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जनाबाई सेविका थीं. उनका सौभाग्य था कि वह संत नामदेव के घर में परिचारिका का काम करती थीं. पानी भरना, झाड़ू लगाना, बर्तन मांजना, कपड़े धोना और चक्की पीसना उनका नित्यकार्य था.

संत के घर में हमेशा भगवान का भजन कीर्तन होता था. भक्ति की अविरल सरिता बहती थी. धीरे धीरे जनाबाई भी इस सरिता में स्नान करने की अभ्यस्त हो गईं. मन और प्राणों के द्वार खुल गए.

भक्ति का प्रवाह अंदर तक होने लगा. अब तो जनाबाई के मुख ही नहीं प्राणों से भी पवित्र भगवन्नाम का का निरंतर उच्चारण होने लगा. एक बार एकादशी के दिन संत नामदेवजी के यहां भक्तमंडली जमा हुई थी.

पूरी रात भगवान विट्ठल का नाम कीर्तन चलता रहा. दिनभर व्रत के चलते जनाबाई ने अन्न ग्रहण नहीं किया था.

भक्त जन कीर्तन करते रहे और एक कोने में बैठकर जनाबाई प्रेमाश्रु बहाती रहीं.

आखिरकार भजन खत्म हुआ और जनाबाई घर लौट गईं. पूरी रात की थकान थी, अगले दिन उठने में देर हो गई. जब नींद खुली तो हड़बड़ाकर उठ बैठीं. शीघ्र नित्यकर्म से निवृत होकर भक्त शिरोमणि नामदेव के घर पहुंची.

झाड़ू दिया, बर्तन मांजे और कपड़े धोने के लिए नजदीक चंद्रभागा नदी के किनारे पहुंचीं.

कपड़े धोते धोते ध्यान आया कि जिस कमरे में कीर्तन होता है उसे व्यवस्थित करना तो भूल ही गईं. कपड़े धोने के लिए डुबाए जा चुके थे. उसे छोड़कर जाना भी संभव नहीं था. जनाबाई का हृद्य अपने आराध्य के लिए पूरी व्यवस्था नहीं कर पाने के बोझ से भर आया.

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