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रानी ने राजा की बात का समर्थन किया और उनके साथ वह आगे बढने लगी. कुछ दुर चलने पर राजा ओर रानी ने देखा कि सप्तरंगी आभा बिखेरता हीरों का पहाड है. अब तो रानी से भी रहा नहीं गया.

हीरों के आर्कषण में वह भी दौड पडी और हीरों की गठरी बनाने लगी. फिर भी उसका मन नहीं भरा तो साड़ी के पल्लु में भी बांधने लगी. हीरों के बोझ के कारण रानी के वस्त्र देह से अलग हो गए परंतु हीरों की तृष्णा अभी भी नहीं मिटी.

यह देख राजा को ग्लानि ओर विरक्ति हुई. बडे दुःखद मन से राजा अकेले ही आगे बढते गए. वहां सचमुच भगवान प्रतीक्षा कर रहे थे. राजा को देखते ही भगवान मुस्कुराए और पूछा- कहां है तुम्हारी प्रजा और तुम्हारे प्रियजन, मैं तो कब से उनकी प्रतीक्षा में हूं.

राजा ने शर्म ओर आत्म-ग्लानि से अपना सर झुका दिया. तब भगवान ने राजा को समझाया- जो भौतिक-सांसारिक प्राप्ति को मुझसे अधिक मानते हैं, उन्हें कदाचित मेरी प्राप्ति नहीं होती और वह मेरे स्नेह तथा आर्शीवाद से भी वंचित रह जाते हैं.
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