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युवक ने उत्तर दिया- नहीं. यह पानी तो मीठा और बहुत स्वादिष्ट है. बुद्ध फिर पहले की ही तरह मुस्कुराने लगे. उन्होंने युवक को बैठने का इशारा किया फिर स्वयं भी पास में बैठ गए.

स्नेहपूर्वक बुद्ध बोले- जीवन के दुःख बिलकुल नमक जैसे हैं. जीवन में दुःख की मात्रा वही रहती है बस फर्क इस बात का होता है कि हम कितने दुःख का स्वाद लेते हैं. यह इस पर निर्भर करता है कि हम उसे किस पात्र में डाल रहे हैं.

इसलिए जब तुम दुखी हो तो सिर्फ इतना कर सकते हो कि खुद के मन को बड़ा कर लो, गिलास मत बने रहो, झील बन जाओ. तुम्हारे दुख और हताशा उस झील में घुल भी जाएंगे और स्वाद भी कड़वा न होगा.

यह कथा हमें बहरीन में रह रहे प्रवासी भारतीय आशुतोषजी के सौजन्य से प्राप्त हुई.

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