सतीजी द्वारा श्रीरामजी की परीक्षा लेने के लिए सीताजी का रूप धरने से भोलेनाथ को बड़ी पीड़ा हुई है. वह धर्मसंकट में हैं. सीताजी उनके लिए माता सदृश हैं. सतीजी ने अज्ञानतावश माता का रूप धर लिया तो वह उनसे पत्नीवत प्रेम नहीं रखेंगे.

श्रीरामचंद्रजी पर शंका करके और महादेव की वाणी पर अविश्वास करके सतीजी भी पछता रही हैं. उन्हें आभास हो गया है कि वह एक के बाद एक भूल करती जा रही हैं. सर्वज्ञ महादेवजी से सत्य नहीं छिप सकता.

चौपाईः
हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना क्षोभ और इतनी चिन्ता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता. वह समझ गई हैं कि शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं. इस कारण प्रत्यक्ष रूप में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा.

संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥

शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्यागकर दिया है और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं. उन्हें अपने पाप का ज्ञान हो चुका है इसलिए कहते नहीं बनता, परन्तु उनका हृदय भीतर ही भीतर कुम्हार के अलाव समान जलने लगा.

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

वृषकेतु शिवजी ने सतीजी को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए कैलाश के मार्ग में कुछ सुंदर कथाएं कहीं. इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलाश जा पहुंचे.

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥4॥

कैलाश में फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए. शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला. उन्होंने अखण्ड और अपार समाधि ले ली.

दोहा:
सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥

तब सतीजी कैलाश पर रहने लगीं. उनके मन में बड़ा दुःख था. इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था. उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था.

अविवेक और शंका मन को कलुषित करने का कार्य करते हैं लेकिन पश्चाताप मन को निर्मल कर देता है. सतीजी ने अज्ञानतावश जो कार्य किया वह निःसंदेह ही अनुचित था किंतु श्रीरामचंद्रजी के वास्तविक स्वरूप को देखकर उन्हें पछतावा हुआ है.

फिर असुरों तक पर दया करने वाले महादेव क्यों उनका त्याग कर रहे हैं? कारण है, सती की हठधर्मिता. महादेव ने इसे भी सहन कर लिया कि सती उनकी बात का अविश्वास करती हैं लेकिन सती महादेव का सामर्थ्य भूल रही हैं, सर्वज्ञ से छुपाने का हठ कर रही हैं.

एक सत्य पर पर्दा डालने के फेर में हम असत्य के सर्पपाश में फंसते जाते हैं और अंततः हम सबकुछ गंवा देते हैं. आगे की कथा कल सुनाउंगा…

संकलनः राजन प्रकाश

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