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उन्होंने शाप दिया- तुमने मुझे आचार्य बनने का न्योता देकर किसी अन्य से यज्ञ कराया. अपने गुरू का अपमान किया है तुमने. तुम्हारे लिए यह शरीर व्यर्थ है. तुम विदेह यानी बिना देह के हो जाओ.
जिस समय निमि को शाप मिला वह यज्ञ में दीक्षित थे. उनके ऋत्विज ब्राह्मणों ने आपस में परामर्श करके निमि के शरीर को मंत्रशक्ति के बल से सुरक्षित कर दिया. उनके शरीर से प्राण को निकलने नहीं दिया.
परमज्ञानी वशिष्ठ द्वारा शापित होने से निमि भी क्रोधित हुए. क्रोध में वह यहां तक सोच बैठे कि इंद्र की ओर से मिलने वाली दक्षिणा के लोभ में कुलगुरू होने के बाद भी मेरा यज्ञ ठुकराया और अब स्वयं मुझे विदेह करना चाहते हैं.
निमि ने कहा- मूर्खता से भरा आपका शरीर कल्याणकारी नहीं है. आप इस शरीर के अधिकारी नहीं हैं. इसलिए आपका भी शरीर क्षय हो जाएगा. निमि यज्ञ में दीक्षित तो थे ही साथ-साथ ही साथ पृथ्वी पर इंद्र के समान श्रेष्ठ थे. शाप खाली नहीं जा सकता था.
शापित होकर वशिष्ठ अपने पिता ब्रह्मदेव के पहुंचे. क्षय से पीड़ित शरीर का कष्ट सुनाकर शाप निवारण की युक्ति पूछी. ब्रह्माजी ने कहा कि वशिष्ठ को इस शरीर का त्याग करना होगा.
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