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अनवरत बारह साल तक चले युद्ध के अंतिम चरण में देवताओं ने युद्ध को जीत लिया. दैत्यों, असुरों का दांव नहीं चला और वे जीतते-जीतते भी देवताओं से पराजित हो गए.
दु:खी होकर सभी असुर नायक सेनापति दैत्यराज बलि की अगुआई में गुरु शुक्राचार्य जी के पास गए और अपनी पराजय का पूरा वृतांत बतलाया. असुरों ने कहा- हम जीत रहे थे परंतु न जाने कैसे देवता जीत गए. हमको इसका बहुत दुख है.
शुक्राचार्य बोले-आप सब वीरता से लड़े. आपका दुख अकारण है. महान योद्धाओं को दुख नहीं करना चाहिए. काल की गति से जय-पराजय तो होती ही रहती है. जय पराजय की चिंता छोड़ भविष्य की रणनीति पर कार्य करे. पराजय से मिली सीख की भी बड़ी भूमिका होती है.
दैत्यराज बलि ने कहा- गुरुवर, यदि हमें पराजय के मूल कारणों का पता लग जाए तो हम अभेद्य रणनीति तैयार कर सकते हैं, पर हम अभी तक नहीं जान सके कि हम पराजित क्यों हुए. कृपया आप हमारा मार्गदर्शन करें.
शुक्राचार्य ने असुरो को संबोधित करते हुए कहा- जब युद्ध का बारहवां वर्ष चल रहा था और अंतिम चरण में देवताओं की पराजय सुनिश्चित होने लगी तो इंद्र को पराजय का भय सताने लगा.
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