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शास्त्रों में मनुष्य के लिए तीन प्रकार के ऋण कहे गए हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण एवं पितृ ऋण. पितृ ऋण को श्राद्ध करके उतारा जाना आवश्यक है. वर्ष में एक बार पितरों की मृत्यु तिथि को चल, तिल, जौ, कुश और पुष्प से श्राद्ध करके गौग्रास देकर, तीन या पंच ब्राह्मणों को भोजन करा देने मात्र से यह ऋण उतर जाता है.

पितृगण इतने ही कार्य से प्रसन्न होकर अनुकंपा करते हैं. पुत्र को चाहिए कि वह माता-पिता की मृत्यु की तिथि को दोपहर काल में जब सूर्य की किरणें पैरों पर स्पर्श करती हों, श्राद्ध तर्पण करना चाहिए.

जिस स्त्री के पुत्र न हो वह स्वयं पति का श्राद्ध तर्पण कर सकती है. श्राद्ध की महत्ता बताती एक पौराणिक कथा सुनें.

जोगे तथा भोगे दो भाई थे. दोनों अलग-अलग रहते थे. जोगे धनी था और भोगे निर्धन. दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था. जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था, किंतु भोगे की पत्नी बड़ी सरल हृदय थी.

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