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श्रीकृष्ण उनकी चिंता भांप गए। उन्होंने कहा कि आप चक्रवर्ती सम्राट हैं। आपको यह सोचने की आवश्यकता नहीं कि आपके यज्ञ में पधारा कोई व्यक्ति अतृप्त रह गया। आप एक राजा की दृष्टि से इसे देखने का प्रयास करें तो निदान निकलेगा।
भगवान की बात सुनकर युधिष्ठिर की उलझन और बढ़ गई। उन्होंने पूछाः भगवन क्या मैं राजा के रूप में अपने कर्मों का पूरा निर्वाह नहीं कर रहा हूं? यह तो और बड़ा अन्याय है।
भगवान मुस्कुराए। आप श्रेष्ठ राजा हैं, धर्मराज हैं। धर्म आपके संरक्षण में सबसे ज्यादा समर्थवान है। मैं आपको जो समझाने का प्रयास कर रहा हूं, उसे देखें।
आप किसी गरीब, सच्चे और निश्छल हृदय वाले व्यक्ति को बुलाकर उसे अपने हाथों से भोजन कराएं। जब उसकी आत्मा तृप्त होगी तो आकाश घंटियां अपने आप बज उठेंगी।’
यधिष्ठिर बोले- प्रभु आप ही ऐसे किसी व्यक्ति का पता बताएं। मैं उन्हेंं तृप्त करने का पूरा प्रयास करूंगा। श्रीकृष्ण ने ऐसे एक व्यक्ति का पता दिया।
धर्मराज युधिष्ठिर स्वयं उसकी खोज में निकले। आखिरकार उन्हें उस निर्धन की कुटिया मिल गई। युधिष्ठिर ने अपना परिचय देते हुए उससे प्रार्थना की, ‘बाबा, आप हमारे यहां भोजन करने की कृपा करें।’
पहले तो उसने मना कर दिया लेकिन काफी प्रार्थना करने पर वह तैयार हो गया। युधिष्ठिर उसे लेकर यज्ञ स्थल पर आए।
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