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अपने राज्य पर निष्कण्टक शासन करने वाले मुचकुंद के घर में नदियों में श्रेष्ठ ‘चन्द्रभागा’ नदी ने कन्या के रूप में जन्म लिया. चंद्रभागा परम सुंदरी और गुणवती थी.

वह कन्या अपने आचार-व्यवहार से सबको प्रसन्न रखने वाली थी. युवा होने पर राजा ने चन्द्रसेनकुमार शोभन के साथ चंद्रभागा का विवाह कर दिया. एक बार शोभन दशमी के दिन अपने ससुर के घर आए.

उसी दिन समूचे नगर में पूर्ववत् ढिंढ़ोरा पिटवाया गया कि एकादशी के दिन कोई भी भोजन न करे. शोभन के कानों में भी यह आवाज पहुंची. उसने अपनी प्रिय पत्नी चन्द्रभागा से पूछा- अब मुझे इस समय क्या करना चाहिए, यह बताओ.

चन्द्रभागा बोली- मेरे पिता के घर पर एकादशी के दिन मनुष्य तो क्या कोई पालतू पशु आदि भी भोजन नहीं कर सकते. प्राणनाथ! यदि आप भोजन करेंगे तो आपकी बड़ी निन्दा होगी. इस प्रकार मन में विचार करके अपने चित्त को दृढ़ कीजिये.

शोभन ने कहा- प्रिये! तुम्हारा कहना सत्य है. मैं भी उपवास करुँगा. दैव का जैसा विधान है, वैसा ही होगा.

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके शोभन ने व्रत के नियम का पालन किया किन्तु सूर्योदय होते-होते उनका प्राणान्त हो गया. मुचुकुन्द ने शोभन का राजोचित दाह संस्कार कराया. चन्द्रभागा पिता के ही घर पर रहने लगी.

हे नृपश्रेष्ठ युधिष्ठिर ! उधर शोभन इस व्रत के प्रभाव से मन्दराचल के शिखर पर बसे हुए परम रमणीय देवपुर को प्राप्त हुए. वहां शोभन द्वितीय कुबेर की भाँति शोभा पाने लगे.

एक बार राजा मुचुकुन्द के नगरवासी विख्यात ब्राह्मण सोमशर्मा तीर्थयात्रा के प्रसंग से घूमते हुए मन्दराचल पर्वत पर गये, जहां उन्हें शोभन दिखायी दिए. राजा के दामाद को पहचानकर वे उनके समीप गये.

शोभन भी उस समय सोमशर्मा को आया हुआ देखकर शीघ्र ही आसन से उठ खड़े हुए और उन्हें प्रणाम किया. फिर क्रमश अपने ससुर राजा मुचुकुन्द, प्रिय पत्नी चन्द्रभागा तथा समस्त नगर का कुशलक्षेम पूछा.
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