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नारद बैकुंठ लोक की ओर दौड़े. रास्ते में श्रीहरि और श्रीमती मिल गए. नारदजी ने श्रीहरि को खरी-खोटी सुनानी शुरू कर दी- आपने समुद्र मंथन के दौरान मोहिनी रूप में असुरों से छल किया. शिवजी को हलाहल पिला दिया जबकि मंथन से निकलीं लक्ष्मी देवी को अपने लिए मांग लिया. आज छल से मेरी प्रिय कन्या छीन ली. मैं स्त्री विरह में जिस प्रकार व्याकुल हूं, आपको भी ऐसा स्त्री विरह भोगना पड़ेगा.

श्रीहरि ने उसी समय अपनी माया समाप्त कर दी. नारदजी को पल भर में सब समझ में आ गया. वह श्रीहरि के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे. भगवान ने उन्हें समझाया कि उन्होंने कोई छल नहीं किया.

उन्होंने तो पहले ही कहा था कि वह वैद्य की तरह ऐसा कार्य करेंगे जिससे आपका उपकार हो सके. काम और मद के प्रभाव से निकालने का यही उपचार था. प्रभु ने उन्हें शिव सहस्त्र शिवनाम का जाप करने को कहा और अंतर्ध्यान हो गए.

संकलन व प्रबंधन: प्रभु शरणम् मंडली

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