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उसके हाथों की अंगूठी भी गायब हो गई. जिस वैभव पर वह इतरा रहा था, पलभर में राख के ढेर में बदल गया.

उस व्यक्ति के सामने लक्ष्मीजी थीं. जो बुढ़िया कुछ देर पहले उसके सामने दीन-हीन होकर गिड़गिड़ा रही थीं, वही अब लक्ष्मीजी के रूप में उसके सामने मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं.

वह समझ गया कि उसने बुढ़िया को नहीं, साक्षात लक्ष्मीजी को घर से निकाल दिया था. वह देवी के चरणों में गिर पड़ा.

देवी बोलीं, तुम इस धन के योग्य नहीं हो. जहां निर्धनों का सम्मान नहीं होता, मैं वहां निवास नहीं कर सकती. तुमने अपनी दयालुता की भावना त्याग दी, मैं तुम्हें त्याग रही हूं.

यह कहकर लक्ष्मीजी उसकी आंखों से ओझल हो गईं. एक साल के भीतर वह व्यक्ति उसी दरिद्रता की स्थिति में खड़ा था.

इंसान दुख में भगवान को याद करता है. भक्ति में डूबकर सच्चा बने रहने का प्रण लेता है लेकिन उसी भगवान की कृपा से अच्छे दिन लौटते ही उसकी नीयत बदल जाती है. अपनी जड़ों को हमेशा याद रखना चाहिए. मन की अच्छी भावनाएं बनी रहती हैं.
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