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सोमशर्मा ने कहा- राजन्! वहां सब कुशल है. आश्चर्य है! ऐसा सुन्दर और विचित्र नगर तो कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा. बताओ तो सही, आपको इस नगर की प्राप्ति कैसे हुई?

शोभन बोले- कार्तिक कृष्णपक्ष में ‘रमा’ नाम की एकादशी होती है, उस व्रत के करने से मुझे इसकी प्राप्ति हुई है. मैंने श्रद्धाहीन होकर इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया था, इसलिए मैं ऐसा मानता हूँ कि यह नगर स्थायी नहीं है. आप चन्द्रभागा से यह सारा वृत्तान्त कहियेगा.

शोभन की बात सुनकर ब्राह्मण मुचुकुन्दपुर में गये और वहाँ चन्द्रभागा के सामने उन्होंने सारा वृत्तान्त कह सुनाया. सोमशर्मा बोले- शुभे! मैंने तुम्हारे पति को प्रत्यक्ष देखा. इन्द्रपुरी के समान उनके सुंदर नगर को भी देखा किन्तु वह नगर अस्थिर है. तुम उसे स्थिर बनाओ.

चन्द्रभागा ने कहा- मेरे मन में पति के दर्शन की लालसा लगी हुई है. आप मुझे वहाँ ले चलिये. मैं अपने व्रत के पुण्य से उस नगर को स्थिर बनाऊँगी.

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हे राजन्! चन्द्रभागा की बात सुनकर सोमशर्मा उसे साथ ले मन्दराचल पर्वत के निकट वामदेव मुनि के आश्रम पर गये. वहाँ ॠषि के मंत्र की शक्ति तथा एकादशी सेवन के प्रभाव से चन्द्रभागा का शरीर दिव्य हो गया तथा उसने दिव्य गति प्राप्त कर ली.

इसके बाद वह पति के समीप गयी. अपनी प्रिय पत्नी को आया हुआ देखकर शोभन को बड़ी प्रसन्नता हुई. उन्होंने उसे बुलाकर अपने वाम भाग में सिंहासन पर बैठाया.

उसके बाद चन्द्रभागा ने अपने प्रियतम से कहा- नाथ! जब मैं आठ वर्ष से अधिक उम्र की हो गयी, तबसे लेकर आज तक मेरे द्वारा किये एकादशी व्रत से जो पुण्य संचित हुआ है, उसके प्रभाव से यह नगर कल्प के अन्त तक स्थिर रहेगा तथा सब प्रकार के मनोवांछित वैभव से समृद्धिशाली रहेगा.

नृपश्रेष्ठ ! इस प्रकार ‘रमा’ व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा दिव्य भोग, दिव्य रुप और दिव्य आभरणों से विभूषित हो अपने पति के साथ मन्दराचल के शिखर पर विहार करती है.

हे महाराज युधिष्ठिर! मैंने तुम्हारे समक्ष ‘रमा’ नामक एकादशी के महात्म्य का वर्णन किया है. यह एकादशी चिन्तामणि तथा कामधेनु के समान सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली है.

जो वैष्णवजन एकादशी का व्रत रखते हैं उन्हें व्रत से जुड़े कुछ विशेष नियमों का पालन करना चाहिए. इससे व्रत का पुण्य बढ़ जाता है. हम समय-समय पर ये बातें बताते रहते हैं. आप फिर से बताते हैं-
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