान करता मैं तत्काल उसके समक्ष आ जाता था.
घीरबुद्धि के प्रति मेरा यह प्रेम देख मेरे पार्षद भृंगिरिटि ने पूछा- भगवन! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा? इस महात्मा ने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं महादेव उसे ही पग-पग पर हाथ का सहारा देते रहते हैं?
भृंगिरिटि का यह प्रश्न सुनकर मैंने उससे कहा- एक समय कैलास पर्वत के पीछे पुन्नाग वन के भीतर चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से धुली हुई भूमि में एक वेदी का आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था. मेरे बैठने के क्षण भर बाद ही सहसा बड़े जोर की आँधी उठी.वृक्षों की शाखाएँ आपस में टकराने लगीं. पर्वत की अविचल छाया भी हिलने लगी.
फिर ऐसी भयंकर आवाज हुई जिससे पर्वत की कन्दराएँ गूंज उठीं. आकाश से एक विशाल पक्षी उतरा. उसकी कान्ति काले मेघ के समान थी. अन्धकार के समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था. पक्षी ने मुझे प्रणाम कर एक सुन्दर कमलपुष्प मेरे चरणों में रखकर स्तुति करने लगा.
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