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प्रभु श्रीराम द्वारा भेंट की गई दी माला को पहनकर देवी सीता बड़ी प्रसन्न थीं. आज भगवान के मन का बोझ कुछ हुआ हल्का हुआ था. उन्हें हमेशा ऐसा लगता था कि एक राजकन्या को उनके कारण वन का कष्ट भोगना पड़ रहा है.
श्रीराम और माता सीता आनंद में मग्न वार्तालाप कर रहे थे. दुष्ट स्वभाव के जयंत से उनकी खुशी बर्दाश्त नहीं हुई.
वह वृक्ष से अचानक उड़ा और पलभर के अंदर सीताजी के पास पहुंचा. उसने सीताजी के पैर में चोंच से प्रहार किया और फिर झटपट उड़कर वृक्ष पर जा बैठा.
प्रहार गहरा था. इससे देवी के पांव से खून बहने लगा. श्रीराम इसे देखकर बहुत क्रोधित हो गए. उन्होंने पहचान लिया कि यह किसने और क्यों किया है.
जयंत उन्हें चिढ़ा रहा था. प्रभु को इस अभिमानी को दंड तो देना ही था. उन्होंने एक सरकंडे को धनुष पर चढ़ाया और बाण को आदेश दिया कि दुष्ट को दंड दे.
प्रभु का आदेश मिलते ही वह सरकंडा ब्रह्मबाण हो गया. ब्रह्मबाण जयंत की ओर लपका तो जयंत जान बचाने के लिए भागा. बाण ने उसका लगातार पीछा किया.
भागता-भागता जयंत अपने पिता देवराज इंद्र के पास पहुंचा और उनसे सहायता की याचना की. उसे लगा कि पिता उसकी रक्षा करेंगे.
इंद्र ने दिव्यदृष्टि से सब जान लिया और स्वयं भयभीत हो गए. अनिष्ट की आशंका से कांपने लगे.
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