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उस प्रेतात्मा ने अपनी कथा सुनानी शुरू की- हे भूदेव! मैं पूर्वजन्म में कलहा नामक ब्राह्मणी थी. जैसा मेरा नाम था वैसे ही मेरे कर्म थे. स्वभाव अनुसार मैं अपने पति के साथ खूब कलह-क्लेश किया करती थी.
यह देखकर मेरे पति बहुत परेशान हो गये और अपने किसी मित्र के साथ उन्होंने विचार-विमर्श किया.
पति ने बताया कि मैं पत्नी से जो भी कहता हूं, वह उसका उलटा ही करती है, तब मित्र ने निषेध युक्ति से काम लेने का सुझाव दिया.
निषेध युक्ति यानी जो कार्य कराना है उसके लिए मना कर देना. मेरे पति घर आये और बोले- “कलहा! मेरा जो मित्र है न, वह बहुत खराब है. अतः उसे कभी भोजन के लिए नहीं बुलाना है.
तब मैंने कहा- नहीं, वह तो बहुत सज्जन है इसलिए उसे आज ही भोजन के लिए बुलाना है. फिर मैंने उसे बुलाकर अच्छे से भोजन करवाया.
कुछ दिन बीतने पर मेरे पति ने पुनः निषेध युक्ति अपनाते हुए कहा- कल मेरे पिता का श्राद्ध है किंतु हमें श्राद्ध बिल्कुल नहीं करना है. श्राद्ध व्यर्थ का कार्य है.
मैंने कहा- धिक्कार है तुम्हारे ब्राह्मणत्व पर! श्राद्ध है और हम श्राद्ध न करें तो फिर यह जीवन किस काम का है? आप श्राद्ध की महिमा नहीं जानते इसलिए अनर्गल बोल रहे हैं.
तब पति बोले- अच्छा ठीक है. तुम्हारी जिद पर कर लते हैं पर बस एक ब्राह्मण को बुलाना और इस बात का ध्यान रखना कि जो ब्राह्मण हो वह संस्कारी बिल्कुल न हो. मास-मदिरा का सेवन करने वाला, शास्त्रों से विमुख और भ्रष्ट हो.
मैंने कहा- धिक्कार है, तुम ऐसे ब्राह्मण को पसंद करते हो! जो संयमी हो, विद्वान हों ऐसे अठारह ब्राह्मणों को बुलाना है. उन्हें भोजन-दान आदि कराउंगी मैं तो.
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