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इंद्र ने कहा- तेरे प्राणों की रक्षा अब मेरे वश की बात नहीं. जा ब्रह्मदेव की शरण ले, शायद वह तेरी रक्षा कर सकें.

जयंत ने वहां उपस्थित सभी देवों की ओर देखा सभी सिर झुकाए खड़े थे. वह ब्रह्माजी के पास पहुंचा. ब्रह्माजी ने भी असहमति जताई.

एक लोक से दूसरे लोक तक जयंत ने हर जगह दौड़ लगाई, प्राण रक्षा की गुहार लगाई लेकिन सबने हाथ खड़े दिए. जयंत को शरण देकर कोई भी प्रभु के कोप का भागी नहीं बनना चाहता था.

ब्रह्मबाण उसका पीछा कर रहा था. जान बचाने के लिए मारे-मारे फिर रहे जयंत को नारदजी मिल गए. उसने नारदजी से कहा कि आप तो नारायण के प्रियभक्त हैं. नारायण कोप से रक्षा का उपाय बताइए.

नारदजी को उसकी दशा पर दया आ गई. उसकी दुष्टता का उसे पर्याप्त दंड भी मिल चुका था.

नारदजी ने राह सुझाई- जयंत तू इस बाण से छिपता अपने असली रूप में जाकर सीधे माता सीता के चरणों में गिर जा और अभयदान मांग ले. इसके अतिरिक्त तेरी प्राणों की रक्षा का कोई दूसरा उपाय नहीं.

जयंत ने सारी शक्ति जुटाई और पूरे वेग से भागकर पंचवटी पहुंचा. वहां जाकर सीधा देवी के पैरों में गिर गया और प्राणरक्षा की गुहार लगाई.

चूंकि उसने कौए के रूप में प्रहार किया था इसलिए देवी सीता उसके असली रूप में देवी उसे पहचान नहीं पाईं. उन्होंने जयंत को अभयदान दे दिया.

वरदान प्राप्त करने के बाद जयंत ने सारी बात बताई. इसे सुनकर माता भी उलझन में पड़ गईं.
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