इसके बाद प्रमद्वरा के से रुरु का विवाह हो गया लेकिन रुरु को सर्पों से बैर हो गया. वह सर्प जाति का विनाश कर देना चाहता था. एक बार उसने एक पानी का सर्प देखा.
रुर ने सर्प को मारने के लिए हाथ में पकड़ी लाठी चलाई. वह उसे मार डालना चाहता था कि तभी वह पानी का सर्प मनुष्य की भाषा में बोला पड़ा- युवक मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो मेरे प्राण लेने पर उतारू हो.
रुरु ने कहा- मेरी प्रियतमा को एक सर्प ने डस लिया था. इस कारण उसके प्राण चले गए. तब से मैंने सभी सर्पों को नष्ट करने की प्रतीज्ञा ली है.
सर्प बोला- तुम्हारा क्रोध उचित, किंतु हम डुंडुभों (विषविहीन पानी के सर्प) को क्यों मारते हो, हममें तो विष ही नहीं होता. सर्प की आकृति मात्र से हमारे प्रति तुम्हारा बैर तो उचित नहीं है ऋषि कुमार.
रुरु मनुष्य की बोली में सर्प को बात करते देख चौंक गया. यह जानकर उसे दुखद आश्चर्य हुआ कि जल के सर्पों में विष ही नहीं होता. डुण्डुभ की बात सुनकर रुरु को ज्ञान हुआ और अपने किए पर पछतावा हुआ कि मैं व्यर्थ ही निर्दोष सर्पों को मारता रहा.
रुरु ने सर्प से पूछा- हे सर्प तुम मनुष्य की भाषा में बात करते हो, तुम कौन हो? सर्प ने बताया- मैं पूर्वजन्म में सहस्त्रपाद नामक ऋषि था. खगम नामक एक मेरा मित्र था.
एक दिन मेरा मित्र अग्निहोत्र कर रहा था तब मैंने हास्य करते हिए तिनकों का एक सर्प बनाया और मित्र को डराने लगा. वह उस सर्प के भय से मूर्च्छित हो गया.
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चेतना आने पर उसने मुझे शाप दिया कि जिस प्रकार तुमने विषहीन सर्प बनाकर डराया, तू वैसा ही विषहीन सर्प बन जा. मैंने उससे बहुत क्षमा प्रार्थना की तो उशने कहा कि शाप खत्म करना उसे नहीं आता.
परंतु उसने मुझे उपाय बताया कि प्रमति के पुत्र रुरु होंगे जिनका सर्पों से बैर होगा. उनसे मिलने पर तुम्हारे शाप का अंत हो जाएगा. ऋषि सर्प योनि त्यागकर वास्तव रूप में आए और रुरु को कई प्रवचन दिए.
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अपराध यदि व्यक्तिगत हो तो दंड भी व्यक्तिगत होना चाहिए. किसी एक व्यक्ति के अपराध की सजा उस पूरी जाति को क्यों को मिलनी चाहिए जिससे अपराधी का सरोकार है.
विद्वेष को कम से कम रखना चाहिए क्योंकि यह एक ऐसा विष है जिसे रोका न गया तो फैलता हुआ संपूर्ण समाज को ग्रस लेता है. महाभारत के आदि पर्व की नीति कथा.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश
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