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तब मैंने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली और वह भी इसलिए कि मेरे पति की बहुत बदनामी हो और लोग उन्हें परेशान करें. आत्महत्या के कारण ही मुझे यह प्रेतयोनि मिली है.

अभी तक मैं किसी पुरुष के शरीर में प्रविष्ट हुई थी और सभी को परेशान कर रही थी किंतु जब वह व्यक्ति कृष्णा और वेणी नदियों के संगमतट पर पहुंचा, तब भगवान शिव और विष्णु के दूतों ने मुझे उसके शरीर से दूर भगा दिया.

अब मैं किसी अन्य शरीर में प्रविष्ट होने के लिए ही इधर आ रही थी कि सामने आप मिल गए.

मैं आपको डराकर आपका मनोबल गिराना चाहती थी ताकि आपके श्वास द्वारा आपके शरीर में प्रविष्ट हो सकूं.

तुलसीदल का स्पर्श होने से मेरा कुछ उद्धार हुआ है. मेरे कुछ पाप नष्ट हुए हैं किंतु अभी मेरी सदगति नहीं हुई है. अतः आप कुछ कृपा करें.

धर्मदत्त ब्राह्मण ने उसकी कथा सुनी तो बड़े व्यथित हुए. वह उसे प्रेतयोनि से तत्काल छुटकारा दिलाने को व्याकुल हो गए. उन्हें एक युक्ति सूझी.

संकल्प करके जन्म से लेकर उस दिन तक उन्होंने जितने भी कार्तिक व्रत किए थे, उसका आधा पुण्य प्रेतयोनि में भटकती कलहा को अर्पित कर दिया. इस दान का तत्काल परिणाम दिखा.

वहाँ भगवान श्रीविष्णु के सुशील एवं पुण्यशील नामक दो प्रिय पार्षद विमान लेकर आए और कलहा को प्रेतयोनि से मुक्तकर आदर से विमान में बैठने को कहा.

फिर पार्षदों ने धर्मदत्त से कहा- हे ब्राह्मण! जो परहित में रत रहते हैं उनके पुण्य दुगने हो जाते हैं. अपनी दोनों पत्नियों के साथ तुम लम्बे समय तक सुखपूर्वक रहते हुए बाद में विष्णुलोक को प्राप्त करोगे. यह कलहा भी तुम्हें वहीं मिलेगी.

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